सड़क सड़क घूमा
टिमकी बजी मदारी की
मैं बंदर सा झूमा
कहीं दूर तक पंचरवाला
नहीं दिखाई दिया
हर दुकान पर अतिक्रमण का
ताला मिला जड़ा
जीवन के हर लम्हें में
कितने पंचर होते
अपने कटे फटेपन को
पल पल कंधे ढोते
सूजे पैर फूल गये जैसे
फूल गया तूमा
मन ने जब आदेश दिया तो
तन नट सा नाचा
अहंकार ने बुद्धि को ही
चिठिया सा बांचा
रही आत्मा छुपी
चित्त के पहरों के पीछे
रोज बदलते रहे इरादे
लहरों के जैसे
तटबंधोंसे दूर कभी तो
कभी तीर चूमा
नदी पार तुम खड़े हुये थे
मैं भी था इस ओर
अंतस की दूरी इतनी
जैसे तट के दो छोर
आशाओं की नाव बैठकर
चले पार कई बार
किंतु कभी न पहुंची हरदम
धँसी बीच मझधार
रात चौगुना बढ़ा फासला
और दिन में दूना