कविता: व्‍यस्‍तता

व्‍यस्‍तता

आज हम हर पल व्‍यस्‍तता का बहाना बना रहे हैं

व्‍यस्‍तता की आड़ लेकर अपनों से ही बहुत दूर हुऐ जा रहे हैं

जरा सोचिए,

दिल से सोचिए

कहीं हम रिश्तों के नाम पर औपचारिकता तो नहीं निभा रहे हैं

आज हम हर पल व्‍यस्‍तता का बहाना बना रहे हैं

पहले जब कोई दुःख में होता था

हमारा प्यार

हम दुःख बंटने पहुँच जाते थे

बन के उस का सहारा

सच्चे मन से उस के काम आते थे

दिल से रिश्ते नाते निभाते थे

अब तो अपनों के मरने पर भी हम

व्‍यस्‍तता का बहाना बना रहे हैं

दस मिनट बैठ कर

दुःख बंटाने की नौटंकी किए जा रहे हैं

जरा सोचिए ,

दिल से सोचिए

कहीं हम रिश्तों के नाम पर ओपचारिकता तो नहीं निभा रहे हैं

पहले हम शादी विवाह में जाते थे

नाचते थे गाते थे

दूल्हा दुल्हन के साथ रस्में निभाते थे

अब हम व्यस्त्त्ता का बहाना बना रहे हैं

सब रस्मों को छोड खाने के समय पर जाने

और खाना खाने की एक मात्र रसम निभा रहें हें

थमा हाथ में शगुन का लिफाफा

बहुत-बहुत बधाई हो कह कर

मुस्कुराते हुऐ वापिस चले आ रहें हैं

जरा सोचिए ,

दिल से सोचिए

कहीं हम रिश्तों के नाम पर ओपचारिकता तो नहीं निभा रहे हैं

पहले हम रिश्तेदारों को पत्र लिखते थे

हर एक एक शब्दों को पढ़ कर

पत्र भेजने वालों के चेहरे दिखते थे

मन भर आता था

सिसकियों के साथ साथ आंसूं भी टपक जाते थे

अब तो हम तो हम

दो शब्दों के ईमेल या s.m. s. से ही रिश्तों को निभाने का काम चला रहें हैं

छोड की प्रेम की रीत

भावनाओं की खिली उड़ा रहें है

जरा सोचिए ,

दिल से सोचिए

कहीं हम रिश्तों के नाम पर ओपचारिकता तो नहीं निभा रहे हैं

-संजय कुमार फरवाहा

4 COMMENTS

  1. कविता: व्‍यस्‍तता – by – संजय कुमार फरवाहा

    कविता में दर्शाए लक्षण व्‍यस्‍तता के नहीं हैं. —– संजय जी. यह नया सामाजिक रोग है.
    मानसिक दंभ है. घमंडी बन गये हैं लोग.

    अहम भाव दर्शाता है.
    संवेदनाविहीन प्रवृति है.

    यह false ego है – अपने आप को superior मानना.
    अब व्यक्ति सामाजिक नहीं रहने लगा.

    Relationship रखना भूल गया है मानव. Unsocial behaviour

    चिर परिचित पड़ोसी के यहाँ यूं ही hello करने निकलें – हाल-चाल पूछने के लिए. बहुत दिन हो गए मिले नहीं.
    कुछ सेकंड बाद जनाब बार-बार पूछेगा कि कैसे आना हुआ जी. सब ठीक है न.

    चचेरे मामा के बेटे के यहाँ बस यों ही जा धमके, मिलने के लिए. चाय का प्याला पी लेंगे. कुछ गपशप हो जायेगी. पूरानी बातें याद करेगे.

    अब भाई सोचेगा कुछ स्वार्थ होगा, तभी आ धमका है.

    या फिर शक करेगा कि घर से दुखी होगा. या कहीं पैसे मांगने तो नहीं आ गया.
    हर दो मिनट बाद “सब ठीक है न”

    जनाब का टाइम बीतता नहीं, मक्खी मारते रहते हैं.

    evening तक morning newspaper पढ़ते रहतें हैं और busy होने का प्रदर्शन.

    धिक्कार है.

    – अनिल सहगल –

  2. संवेदनाओं से सराबोर लेखन एवं प्रकाशन के लिये लेखक एवं प्रवक्ता डॉट कॉम को साधुवाद।
    -डॉ. पुरुषोत्तम मीणा, राष्ट्रीय अध्यक्ष-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास) एवं सम्पादक-प्रेसपालिका (जयपुर से प्रकाशित हिन्दी पाक्षिक समाचार-पत्र), मो. ०९८२९५-०२६६६

Leave a Reply to Dr. Purushottam Meena 'Nirankush' Cancel reply

Please enter your comment!
Please enter your name here