कविता/जी लेने दो

-अनामिका घटक


कतरा-कतरा ज़िंदगी का

पी लेने दो

बूँद बूँद प्यार में

जी लेने दो

हल्का-हल्का नशा है

डूब जाने दो

रफ्ता-रफ्ता “मैं” में

रम जाने दो

जलती हुई आग को

बुझ जाने दो

आंसुओं के सैलाब को

बह जाने दो

टूटे हुए सपने को

सिल लेने दो

रंज-ओ-गम के इस जहां में

बस लेने दो

मकाँ बन न पाया फकीरी

कर लेने दो

इस जहां को ही अपना

कह लेने दो

तजुर्बा-इ-इश्क है खराब

समझ लेने दो

अपनी तो ज़िंदगी बस यूं ही

जी लेने दो

3 COMMENTS

  1. मका बन न पाया फकीरी कर लेने दो ..प्रश्न ये है की विचार को यथार्थ के धरातल पर चरितार्थ जो नहीं कर पाए .तो किसको नहीं मालुम की अब अंतिम परिणिति फकीरी ही बच रहती है .तो इसमें काव्यात्मक प्रस्तुती के निहतार्थ क्या ?
    अरण्य रोदन से -क्रोंच बध से- कारुणिकता की काव्य धारा निसृत हुआ करती है .सृजन के लिए तो निरंतरता चाहिए .कविता में जिस जगह आपने “राम जाने दो “लिखा है वहां”रम जाने दो “लिखें .
    श्रीराम तिवारी

  2. अनामिका घटक जी, आज के युग में :
    “लेने दो” “जाने दो” – यह नहीं चलेगा,
    आप मांगे नहीं. छीनने का प्रोग्राम बनाना होगा.

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