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कविताएं-सौरभ राय ‘भगीरथ’

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संतुलन

मेरे नगर में

मर रहे हैं पूर्वज

ख़त्म हो रही हैं स्मृतियाँ

अदृश्य सम्वाद !

किसी की नहीं याद –

हम ग़ुलाम अच्छे थे

या आज़ाद ?

 

बहुत ऊँचाई से गिरो

और लगातार गिरते रहो

तो उड़ने जैसा लगता है

एक अजीब सा

समन्वय है

डायनमिक इक्वीलिब्रियम !

 

अपने उत्त्थान की चमक में

ऊब रहे

या अपने अपने अंधकार को

इकट्ठी रोशनी बतलाकर

डूब रहे हैं हम ?

 

हमने खो दिये

वो शब्द

जिनमें अर्थ थे

ध्वनि, रस, गंध, रूप थे

शायद व्यर्थ थे ।

शब्द जिन्हें

कलम लिख न पाए

शब्द जो

सपने बुनते थे

हमने खोए चंद शब्द

और भरे अगिनत ग्रंथ

वो ग्रंथ

शायद सपनों से

डरते थे ।

 

थोड़े हम ऊंचे हुए

थोड़े पहाड़ उतर आए

पर पता नहीं

इस आरोहण में

हम चल रहे

या फिसल ?

हम दौड़ते रहे

और कहीं नहीं गए

बाँध टूटने

और घर डूबने के बीच

जैसे रुक सा गया हो

जीवन ।

 

यहाँ इस क्षण

न चीख़

न शांति

जैसे ठोकर के बाद का

संतुलन ।

 

 

 

 

भौतिकी

याद हैं वो दिन संदीपन

जब हम

रात भर जाग कर

हल करते थे

रेसनिक हेलिडे

एच सी वर्मा

इरोडोव ?

 

हम ढूंढते थे वो एक सूत्र

जिसमे उपलब्ध जानकारी डाल

हम सुलझा देना चाहते थे

अपनी भूख

पिता का पसीना

माँ की मेहनत

रोटी का संघर्ष

देश की गरीबी !

 

हम कभी

घर्षणहीन फर्श पर फिसलते

दो न्यूटन का बल आगे से लगता

कभी स्प्रिंग डाल कर

घंटों ऑक्सिलेट करते रहते

और पुली में लिपट कर

उछाल दिए जाते

प्रोजेक्टाइल बनाकर !

 

श्रोडिंगर के समीकरण

और हेसेनबर्ग की अनिश्चित्ता का

सही अर्थ

समझा था हमने |

सारे कणों को जोड़ने के बाद

अहसास हुआ था –

“अरे ! एक रोशनी तो छूट गयी !”

हमें ज्ञात हुआ था

इतना संघर्ष

हो सकता है बेकार

हमारे मेहनत का फल फूटेगा

महज़ तीन घंटे की

एक परीक्षा में |

 

पर हम योगी थे

हमने फिज़िक्स में मिलाया था

रियलपॉलिटिक !

हमने टकराते देखा था

पृथ्वी से बृहस्पति को |

हमने सिद्ध किया था

कि सूरज को फ़र्क नहीं पड़ता

चाँद रहे न रहे |

 

राह चलती गाड़ी को देख

उसकी सुडोलता से अधिक

हम चर्चा करते

रोलिंग फ़्रीक्शन की |

eiπ को हमने देखा था

उसके श्रृंगार के परे

हमने बहती नदी में

बर्नोली का सिद्धांत मिलाया था

हमने किसानों के हल में

टॉर्क लगाकर जोते थे खेत |

 

हम दो समय यात्री थे

बिना काँटों वाली घड़ी पहन

प्रकाश वर्षों की यात्रा

तय की थी हमने

‘उत्तर = तीन सेकंड’

लिखते हुए |

 

आज

वर्षों बाद

मेरी घड़ी में कांटें हैं

जो बहुत तेज़ दौड़ते हैं

जेब में फ़ोन

फ़ोन में पैसा

तुम्हारा नंबर है

पर तुमसे संपर्क नहीं है |

पेट में भूख नहीं

बदहज़मी है |

देश में गरीबी है |

 

सच कहूँ संदीपन

सूत्र तो मिला

समाधान नहीं ||

 

 

जनपथ

जनपथ में सजा है दरबार

गुज़रता है बच्चा

बेचता रंगीन अख़बार

“आज की ताज़ा ख़बर –

फलानां दुकान में भारी छूट !

आज की ताज़ा ख़बर –

(मौका मिले तो तू भी लूट)”

 

यह सड़क

सीधी होकर भी

गोल है

पैंसठ साल का सनकी बुढ्ढा

इसपर चलता हुआ

एक दिन अचानक पाता है

इसी सड़क के

बेईमान तारकोल में

धंसा हुआ गरदन तक

सड़क में डूबती

असंख्य अपाहिज अमूर्तियाँ

सड़ांध है विसर्जन तक |

 

वहीं जनपथ के अजायबघर में

सजी है

क्रांति

चहलकदमी

चीख़ें !

