कविता : मेरा होना और न होना – विजय कुमार

 

मेरा होना और न होना ….

 

 

 

उन्मादित एकांत के विराट क्षण ;

जब बिना रुके दस्तक देते है ..

आत्मा के निर्मोही द्वार पर …

तो भीतर बैठा हुआ वह परमपूज्य परमेश्वर अपने खोलता है नेत्र !!!

तब धरा के विषाद और वैराग्य से ही जन्मता है समाधि का पतितपावन सूत्र ….!!!

प्रभु का पुण्य आशीर्वाद हो

तब ही स्वंय को ये ज्ञान होता है की

मेरा होना और न होना….

सिर्फ शुन्य की प्रतिध्वनि ही है….!!!

मन-मंथन की दुःख से भरी

हुई व्यथा से जन्मता है हलाहल ही

हमेशा ऐसा तो नहीं है …

प्रभु ,अमृत की भी वर्षा करते है कभी कभी …

तब प्रतीत होता है ये की मेरा न होना ही सत्य है ….!!

 

अनहद की अजेय गूँज से

ह्रदय होता है जब कम्पित और द्रवित ;

तब ही प्रभु की प्रतिच्छाया मन में उभरती है

और मेरे होने का अनुभव होता है !!!

 

अंतिम आनंदमयी सत्य तो यही है की ;

मैं ही रथ हूँ ,मैं ही अर्जुन हूँ ,और मैं ही कृष्ण …..!!

 

जीवन के महासंग्राम में ;

मैं ही अकेला हूँ और मैं ही पूर्ण हूँ

मैं ही कर्म हूँ और मैं ही फल हूँ

मैं ही शरीर और मैं ही आत्मा ..

मैं ही विजय हूँ और मैं ही पराजय ;

मैं ही जीवन हूँ और मैं ही मृत्यु हूँ

 

प्रभु मेरे ; किंचित अपने ह्रदय से

आशीर्वाद की एक बूँद

मेरे ह्रदय में प्रवेश करा दे !!!

 

तुम्हारे ही सहारे ही ;

मैं अब ये जीवन का भवसागर पार करूँगा …!!!

प्रभु मेरे , तुम्हारा ही रूप बनू ;

तुम्हारा ही भाव बनू ;

तुम्हारा ही जीवन बनू ;

तुम्हारा ही नाम बनू ;

जीवन के अंतिम क्षणों में तुम ही बन सकू

बस इसी एक आशीर्वाद की परम कामना है ..

तब ही मेरा होना और मेरा न होना सिद्ध होंगा ..

 

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