नेहरू-गांधी परिवार, कांग्रेस पार्टी व इनके द्वारा देश की राजनीति पर एक छत्र राज किए जाने को कोसते-कोसते भारतीय जनता पार्टी सत्ता में आ गई। कांग्रेस व यूपीए के विरोधी दलों द्वारा पिछले लोकसभा चुनावी अभियान में सोनिया गांधी व राहुल गांधी पर ही सब से अधिक निशाना साधा गया। एक परिवार की राजनीति ख़त्म होनी चाहिए। नेहरू-गांधी परिवार देश में परिवारवाद की राजनीति करता है। देश को नेहरू-गांधी परिवार की निजी संपत्ति समझे जानी वाली कांग्रेस पार्टी से मुक्त करना है, जैसी बातें पूरे देश में घूम-घूम कर कही गईं। यूपीए सरकार की नाकामियों की वजह से राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के नेताओं द्वारा किए जाने वाले कांग्रेस विरोधी प्रचार परवान चढ़े। और परिणामस्वरूप कांग्रेस को अब तक की सबसे बड़ी ऐतिहासिक हार का सामना करना पड़ा। परंतु सवाल यह है कि नेहरू-गांधी परिवार का शासन खत्म होने के बाद क्या देश से परिवारवाद की राजनीति का ख़ात्मा हो चुका है? क्या वर्तमान सत्तारुढ़ भारतीय जनता पाटी स्वयं अपने ही दल में व अपने सहयोगी दलों में परिवारवाद की राजनीति करने वाले नेताओं की ओर से अपनी आंखें मूंदे हुए हैं, या भाजपाई नेतृत्व भी कांग्रेस पार्टी के शासनकाल की ही तरह स्वयं भी परिवारवाद की राजनीति को बढ़ावा दे रही है? और क्या भारतीय जनता पार्टी अवसरवादी नेताओं को प्रोत्साहित नहीं कर रही?
रामविलास पासवान व चौधरी अजीत सिंह देश की दो ऐसी हस्तियां हैं जिन्हें सता की अवसरवादी राजनीति करने का सबसे बड़ा महारथी माना जाता है। ऐसा समझा जाता है कि विचारधारा तथा सिद्धांत की राजनीति को दरकिनार करते हुए यह नेता मात्र अपनी सत्ता के लिए या मंत्रिपद हासिल करने के लिए किसी भी गठबंधन का दामन थाम सकते हैं। इस बार के लोकसभा चुनावों में इन दोनों नेताओं ने कांग्रेस व भाजपा के साथ मिलकर अलग-अलग ‘सौदे’ किए। अजीत सिंह ने कांग्रेस पार्टी से अपने व अपने पुत्र के लिए पार्टी का टिकट मांगकर चुनाव लड़ा और जनता ने उनकी सिद्धांतविहीन व अवसरवादी राजनीति की इंतेहा को भांपते हुए उन्हें चुनाव में बुरी तरह पराजित कर दिया। गोया परिवारवाद व सिद्धांतविहीन राजनीति को मतदाताओं द्वारा नकारा गया। परंतु रामविलास पासवान भी अजीत सिंह की ही तरह अवसरवादी राजनीति के प्रतीक रहे हैं। उन्होंने भी इस बार पुन: भाजपा से अपनी लोकजन शक्ति पार्टी का बिहार राज्य में हुए लोकसभा के चुनाव के लिए गठबंधन किया। और पांच सीटों पर लोजपा को विजयी बनाने में सफल रहे। कल तक यूपीए के सहयोगी रहने वाले पासवान अचानक भाजपा के नेतृत्व वाली राजग के साथ कैसे चले गए। इस पर पासवान साहब का कहना है कि कांग्रेस ने उनसे चुनाव पूर्व गठबंधन के विषय में बात करने में देर कर दी, इसलिए उन्हें भाजपा नेतृत्व वाले राजग की ओर हाथ बढ़ाना पड़ा। गोया कांग्रेस पार्टी के देरी करने मात्र से पासवान ने अपने सिद्धांत व विचारधारा को भी त्याग दिया? यह बात कभी भुलाई नहीं जा सकती कि रामविलास पासवान बिहार के अकेले ऐसे नेता रहे हैं जिन्होंने नितीश कुमार के मुख्यमंत्री बनाए जाने का विरोध करते हुए अपनी राजनीति का एक ऐसा कार्ड खेला था जिससे मुसलमानों में उनके प्रति एक सकारात्मक व मुस्लिम हितैषी दिखाई देने वाला संदेश गया था। पासवान ने कहा था कि नितीश कुमार के बजाए किसी मुस्लिम नेता को बिहार का मुख्यमंत्री बनाना चाहिए।