राजनैतिक गीत इस मोड़ से जाते हैं – ब्रजेश कुमार झा

caah41461दुनिया को मालूम है कि हिन्दुस्तानी फिल्म में गीतों को जितना तवज्जह मिला उतना संसार के किसी भी दूसरे फिल्मीद्योग में नहीं मिला है। यहां तो फिल्में आती हैं, चली जाती हैं। सितारे भी पीछे छूट जाते हैं। लेकिन, जुबान पर रह जाते हैं तो कुछ अच्छे-भले गीत। फिल्मी गीतों के इन्हीं लम्बे सफर में जिंदगी के हर वाकये पर गीत लिखे गए। इसमें एक खाम किस्म का गीत है- राजनैतिक गीत।
दरअसल, शासन के सामयिक प्रश्नों समस्याओं से जुड़े गीत ही ठेठ राजनैतिक गीत कहलाए। ऐसे में आजादी के दशक भर बाद लिखे गए प्यासा(1957) फिल्म के गीत अचानक याद आते हैं- जरा हिन्द के रहनुमा को बुलाओ / ये गलियां ये कूचे उनको दिखाओ।इस फिल्म के गीतकार साहिर लुध्यानवी असल में एक तरक्की पसंद साहित्यकार थे। लेकिन, इसके साथ-साथ उन्होंने फिल्मी दुनिया से बतौर गीतकार एक रिश्ता कायम कर लिया था। क्योंकि, केवल सपने बेचना उन्हें मंजूर नहीं था। तभी तो उन्होंने नाच घर(1959) फिल्म में खूब कहा- कितना सच है कितना झूठ / कितना हक है कितनी लूट
ढोल का ये पोल सिर्फ देख ले / ऐ दिल जबां न खोल सिर्फ देख ले।
सहिर के साथ-साथ शैलेन्द्र, कैफी आजमी जैसे कई अन्य गीतकारों ने भी ऐसे गीत लिखे। एक के बाद एक(1960) फिल्म में कैफी ने लिखा- उजालों को तेरे सियाही ने घेरा / निगल जाएगा रोशनी को अंधेरा।

सन् 1968 में आई इज्जत में तो साहिर ने साफ- साफ लिख-

देखें इन नकली चेहरों की कब तक जय-जयकार चले
उजले कपड़ों की तह में कब तक काला बाजार चले।

 

इससे पहले राजनेताओं के दोरंगे चेहरे पर ऐसे धारदार गीत लिखे हुए नहीं के बराबर मिलते हैं। वैसे भी, कई गीतकार फिल्मी गीतों के माध्यम से ऐसी बातें कहने में हिचकिचाहट महसूस कर रहे थे। लेकिन, कैफी आजमी ने संकल्प(1974) फिल्म में वोट की खरीद- फरोक पर कुछ ऐसे गीत लिखे-

हाथों में कुछ नोट लो,फिर चाहे जितने वोट लो
खोटे से खोटा काम करो,बापू को नीलाम करो।

यह गीत इंतहा है उजड़ रहे ख्वाबों से जन्मी करूणा और क्रोध की। इसके साथ-साथ यह गाना एक बारीक जिक्र है-परिवर्तन का। जो जनतांत्रिक व्यवस्था के फलस्वरूप आया है। इस समय तक लोग देश में पांच आम चुनाव देख चुके थे। कटु अनुभव उनके पास था। ऐसे में इन गीतों की हवा चली तो रुकती कैसे? मन में जो बातें थीं, वह सामने आने लगी। इस सफर में अब तक कई लोग अपना बेहतरीन योगदान देकर दुनिया से रुखसत हो गए थे। कई नए आ चुके थे। और वो भी हवा के रुख को महसूस कर रहे थे।
ऐसे में गीतों का थोड़े अंतराल पर लगातार आना जारी रहा।
गुलजार ने अपने ही अंदाज में आंधी के गीतों के माध्यम से बड़ा ही तीखा व्यंग्य किया-
सलाम कीजिए / आलीजनाब आए हैं
यह पांच साल का देने हिसाब आए हैं।

क्या यह कोई भूल सकता है कि आंधी में रिश्तों के रेशे ही नहीं हैं, बल्कि राजनेताओं के हालात पर बड़ी सख्त टिप्पणी भी है। अब यह गीत सर चढ़कर बोलता है। आगे भी इसी रफ्तार से राजनैतिक गीत का कदमताल जारी रहा। तब से अब तक कई जमाने पुराने हो गए हैं। कई चीजें पीछे छूट गई हैं। मगर आंधी फिल्म की ये कव्वाली नई ताजगी और तेवर के साथ सफेद पोशाकी पर फिट बैठती है। आगे कुछ और भी गीत आए। जैसे- काला बाजार(1989) के गीत-
ये पैसा बोलता है/ मिलता है उसी को वोट
दिखाये जो वोटर को नोट/ ये पैसा बोलता है

 

आगे के राजनैतिक माहौल पर हू-तू-तू फिल्म में लिखे गुलजार के गीत स्थितियों को साफ कर देते हैं।जरा गौर करें- हमारा हुक्मरां अरे कमबख्त है/ बंदोबस्त, जबरदस्त है।

इसी फिल्म का दूसरा गीत- घपला है भई/ घपला है
जीप में घपला,टैंक में घपला।

दरअसल, ये गीत वर्तमान राजनैतिक स्थितियों का बखान करते हैं। वैसे तो ऐसे गीत औसतन कम ही लिखे गए हैं। पर ऐसा मालूम पड़ता है कि सिनेमा में आए ये राजनैतिक गीत भारतीय राजनीति का आईना है। यहां एक और बड़ी महत्वपूर्ण बात यह है कि ये सिनेमाई गीतकार हुक्मरानों की मसनवी न लिखकर आम लोगों, मजदूरों के करीब खड़ा रहा है। कई गीतकार तो ताउम्र खड़े रहे। और गीत लिखते गए। साफ और सीधी भाषा में।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

12,731 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress