कविता:काश मै खुदा होता

 पियूष द्विवेदी

बहुत जलन होती है,

आकाश में इतराते हुए,

अपनी पाँखे फैलाके,

उड़ती चिड़िया को देखकर |

नहीं सह पाता हूँ,

उसके पाँखों को,

उसके उड़ने को,

और उसकी,

इस निश्चिन्त स्वतंत्रता को |

पर यही मन,

दुखी भी होता है,

उन्ही पाँखों को फड़फड़ाते हुवे,

उड़ने का विफल प्रयास करते देखकर

किसी शिकारी के जाल में |

समझ नहीं आता,

कि क्या हूँ मै?

आस्तिक या नास्तिक?

इसी भ्रम में सोचता हूँ,

कि काश मै खुदा होता,

तो मिटा देता,

स्वतंत्रता और परतंत्रता,

दोनों को,

और मिट जाती वो समस्या,

जो मुझमे भ्रम पैदा करती है,

कि क्या हूँ मै?

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