दीवारों पर लटकी

यात्ना प्रताड़ना उत्तेजना है

जनपथ के अजायबघर में

लाशों का

फोटू खींचना मना है |

 

जनपथ में दिन भर

आग जलती है

और अंधरात्री में

चलती हैं

प्रणय लीलाएँ |

जनपथ के हर खंभे पर लिक्खा है –

“यहाँ रोशनी न जलाएँ |”

 

सड़क के इस पार जो है

उस पार न होने की उम्मीद

अब कोई नहीं धरता

खंभे के नीचे मूतता

कुत्ता भी

लकड़ी मशाल कोयले में

विश्वास नहीं करता |

 

वहीं दूसरी छोर पर

संसद –

चर्बी का गोदाम

अश्लील और सिद्धांत के बीच

मेज़ें बजाते सभासद

इनकी आत्मा झाग है

भारतवर्ष इनके तोंद में

उठी हुई आग है |

 

पास जनपथ और राजपथ के चौराहे पर

दमकती हैं

विदेशी कम्पनियाँ !

(वर्चुअल बिल्डिंगों में

ईट ढ़ोते भारतीय इंजीनियर)

सच है –

इन्डिया गेट से

जनपथ तक

पराधीन है राजपथ !

 

जनपथ पर विचरने वालों की

हर यात्रा

ख़त्म हो जाती है

ए.सी. कमरे की टीवी में |

हर जिज्ञासा

ख़त्म हो जाती है

इंटरनेट पर एक सर्च कर –

’32,047 रिज़ल्टस रिटरण्ड’ पढ़कर |

जनपथ पर विचरने वालों के

हर विचार ख़त्म हो जाते हैं

जनपथ पर विचरकर |

 

जनपथ सिकुड़ चला है

जैसे निचुड़ रहा है

किसी बंजर गर्भ से भविष्य |

डबल लेन ट्रैफिक के नाम पर

तारकोल में लथपथ

गति और दुर्गति

के बीच टंगा हुआ

पजामा है जनपथ |

 

जनपथ से गुज़रते हुए

अहसास हो बस इतना –

कि तरसे हुए इस सड़क में

जीवन है शेष !

 

जनपथ के शोर शराबों के सन्नाटों में

कितनी अनिवार्य हो जाती है

दुर्घटना ||

 

 

गंवार

हमारे गाँवों में आकर

हमारे संग

फोटो खींचते वक्त

तुम नहीं दे पाओगे हमें

मुस्कुराने की

एक भी वजह |

 

शहर में घूमते हुए हम

आलिशान मकानों

नखरीली लड़कियों

मोटरों को देखने के बजाय

बार-बार सड़क-दुर्घटना से ही बचेंगे !

तुम्हारे घर में आकर

हम फर्श पर न चलकर

उसे साफ रखने में व्यस्त रहेंगे

चमकते बाथरूम में

घंटों खड़े सोचेंगे

ख़ुशबू आने का रहस्य !

 

तुम्हारे नृत्य में

शामिल भी कर लो

पर नहीं मिला पाएंगे हम कदम

तुम्हारे साथ !

तुम्हारा संगीत

हमारी नसों में गूँजेगा

शोर की तरह |

 

तुम्हारे परोसे शराब से आएगी

हीनता की बदबू |

 

और अगर हम

तुम्हारी तरह बन भी गए

तो पल में ही फिसल जाएँगे

हाथों से तुम्हारे सारे पैसे

मिट्टी में मिला देंगे

तुम्हारे ऐशो आराम के समस्त साधन

हममें नहीं है वो रौब

वो नखरा, वो नज़ाकत

हमारा गुस्सा हमें

भाई, पति और पिता ही बना सकता है |

 

तुम हमारी स्त्रियों को

अपने कपड़े पहना भी दो

पर नहीं लौटा सकोगे

उनके देह की सुडोलता और ऊष्मा |

भूखे चूहों की तरह

हमारे मरघिल्ले तन पर

तुम डाल दो

कितना ही पाउडर

मल दो चाहे

जितनी क्रीम

हम ताकते रहेंगे तुम्हारा ही मुंह |

 

शहरी बनने की उत्सुकता से

कहीं अधिक

चाहिए हमें

गंवार रह जाने की वजह |

 

 

चेहरे

कुछ चेहरे बचे हैं

इनकी हड्डियों में मज्जा

शिराओं में रक्त नहीं है |

 

ये चेहरे

खेतों में दबे हैं

मशीनों के गियर के बीच

घड़घड़ाकर पिस रहें हैं

दुकानों में

इंतज़ार कर रहें हैं

ग्राहक का |

 

यही चेहरे हैं

जो दंगों में बिलबिलाते हैं

हिंदू को हिंदू

मुस्लिम को मुस्लिम हूँ

बताते हैं

 

यही चेहरे हैं

जिनपर यूनियन कार्बाइड

छिड़क दिया जाता है

इत्र की तरह

 

यही चेहरे हैं

चासनाला कोलियरी में

जो आज भी

कोयला बन

जलते हैं |

 

ये चेहरे एक से हैं

पाँच हज़ार वर्षों से

बदसूरत चेहरों की मिलावट कर

जैसे जबरदस्ती अलग अलग

किए गए हैं

 

ये चेहरे एक से हैं

पर एक नहीं हैं

इनके एक होने का

ख़तरा है |

 

इन्हीं चेहरों की भीड़ में

मंत्री जी डकारते हैं –

“जो चेहरे बच गए हैं

देश के शत्रु हैं

उनको मारो

जो चेहरे कम हो रहे हैं

वे दिवंगत हैं

देश को उनपर नाज़ है…”

 

मंत्री जी को नहीं पता

जब चेहरों में मज्जा और

रक्त नहीं होता

तो ज़्यादा दबाने पर

कुछ चेहरे

बम की तरह फटते हैं |

 

 

 

 

 

 

 

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