भले ही पासवान के इस बयान से बिहार का मुस्लिम समाज खुश क्यों न हुआ हो परंतु राजनैतिक विश्लेषक उसी समय समझ गए थे कि पासवान द्वारा दिया जाने वाला यह बयान महज़ एक राजनैतिक शोशा है।
अब ज़रा 16वीं लोकसभा में पासवान की लोकजनशक्ति पार्टी पर नज़र डालें तो हम यह देखेंगे कि उनके बिहार से निर्वाचित सात सांसदों में से चार व्यक्ति यानी स्वयं रामविलास पासवान, उनका बेटा चिराग पासवान तथा उनके भाई रामचंदर पासवान व उनकी भाभी वीना देवी एक ही परिवार के सदस्य हैं। राजग नेता विशेषकर भाजपाई इसे परिवारवाद की राजनीति नहीं तो और क्या कहेंगे? और आगे बढ़ें तो हम यह देखेंगे कि भाजपा ने लोजपा के हिस्से में एक व्यक्ति के मंत्री बनने का प्रस्ताव दिया। सत्ता की कुर्सी पर बैठने के लिए बेताब रामविलास पासवान ने इस प्रस्ताव को सिर-माथे पर लेते हुए स्वयं मंत्री पद दबोच लिया। यहां पर पासवान को अपनी पार्टी के विजयी हुए एक मात्र मुस्लिम सांसद चौधरी महबूब कैसर को मंत्री बनाने की फ़िक्र क्यों नहीं हुई? कुर्सी की लालच के लिए अपना दीन-ईमान व सिद्धांत सबकुछ त्यागने वाले पासवान को नितीश कुमार की जगह पर तो मुस्लिम मुख्यमंत्री बनाया जाना नज़र आ रहा था परंतु आज 16वीं लोकसभा में जबकि देश को अधिक से अधिक मुस्लिम मंत्रियों की ज़रूरत भी है, उस समय पासवान ने अपने नाम के बजाए अपने दल के एकमात्र मुस्लिम सांसद चौधरी महबूब क़ैसर के नाम का प्रस्ताव क्यों नहीं किया? यक़ीनन सिर्फ़ इसीलिए कि उन्हें मुसलमानों से वास्तविक हमददर्दी या उनके उत्थान की कोई चिंता नहीं है। वे तो केवल अपने व अपने परिवार के सदस्यों के उज्जवल राजनैतिक भविष्य के मद्देनज़र ही अपनी राजनैतिक दुकानदारी चला रहे हैं। यही वजह है कि ज़रूरत पड़ने पर और समय आने पर वे कभी धर्मनिरपेक्ष गठबंधन के साथ दिखाई देते हैं तो कभी अवसरवादी राजनीति का परिचचय देते हुए दक्षिणपंथी भारतीय जनता पार्टी के साथ खड़े नज़र आने लगते हैं।
कांग्रेस की परिवारवाद की राजनीति का जमकर विरोध करने तथा ख़ुद परिवारवाद की राजनीति का प्रतीक समझे जाने वाले ऐसे ही भाजपा के दूसरे सहयोगी नेता का नाम है प्रकाश सिंह बादल। यह भी नेहरू-गांधी परिवार को हमेशा कोसते नज़र आते हैं। परंतु प्रकाश सिंह बादल को जब राजनीति में या सत्ता में कुछ हासिल करना होता है या कुछ बांटना होता है तो उस समय उनकी भी पहली प्राथमिकता अपने परिवार की ही होती है। मिसाल के तौर पर शिरोमणि अकाली दल सैकड़ों वरिष्ठ व तजुर्बेकार नेताओं से भरा पड़ा है। परंतु जब राज्य का उपमुख्यमंत्री बनाने की बात आई तो बादल को अपने पुत्र सुखबीर सिंह बादल से अधिक योग्य व होनहार नेता कोई नज़र नहीं आया। इसी प्रकार जब पिछली लोकसभा में अकाली दल के हिस्से की