कविता-आशा

3
250

 बीनू भटनागर

वो अंधेरी राते,

वो बेचैन सासे,

कुछ आँसू ,कुछ आँहें,

लम्बी डगर, कंटीली राहें।

थके पैरों के ये छाले,

डराने लगे वही साये,

क्या बीतेंगी ये रातें,

इन्हीं रातों मे कहीं चमके,

कभी जुगनू, कभी दीपक,

इन्हीं की रौशनी मे हम,

अपना सूरज ढूढने निकले।

 

वो घुँआ वो अंगारे,

धधकते बदन मे शोले,

अगन सी जलती ये आँखें,

उम्मीदों को ही झुलसायें,

इसी पल कतरा बादल का,

कहीं से कोई आजाये

फुहार बनके,, बरस जाये

नई आशा जगा जाये।

Previous articleछंगाजी की नाक
Next articleपीतांबरलाल और ठग
बीनू भटनागर
मनोविज्ञान में एमए की डिग्री हासिल करनेवाली व हिन्दी में रुचि रखने वाली बीनू जी ने रचनात्मक लेखन जीवन में बहुत देर से आरंभ किया, 52 वर्ष की उम्र के बाद कुछ पत्रिकाओं मे जैसे सरिता, गृहलक्ष्मी, जान्हवी और माधुरी सहित कुछ ग़ैर व्यवसायी पत्रिकाओं मे कई कवितायें और लेख प्रकाशित हो चुके हैं। लेखों के विषय सामाजिक, सांसकृतिक, मनोवैज्ञानिक, सामयिक, साहित्यिक धार्मिक, अंधविश्वास और आध्यात्मिकता से जुडे हैं।

3 COMMENTS

  1. इसी पल क़तरा बादल का
    कहीं से कोई आ जाए
    फुहार बनके बरस जाए
    नई आशा जगा जाए
    बहुत खूब , बीनू जी .

  2. बीनू जी को इस सुन्दर अभिव्यक्ति के लिए बधाई ।
    विजय निकोर

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

17,206 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress