सियासी खेल बनी जातीय जनगणना

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प्रमोद भार्गव

 

बिहार विधानसभा के चुनाव के ठीक पहले ‘जाति‘ और ‘जातीय जनगणना‘ चुनावी मुद्दे बनते दिख रहे हैं। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने जैसे ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ओबीसी,मसलन पिछ़ड़ी जाति से होने का घोषित किया,वैसे ही बिहार के मंडलवादी दल इस हकीकत को न केवल झुलाने में लग गए,बल्कि सामाजिक व आर्थिक जनगणना के साथ जो जातीय जनगणना हुई है, उसके आंकड़े उजागर करने की भी सियासी मुहिम तेज कर दी। चुनाव पूर्व दोनों प्रमुख गठबंधनों द्वारा रची जा रही इस राणनीति से इतना तो साफ है कि देश में संख्याबल की दृष्टि से पिछड़ी जाति से जुड़े लोगों की संख्या अधिकतम है। इस सच्चाई की मद्देनजर ही विकास की संभावनाओं को नजरअंदाज करते हुए,शाह ने सोची-समझी सियासी चाल चलते हुए मोदी की ५६ इंची छाती पर जाति का तमगा चस्पा किया है, जिससे पिछड़ा वोट-बैंक पुख्ता हो जाए। दूसरी, तरफ जातीय जनगणना के आंकड़े सार्वजानिक करने के लिए लालू-नीतीश इसलिए उतावले हैं,क्योंकि उनकी राजनीति तो पिछड़े और दलित वोट बैंक पर की केंद्रित है। साथ ही उन्हें पूरी उम्मीद है कि देश में पिछड़े तबकों की आबादी ५१ फीसदी से ज्यादा है। लिहाजा आंकड़े पेश कर दिए जाते हैं तो यह जोड़ी पिछड़ों को संख्या के अनुपात में आरक्षण एवं तमाम तरह के बजट प्रावधानों की मांग करने लग जाएगी। बहरहाल अच्छे दिन और डिजीटल इंडिया से जुड़े व्यापक सरोकार संकीर्ण जातीय सरोकारों में सिमटते जा रहे है।

जातीय आधार पर जनगणना कराने की मांग संसद में शरद यादव,लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव ने संप्रग सरकार के कार्यकाल उठाई थी। जिसे माना गया और सामाजिक,आर्थिक जनगणना के साथ जातीय जनगणना भी कराई गई। इसके नतीजे आ भी गए। लेकिन केंद्र सरकार ने सामाजिक और आर्थिक आंकड़े तो पेश कर दिए किंतु जातीय आंकड़े पेश करने की जबावदेही जनगणना महानिरक्षक पर छोड़ दी। इसी दौरान अमित शाह ने नरेंद्र मोदी को पहला पिछड़ा प्रधानमंत्री घोषित करके मोदी की जाति को उछाल दिया। इससे मंडलवादी नेताओं को पिछड़ी जाति को संख्याबल के आधार पर महिमामंडित करने का आधार मिल गया। साथ ही ये नेता यह भी सफाई देने लग गए कि पिछड़े समाज से पहले प्रधानमंत्री मोदी नहीं,एचडी देवगौड़ा हैं। हालांकि चौधरी चरण सिंह भी जाट समुदाय से होने के नाते पिछड़े वर्ग से बने प्रधानमंत्री हैं, किंतु वे मंडल की सिफारिशें लागू होने के पहले कांग्रेस के समर्थन से प्रधानमंत्री बने थे,इसलिए जनता परिवार के नेता उन्हें ज्यादा तव्वजो नहीं देते।

