‘कोलगेट’ पर प्रधानमंत्री का लचर बचाव / लालकृष्ण आडवाणी

कोयला आवंटन को लेकर संसद में गतिरोध एक सप्ताह से ज्यादा समय से बना हुआ है। एनडीए ने इस गतिरोध को समाप्त करने हेतु प्रस्ताव दिया है कि इन सभी आवंटनों को रद्द कर दिया जाए और इन्हें आवंटित करने वाली स्क्रीनिंग कमेटी की प्रक्रिया की न्यायिक जांच कराई जाए। सरकार इस पर अभी तैयार नहीं है।

पिछले सप्ताह प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह लोकसभा में आए और आजकल ‘कोलगेट‘ (वाटरगेट के बाद से) के नाम से पहचाने जाने वाले स्कैण्डल पर एक लम्बा वक्तव्य पटल पर रखा। मुझे यह जानकर साजिश लगी कि प्रधानमंत्री ने अपने अपुष्ट स्पष्टीकरण में संघवाद, जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने सही ही भारतीय संविधान की एक आधारभूत विशेषता ठहराया है और जिसे संसद भी संशोधित नहीं कर सकती, पर आरोप मढ़ा है।

कुछ भाजपा मुख्यमंत्रियों की कथित तौर पर प्रकट की गई आपत्तियों, विशेष रूप से छत्तीसगढ़ के डा. रमन सिंह को बार-बार उदृत किया गया कि मानों इन्हीं के चलते प्रतिस्पर्धा बोली सम्बन्धी विधि मंत्रालय का निर्णय रद्द किया गया हो।

प्रधानमंत्री के वक्तव्य में इन्हीं दोनों संदर्भों-संघवाद, और मुख्यमंत्रियों-ने मुझे आपातकाल की अवधि और इन साम्यों की तुलना हेतु स्मरण करा दिया।

रायपुर से प्रकाशित एक समाचार रिपोर्ट में 2 मई, 2005 को डा. रमन सिंह द्वारा तत्कालीन कोयला राज्यमंत्री दसारी नारायण राव को लिखे गए पत्र को ज्यों का त्यों उदृत किया गया है, जिसमें डा. रमन सिंह लिखते हैं:

”यदि केन्द्र सरकार अंतत: कैप्टिव माइनिंग हेतु कोयला ब्लॉकों के आवंटन के लिए बोली का रास्ता अपनाने का निर्णय लेती है, तो ऐसे कोयला ब्लॉकों से कोयला उत्पाद का एक हिस्सा सरकार को जाएगा। सम्बन्धित क्षेत्रों में स्थित इन खनिजों के स्वामित्व वाले राज्यों की, सफलतापूर्वक बोली लगाने वाले से मिलने वाले लाभ को सम्बन्धित राज्य सरकार और केन्द्र सरकार के बीच बांटा जाना समुचित होगा। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि राज्य सरकारों द्वारा तेल क्षेत्र में ‘प्रोफिट पेट्रोलियम‘ में हिस्से की समान मांग पहले से ही केन्द्र सरकार के विचाराधीन है।”

प्रतिस्पर्धो बोली के फलस्वरुप मिलने वाले राजस्व में राज्य के लिए हिस्सा मांगने के मामले में डा. रमन सिंह पूरी तरह सही हैं। कैसे इस पत्र को नीलामी का विरोध करने के रुप में उदृत किया जा सकता है?

अब यह सर्वत्र माना जाने लगा है कि स्पैक्ट्रम, तेल, गैस और खनिजों जैसे कीमती संसाधनों के मनमाने आवंटन की अनुमति लोगों को भ्रष्ट और कुत्सित इरादों के लिए पर्याप्त विकल्प उपलब्ध कराती है।

2जी स्पैक्ट्रम इसका ताजा उदाहरण था। सन् 2008 में आल इंडिया लाइसेंस का मूल्य 1658 करोड़ रुपए तय किया गया था जोकि तब बाजार मूल्य नहीं था। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि सन् 2012 में बाजार हालात विपरीत होते हुए भी सरकार ने 2जी का नीलामी मूल्य 14000 करोड़ रुपए स्वयं तय किया है।

