कविता-समय

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समय का,

न आदि है न अंत,

भ्रम होता है कभी,

जैसे समय रुक गया हो,

भ्रम होता है कभी,

जैसे समय दौड़ता हो,

पर समय,

न रुकता है,न दौड़ता है,

बस एक गति से चलता है।

टिक टिक टिक टिक,

एक ही लय मे,

एक ही ताल, साठ मात्राये,

बारह के अंक पर,

सम पड़ता है,

छटे अंक पर है ख़ाली,

है न ताल ये निराली !

 

मन कहता है कभी,

काश ये पल,

यहीं रुक जायें अभी,

पर ये नहीं होता है।

मन कहता है कभी,

कब गुज़रेगा ये समय,

गुज़र तो रहा है,

गुज़र जायेगा।

ये नहीं रुकता है कभी।

 

समय बीतता है,

बदलता है,

ज़ख्म देता है,

ज़ख्म भरता है,

दुखों की दवा है।

समय बलवान है,

समय ही बहाव है,

अनंत है, अखंड है।

समय अच्छा हो या बुरा,

निरंतर चलता है..

 

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बीनू भटनागर
मनोविज्ञान में एमए की डिग्री हासिल करनेवाली व हिन्दी में रुचि रखने वाली बीनू जी ने रचनात्मक लेखन जीवन में बहुत देर से आरंभ किया, 52 वर्ष की उम्र के बाद कुछ पत्रिकाओं मे जैसे सरिता, गृहलक्ष्मी, जान्हवी और माधुरी सहित कुछ ग़ैर व्यवसायी पत्रिकाओं मे कई कवितायें और लेख प्रकाशित हो चुके हैं। लेखों के विषय सामाजिक, सांसकृतिक, मनोवैज्ञानिक, सामयिक, साहित्यिक धार्मिक, अंधविश्वास और आध्यात्मिकता से जुडे हैं।

4 COMMENTS

  1. समय बीतता है, बदलता है,
    ज़ख्म देता है, ज़ख्म भरता है,

    सुन्दर भावाव्यक्ति !
    विजय निकोर

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