मंडलवादी नेताओं का मानना है कि सामाजिक न्याय व समता की संवैधानिक अवधारणा तभी पूरी होगी जब जाति आधारित जनगणना के आंकड़े उजागार कर दिए जाएंगे। देश में पहली जाति आधारित जनगणना १९३१ में हुई थी। तब पिछड़ी जातियों की आबादी ३५ करोड़ ३० लाख थी। मसलन देश की आबादी के ५२ फीसदी। शरद,लालू,मुलायम पिछड़ों को आरक्षण का प्रतिशत इसी अनुपात में चाहते हैं। जाति आधारित जनगणना के आंकड़े सार्वजनिक करने में कोई ऐतराज नहीं होना चाहिए था। क्योंकि इससे कई अहं और नए पहलू सामने आएंगे। बृहत्तर हिन्दू समाज (हिन्दू, जैन, बौद्ध, सिख) में जिस जातीय संरचना को ब्राह्मणवादी व्यवस्था का दुष्चक्र माना जाता है, हकीकत में यह व्यवस्था कितनी पुख्ता है, इसका खुलासा हो सकता है ? मुस्लिम समाज में भी जातिप्रथा पर पर्दा डला हुआ है। आभिजात्य मुस्लिम वर्ग यही स्थिति बहाल रखना चाहता है, जिससे सरकारी योजनाओं के जो लाभ हैं वे  संपन्न लोगों को ही मिलते रहें। जबकि मुसलमानों की सौ से अधिक जातियां हैं, परंतु इनकी जनगणना का आधार धर्म और लिंग है। अल्पसंख्यक समुदाओं में से एक पारसियों की घटती आबादी की स्थिति भी जातीय आंकड़ों से साफ हो जाती, क्योंकि इस समुदाय को प्रजनन सहायता योजना चलाकर जनसंख्या वृद्धि दर बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है।

दरअसल जनगणना करते समय संविधान के अनुच्छेद  १६ की जरूरतों को पूरा किया जाता है। इससके मुताबिक जनगणना करते समय कई सूचनाएं एकत्रित की जाती हैं। इनमें अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों की गिनती की जाती है। लेकिन इस दायरे में आने वाली जातियों की भी जाति आधारित गिनती नहीं की जाती। संविधान के इसी प्रावधान को आधार मानकर सुप्रीम कोर्ट ने मद्रास हाईकोर्ट के जाति आधारित जनगणना के आदेश को खारिज कर दिया था। हालांकि आरक्षण किसी भी जाति के समग्र उत्थान का मूल कभी नहीं बन सकता। क्योंकि आरक्षण के सामाजिक सरोकार केवल संसाधनों के बंटवारे और उपलब्ध अवसरों में भागीदारी से जुड़े हैं। इस आरक्षण की मांग शिक्षित बेरोजगारों को रोजगार और अब ग्रामीण अकुशल बेरोजगारों के लिए सरकारी योजनाओं में हिस्सेदारी से जुड़ गई है। परंतु जब तक सरकार समावेशी आर्थिक नीतियों को अमल में लाकर आर्थिक रूप से कमजोर लोगों तक नहीं पहुंचती तब तक पिछड़ी या निम्न जाति अथवा आय के स्तर पर पिछले छोर पर बैठे व्यक्ति के जीवन स्तर में सुधार नहीं आ सकता। लेकिन यहां सवाल उठता है कि पूंजीवाद की पोषक  सरकारें समावेशी आर्थिक विकास की पक्षधर क्यों होगी ? नरेंद्र मोदी सरकार भी इसी ढर्रे पर चलती दिखाई दे रही है। वैसे भी हमारा संविधान उस साठ फीसदी गरीब आबादी की वकालात नहीं करता, जिसे दो जून की रोटी भी वक्त पर नसीब नहीं होती। क्योंकि यही वह संविधान है,जो प्रत्येक देशवासी को भोजन का अधिकार तो देता है,लेकिन भूमि के व्यावसायिक अधिग्रहण को जायज ठहराता है। साधारण नमक और कंपनियों को पानी का अधिकार देकर बुनियादी हकों की समस्याएं खड़ी करता है ?