यदि एनडीए की मांग कि पहले से मनमाने ढंग से आवंटित कोयला ब्लाकों को रद्द किया जाए और कोयला ब्लॉकों की नीलामी की बात स्वीकार करें तथा उसे क्रियान्वित करें तो यह सच्चाई सामने आ जाएगी कि वर्तमान में इनका उचित मूल्य वास्तव में कितना है।

***

जब जून 1975 में जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने श्रीमती इंदिरा गांधी के चुनाव के विरुध्द याचिका पर फैसला सुनाते हुए लोकसभा के लिए उनका चुनाव रद्द कर दिया और आगामी 6 वर्षों के लिए उनकी सदस्यता को अयोग्य करार दिया, तो क्रांग्रेस सरकार ने देश पर आपातकाल थोप दिया।

उस महीने, वाजपेयीजी और मैं दलबदल के विरुध्द कानून सम्बन्धी संसदीय समिति की बैठक में भाग लेने हेतु बंगलौर गए हुए थे।

आपातकाल की उद्धोषणा पर राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने 25 जून, 1975 की देर रात्रि को हस्ताक्षर किए थे। सरकारी मशीनरी तुरंत सक्रिय हो गई। लोकनायक जयप्रकाश नारायण, श्री मोरारजी भाई देसाई और विपक्ष के अन्य अनेक नेताओं को इसके तुरंत बाद गिरफ्तार कर लिया गया। 26 जून, 1975 की तड़के सुबह केन्द्रीय मंत्रिमंडल की बैठक बुलाई गई और इन सभी घटनाक्रमों की जानकारी दी गई तथा इस असाधारण कार्रवाई हेतु केबिनेट की बाद में स्वीकृति ली गई। 26 जून की सुबह वाजपेयीजी और मुझे भी बंदी बनाकर बंगलौर सेंट्रल जेल भेज दिया गया।

बंगलौर में बंदी के दौरान मुझे आपातकाल के विरुध्द लड़े जा रहे संघर्ष में जुटे भूमिगत पार्टी कार्यकर्ताओं के लिए पैम्फलेटों की श्रृंखला लिखने का अवसर मिला। इन दो पैम्फलेटों में से एक का शीर्षक था ‘ए टेल आफ टू इमरजेंसीज‘ और ‘एन एनाटॉमी आफ फासिज्म‘ जोकि नाजी जर्मनी के बारे में विलियम शिरर की प्रसिध्द पुस्तक ‘राइज ऐंड फॉल ऑफ द थर्ड राईख‘ पर आधारित थी। मैंने हिटलर की 1933 की इमरजेंसी और श्रीमती गांधी की 1975 की इमरजेंसी की तुलना की थी। दिलचस्प यह है कि श्रीमती गांधी आपातकाल के दौरान एक बार स्वयं लोकसभा में फासिज्म के बारे में बोलीं। 22 जुलाई 1975 को उन्होंने कहा :

”कल, विपक्ष के एक दूसरे सदस्य जानना चाहते थे कि फासिज्म क्या है। फासिज्म का अर्थ केवल दमन नहीं है। सबसे ऊपर, यह बडे झूठ का प्रचार है, यह कानाफूसी अभियान है, बलि के बकरों की तलाश है।”

नाजी प्रचार तंत्र में ‘बिग लाई‘ (बड़े झूठ) के सिध्दांत ने अपना एक महत्वपूर्ण स्थान बना लिया था। अडोल्फ हिटलर ने इस अवधारणा को इस तरह प्रचारित किया:

”झूठ का आकार, भरोसा करने हेतु एक निश्चित कारक है लोगों के दिमागों की साधारण सहजता उन्हें छोटे, जिसे वे अक्सर स्वयं को बताते हैं कि तुलना में बड़े झूठ के लिए आसानी से वापसी हेतु प्रेरित करती है लेकिन बड़े के बताने पर उन्हें शर्म आती है।”

