कविता

कविता : मेरी माँ …

आज फिर अल्लसुबह

उसी तुलसी के विरवा के पास

केले के झुरमुटों के नीचे

पीताम्बर ओढ़े वो औरत

नित्य की भांति

दियना जला रही थी !

मै मिचकती आँखों से

उसे देखने में रत था ,

वो साधना

वो योग

वो ध्यान

वो तपस्या,

उस देवी के दृढ संकल्प के आगे नतमस्तक थे !

वो नित्य अपनी प्रतिज्ञा पर अडिग थी

और मैं अनभिज्ञ

अपनी दलान से,

उसे मौन देखता था !

आखिर एक दिन मैंने अपना मौन व्रत तोड़ दिया

हठात पूछ पडा

यह सब क्या है…?

क्यों है?

उसने गले लगा कर कहा ,

सब तुम्हारे लिए

और यह तथ्य मेरे ज्ञानवृत्त के परे था !

किन्तु इतना सुनते ही

मेरा सर भी नत हो गया !

उस तुलसी के बिरवे पर नहीं ,

उस केले के झुरमुट पर नही

उस ज्योतिर्मय दियने पर भी नहीं ….

मेरा सर झुका और झुका ही रह गया

उस देवी के देव तुल्य चरणों पर !

उसके चिरकाल की तपस्या का फल ,

मुझे उसी पल मिलता नज़र आया

क्योंकि….

परहित में किसी को ,

कठोर साधना

घोर तपस्या

सर्वस्व न्योछावर करते प्रथम दृष्टया देखा था !

अपनी दिनचर्या के प्रति अडिग वो औरत

मेरी माँ थी …मेरी माँ !

उस अल्पायु में मै

माँ शब्द को बहुत ज्यादा नहीं जान पाया था ,

पर,

उस दिन के अल्प संवाद ने

माँ शब्द को परिभाषित किया

और मै संतुष्ट था !

मुझे माँ की व्याख्या नहीं परिभाषा की जरुरत थी

माँ की व्याख्या इतनी दुरूह है कि

मै समझ नहीं पाता !

पर मै संतुष्ट था

संतुष्ट हूँ !

नत था

आज भी नत हूँ !

उसके चरणों में

उसके वंदन में

उसके अभिनन्दन में

उसके आलिंगन में

उसके दुलार भरे चुम्बन में !!!!!

-शिवानन्द द्विवेदी “सहर”