मुस्लिम धर्म के पैरोकार यह दुहाई देते हैं कि इस्लाम में जातिप्रथा की कोई गुंजाइश नहीं है। इसलिए ज्यादातर मुसलमान जाति के आधार पर जनगणना को नकारते हुए जनगणना प्रारूप में केवल धर्म और लिंग दर्ज करते हैं। जाति का खाना अकसर खाली छोड़ दिया जाता है अथवा उसमें मुसलमान लिख कर कर्त्तव्य की इतिश्री कर ली जाती है। जबकि एम एजाज अली के मुताबिक मुसलमान भी चार श्रेणियों में विभाजित हैं। उच्च वर्ग में सैयद, शेख, पठान, अब्दुल्ला, मिर्जा, मुगल, अशरफ जातियां शुमार हैं। पिछड़े वर्ग में कुंजड़ा, जुलाहा, धुनिया, दर्जी, रंगरेज, डफाली, नाई, पमारिया आदि शामिल हैं। पठारी क्षेत्रों में रहने वाले मुस्लिम आदिवासी जनजातियों की श्रेणी में आते हैं। अनुसूचित जातियों के समतुल्य धोबी, नट, बंजारा, बक्खो, हलालखोर, कलंदर, मदारी, डोम, मेहतर, मोची, पासी, खटीक, जोगी, फकीर आदि हैं।

अल्संख्यक समूहों में इस वक्त हमारे देश में पारसियों की घटती जनसंख्या चिंता का कारण है। इस आबादी को बढ़ाने के लिए भारत सरकार ने प्रजनन सहायता योजना समेत तीन योजनाओं को लागू किया है। राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के एक सर्वे के मुताबिक पारसियों की जनसंख्या १९४१ में १,१४००० के मुकाबले २००१ में केवल ६९००० रह गई। इस समुदाय में लंबी उम्र में विवाह की प्रवृत्ति के चलते भी यह स्थिति निर्मित हुई है। बीते दस साल में इनकी आबादी किस हाल में है इसका खुलासा भी जातीय गणना के आंकड़े सामने आने से साफ होगा। इस जाति का देश के औद्योगिक और आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान है। प्रसिद्ध टाटा परिवार इसी समुदाय से है।

बहरहाल जातीय आंकड़े जो भी हों,बिहार में सभी दलों की राजनीति जातिवाद में सिमटकर रह गई है। इसीलिए सभी दल विकास की अवधारणा को नकारकर जातीवादी कार्ड खेलने की फिराक में हैं। जबकि सवा साल पहले हुए लोकसभा चुनाव में राजग को जो जनादेश मिला था,उससे यह उम्मीद बंधी थी कि इसकी पृष्ठभूमि में लोगों द्वारा जाति-धर्म,अगड़े-पिछड़े और दलित-महादलित की राजनीति को नकारना रहा है। इसीलिए मंडलवाद के पैरोकार मोदी लहर में कहीं टिक नहीं पाए थे। लोग तो  अच्छे दिन और खुशहाली चाहते थे। गोया,उनकी न तो मोदी की जाति जानने की इच्छा थी,और न ही जातीय आंकड़े ? बिहार में दलों को जाति की बजाय बताना तो यह चाहिए था कि वे शिक्षा,स्वास्थ्य और रोजगार जैसी समस्याओं के क्या समाधान ढूंढ रहे हैं ? उनके समाजवेशी विकास का क्या मॉडल है ? किंतु खासतौर से सत्तापक्ष जब कुछ कारगर नहीं कर पाया है तो उसने बिहार में मंडल की राजनीति को मंडल की ही धार देकर लालू,नीतीश और शरद की राजनीति को निस्तेज करने की कुटिल चाल चल दी है। यदि बिहार में भाजपा कामयाब हो जाती है तो लोहियावादी पुरोधाओं और समाजवादी राजनीति की मुश्किलें बढ़ जाएंगी।

 

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