टिकट बांटने का वक़्त आया उस समय भी उन्हें अपनी पुत्रवधु हरसिमरत कौर का नाम सबसे योग्य उम्मीदवार के रूप में सुझाई दिया। हालांकि अकाली दल के कई उम्मीदवार पंजाब में चुनाव हार गए हैं। परंतु स्वयं प्रकाश सिंह बादल व उनके पुत्र उपमुख्यमंत्री सुखबीर सिंह बादल व उनकी पार्टी ने हरसिमरत कौर के चुनाव क्षेत्र बठिंडा में अपनी पूरी ताक़त झोंक कर उन्हें विजयश्री दिलवाई। और जब चुनाव पूर्व राजग गठबंधन के धड़े के नाते अकाली दल के हिस्से में भी एक मंत्री बनने का प्रस्ताव आया तो प्रकाश सिंह बादल को भी अपनी पुत्रवधू के नाम को केंद्रीय मंत्री के रूप में आगे करने के सिवा कोई और दूसरा नाम उपयुक्त नहीं लगा। परंतु इसे भी परिवारवाद की राजनीति नहीं कह सकते क्योंकि परिवारवाद की राजनीति करने का ठप्पा तो मात्र नेहरू-गांधी परिवार या कांग्रेस के ऊपर ही लगा हुआ है।
यदि मेनका गांधी व वरूण गांधी जैसे नेता नेहरू-गांधी परिवार के विरुद्ध विद्रोह का झंडा उठाए हुए भाजपा में जा मिलें तो वे नेहरू-गांधी परिवार के सदस्य नहीं समझे जाते। और यदि इन दोनों मां-बेटे को भाजपा एक साथ टिकट देकर अलग-अलग लोकसभा सीटों से चुनाव लड़वाती है और मेनका गांधी को केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल भी कर लेती है तो भाजपा की नज़रों में यह भी परिवारवाद नहीं है। न ही यह नेहरू-गांधी परिवार के सदस्य समझे जाते हैं। दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री साहब सिंह वर्मा के पुत्र प्रवेश वर्मा को दिल्ली से लोकसभा का टिकट दिया जाना, यशवंत सिन्हा, जसवंत सिंह,राजनाथ सिंह, कल्याण सिंह, प्रेम कुमार धूमल, रमन सिंह, वसुंधरा राजे, दिलीप सिंह जूदेव, प्रमोद महाजन जैसे और भी कई ऐसे भाजपाई नेताओं के नाम हैं जिन्होंने अपनी संतानों को अपना राजनैतिक उतराधिकारी बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। ऐसे प्रत्येक नेता पुत्रों को पार्टी ने लोकसभा अथवा विधानसभा के टिकट से उपकृत किया है। इसी प्रकार के और भी कई ऐसे उदाहरण हैं जो इस नतीजे पर पहुंचने के लिए काफ़ी हैं कि परिवारवाद को बढ़ावा केवल कांग्रेस पार्टी या नेहरू-गांधी परिवार के द्वारा ही नहीं दिया गया, बल्कि भारतीय जनता पार्टी सहित उसके गठबंधन के कई सहयोगी दल भी न केवल परिवारवाद बल्कि अवसरवादी राजनीति के भी सफल खिलाड़ी हैं।
तनवीर जाफरी साहब, ऐसा लग रहा है किआपको ये परिवर्तन पसंद नहीं आया.और आप अभी भी नेहरू परिवार या सोनिआ-राहुल के निकम्मे और देश को पतन की अतल गहराई में पहुँचाने वाले राज को वापस लाना चाहते थे.परिवारवारवाद का किस्सा सुनाने का यही अर्थ निकलता है की आप अभी तक देश की बदहाली से आज़िज़ नहीं आये थे.असलियत ये है की ये जो भाजपा विरोधी दल थे ये सारे वोट बैंक की राजनीती कर रहे थे जिसे जनता ने ठुकरा दिया और पहली बार ऐसा हुआ है की सत्तारूढ़ दल का एक भी लोकसभा सदस्य अल्पसंख्यक नहीं है. अब आँखें खोलो और वास्तविकता को पहचानो.वोट बैंक की राजनीती के दिन लद गए. सभी भारतवासियों का एक ही धर्म है- राष्ट्रधर्म.