कविता : ये भेद कैसा है

ज़नाज़ा रोक दो सब देख ले मेरे जिस्म के टुकड़े 

बड़े मुश्किल से जुट पाया है ये टुकड़े जो थे बिखरे 

हुआ विस्फोट औ फिर चीख का तांता ही लग गया 

अरे शैतान के हाथों से फिर इंसान मर गया 

अधुरे आधे जिस्मों का तो जैसे ढेर लग गया 

नहीं पहचान पाया कोई किसका कौन हिस्सा है 

कि हर विस्फोट का मौला यही बस बनता किस्सा है 

मिला जो भी उठाते समझ ये तो उनका हिस्सा है 

इन्हें जो मारता लगता तुम्‍हें कोई फरिश्‍ता है 

जरा पहचान अब्दुल है कहां है कौन काशीनाथ 

सभी बिखरे पड़े हैं धुल में बिखरे पड़े हैं साथ 

सभी का खून तो है लाल फिर ये भेद कैसा है 

हमारी एकता की शाल में ये छेद कैसा है 

बस एक अफज़ल की खातिर कितने अफज़ल मार डाले हैं 

सियासत करने वालो के भी मन क्या इतने काले है 

5 COMMENTS

  1. जहा मंजिले हो राह हो

    पर कोई हमसफ़र न हो

    मौला मेरे इतना तो तनहा

    मेरा कोई सफ़र ना हो

    हर दर पे जो करना पडे

    सजदा मुझे मजबूर हो

    अल्लाह फिर मेरे जिस्म पे

    बेहतर है कोई सर न हो

    पाकीजगी से बंदगी से

    उनकी रहमत मिलती है

    उस पाक दिल बिन क्या दुआ

    जो दुआ मे कोई असर न हो

    जो भी फूकते हो बस्तिया

    अपना रसूख दिखाने को

    इतना तो कर मौला मेरे

    उनका कभी कोई घर न हो

    वो रात तो कभी आये ना

    तेरे बंदगी की राह मे

    चाहे रात लम्बी हो , पर न हो

    की इसके बाद सहर ना हो

    स्वरचित

    जीतेन्द्र मणि

    सहायक आयुक्त पुलिस

    पी सी आर

    पुलिस मुख्यालय

  2. कही हंगामा जलज़ला तबाही का मंज़र

    ऐसे हालत मे जीना भी हुनर लगता है

    हमने अपनों के लिया जान भी लुटा दी मगर

    चाहे जितना करो उनको तो कसर लगता है

    चैन से सोने वाले उनकी बुराई करते

    जो सारी रात बात इन्ही के लिए जगता है
    यहाँ कुछ शोर है कुछ गंदगी बदबू है यहाँ

    ऐसा लगता यहाँ इंसान बसर करता है

    वरना तो ऊंची हवेली यहाँ बहुत है मगर

    कितना वीरान क्या इंसान यहाँ रहता है

    ऊँचे महलो मे है नोटों के बिस्तरे लेकिन

    उनको है नींद नहीं किसका डर सा रहता है

    देखो सडकों पे खा के रूखी दिन की मेहनत से

    कैसे मजदूर वो बेफिक्र पसर रहता है

    स्वरचित

    जीतेन्द्र मणि

    सहायक आयुक्त पुलिस

    पी सी आर

    पुलिस मुख्यालय

  3. ऐतबार
    वो मेरा ऐतबार ही तो हो ओ मेरे खुदा

    जिसने एक ना खुदा को देख बनाया है खुदा

    वरना मस्जिद मे शिवालो मे भी रखा क्या है

    वरना गिरजो मे हिमाला मे भी क्या रखा है

    बुतों मे पत्थरो पहाड़ो मे क्या रखा है

    घंटियों शंख अजानो मे भी क्या रखा है

    शब्द मे साखी पुरानो मे भी क्या रखा है

    यही वो ऐतबार हगे मेरे परवरदिगार

    जो पत्थरो मे मस्जिदो मे भी दिखाय खुदा

    जिसे भी चाहे ऐतबार बनाए है खुदा

    स्वरचित

    जीतेन्द्र मणि

    सहायक आयुक्त पुलिस

    पी सी आर

    पुलिस मुख्यालय

  4. आपके विचार व्यक्त करने प्रतिक्रिया देने का स्वागत है डोक्टर मधुसुदन जी हम पोलिसे वालू को ये परिदृश्य बडे करीब से देखना पड़ता है और आत्मा रो उठती है पर क्या करे

  5. आतंकवादी को क्या आत्मा नहीं होती? या ह्रदय नहीं होता? कैसे ये बन्दे ऐसा घृणित काम करने के लिए तैयार हो जाते हैं?
    निष्पाप लोगों को मारने और मरवाने के लिए कैसे तैयार किया जाता होगा?
    उसके पहले मारने वालोंकी आत्मा मर जाती होगी.

    त्रिपाठी जी आप की कविता और उसके पीछे की प्रेरणा असामान्य है. और आप पुलिस अधिकारी हैं? एक कवि और वह भी पुलिस?
    धन्य! धन्य !

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