दिलचस्प यह है कि श्रीमती गांधी ने भारत के आपातकाल की पश्चिमी देशों की आलोचना को नाजी तरीके के ‘बिग लाई‘ के चरित्र की भांति तब निरूपित किया कि जब उनकी बातचीत नार्थ जर्मन टी.वी. के डॉ. क्रोनजुकेर और डा. सचरालव से हुईं। उन्होंने जर्मन, ब्रिटिश और अमेरिकी प्रेस में प्रकाशित सामग्री पर कटुता से बोलते हुए कहा: ”वे जो भी लिखते हैं वह पूरी तरह से किसी की कपोल कल्पना है। कोई यह भी नहीं कह सकता कि चीजों को बढ़ा-चढ़ाकर लिखा गया है, इनमें से अधिकांश का कोई आधार ही नहीं है।”

इस तरह की आधारहीन रिपोर्टिंग के बारे में कुछ ठोस उदाहरण देने हेतु साक्षात्कारकर्ताओं द्वारा आग्रह किए जाने पर प्रधानमंत्री ने जो कहा, वह यह है:

”उदाहरण के लिए, एक बड़ा झूठ यह प्रचारित किया जा रहा है कि सारे आपातकाल को मेरे पुत्र सहित एक छोटा सा गु्रप चला रहा है, एकदम निराधार है।

निर्णय इस देश के मुख्यमंत्रियों द्वारा लिया गया और ये वे हैं जो राज्यों का संचालन करते हैं।

देखिए यह एक संघीय ढांचे जैसा है अत: निर्णय मुख्यमंत्रियों द्वारा हमारे वरिष्ठ सहयोगियों के साथ मिलकर लिया गया।

(पृष्ठ 166, डेमोक्रेसी एण्ड डिसिप्लेन, स्पीचेज़ ऑफ इंदिरा गांधी, भारत सरकार प्रकाशन)

क्या यह विचित्र नहीं है कि श्रीमती गांधी जिन्होंने आपातकाल की घोषणा राष्ट्रपति के हस्ताक्षर कराने से पूर्व केंद्रीय मंत्रिमण्डल से परामर्श करना तक उचित नहीं समझा, परन्तु उन्हें इसके लिए मुख्यमंत्रियों को दोष देते हुए कोई संकोच नहीं हुआ?

टेलपीस (पश्च्यलेख)

सन् 1996 में भारतीय प्रशासनिक सेवा से निवृत होने के बाद श्री एन. विट्ठल 1998 में मुख्य सतर्कता आयुक्त बने ओर सन् 2002 तक इस पद पर रहे।

अपनी योग्यता तथा ईमानदारी के चलते श्री विट्ठल की काफी प्रतिष्ठा रही है। उनके द्वारा लिखित नवीनतम पुस्तक ”एण्डिंग करप्शन? हाऊ टु क्लीन अप इण्डिया” (Ending Corruption? How to clean up India) की प्रति मुझे हाल ही में प्राप्त हुई।

पुस्तक की प्रस्तावना में श्री विट्ठल ने लिखा कि ”विशेष रूप से मीडिया में एक आम धारणा है सीवीसी जैसी संस्थाएं केवल छोटे-मोटे अपराधियों के पीछे पड़ी रहती हैं – बड़े अपराधी हमेशा बच जाते हैं।” वे लिखते हैं:

मैंने संस्कृत के एक पुराने श्लोक को नए कलेवर में गढ़ा है जो कहता है कि भगवान भी उनकी सहायता करते हैं जो बलवान होते हैं।

अश्वं नैव गजं नैव

व्याघ्रं नैव च

अजापुत्रं बलिं दधातु

देवो दुर्बलाघतक: 

अपनी पूजा में हम भगवान को कुछ अर्पित करते हैं। शाकाहारी भगवान के संदर्भ में कोई समस्या नहीं होती। लेकिन मांसाहारी भगवान के लिए हम कौन से पशु की बलि चढ़ा सकते हैं, अश्व की बलि नहीं चढ़ा सकते क्योंकि केवल चक्रवर्ती (सम्राट) ही अश्वमेध यज्ञ कर सकते हैं यानी अश्व की बलि दे सकते हैं। हाथी की नहीं। न ही टाइगर की। तथ्य यह है कि टाइगर हमारी ही बलि ले लेगा! स्वाभाविक रूप से जो बलि चढ़ाई जाती है वह कमजोर बकरे की। यहां तक कि अंग्रेजी शब्द ‘स्केप्गोट‘ भी उसी पशु का संदर्भ है। मेरा गीत निम्न है:

सेक्रेटरी नैव, चेयरमैन नैव

मिनिस्टर नैव च, नैव

एलडीसी बलिं दधातु

सीवीसी दुर्बला घतक: 

न तो सरकार के सेक्रेटरी या किसी संगठन के चेयरमैन की बलि चढ़ाई जाती है। मंत्री टाइगर की भांति है; कभी भी दण्डित नहीं किया जा सकता। सीवीसी केवल बेचारे लोअर डिविजन क्लर्क (एलडीसी) को ही दण्डित करता है।

जैसाकि पहले ही वर्णन किया गया है, धारणा है कि सीवीसी सरकार के कनिष्ठ स्तर के अधिकारियों के खिलाफ ही कार्रवाई करता है। वास्तव में, सीवीसी का क्षेत्राधिकार ग्रुप या क्लास-1 अधिकारियों के वरिष्ठ स्तर से सम्बन्धित है, जबकि ग्रुप बी, सी और डी के सरकारी अधिकारियों का मामला उनके सम्बन्धित मंत्रालयों द्वारा स्वयं देखा जाता है।

1 COMMENT

  1. बड़ी ही गोल मटोल बात कही है अडवाणी जी ने.ऐसे बड़े नेताओं की बड़ी बात होती है और उसम्के विरुद्ध कुछ कहना खतरे से खाली नहीं होता ,पर मैं एक प्रश्न अवश्य पूछना चाहूँगा कि जब १९९३ में १९७० के बाद पहली बार कोयले के खदानों को प्राईवेट सेक्टर के लिए खोला गया तो उस समय क्या नीति अपनाई गयी? जाहिर तौर परयही नीति अपनाई गयी कि कोयलेकी खदाने मुफ्त मेंउनके हवाले कर दिया जाए जो बिजली या इस्पात उत्पादन में लगे हों.जब कि उद्योगों को उसी समय प्रतिस्पर्धा के लिए खोल दिया गया था और परमिट लाइसेंस राज्य की समाप्ति हो गयी थी तो क्या यह गलत कदम नहीं था?पर उस समय विपक्ष भी क्यों चुप रहा ?,मैं यह समझने में असमर्थ हूँ.कालचक्र में बीजेपी को भी राज्य कार्य संभालने का मौका मिला,फिर भी उस नीति में परिवर्तन क्यों नहीं हुआ?उस दौर में कितने खदान आवंटित हुए,यह प्रश्न नहीं है,प्रश्न यह है कि इस गलत नीति को विभिन्न दलों का समर्थन क्यों मिलता रहा?इसमे वाम पंथ केन्द्रीय पंथ और दक्षिण पंथ सब शामिल हैं.नीति परिवर्तन का श्री गणेश फिर उसी आदमी के शासन काल में आरम्भ हुआ जिसके वित् मंत्रित्व काल में यह नीति निर्धारण हुआ था.यहीं सब कठघरे में खड़े हो जाते हैं. २००४ वाली नीति परिवर्तन काल में भी राज्य सरकारें यह जोर देती हुई नजर नहीं आती हैं कि नीलामी का प्रावधान जो कि आरम्भ से ही होना चाहिए था,वह अगर आज भी हुआ है तो अब उससे पीछे नहीं हटना है,पर उनमे से किसी ने पूर्ण रूप से इसका समर्थन नहीं किया.एक रूकावट भले ही ड़ाली कि अगर नीलामी होती है तो राज्यों को भी हिस्सा मिलना चाहिए.ये तो इसी तरह का हुआ कि पहले तो हम मिल बाँट कर आपस में खा रहे थे तो अब केंद्र इसको अपने क्षेत्र में लेना चाहता तो राज्यों को भी उसमे सहभागी बनाया जाए.यह एक अधूरे मन से सह्मति हुई. ऐसा लगता है कि केंद्र भी नहीं चाहता था कि यह नीलामी वाला मामला आगे बढे अतः उसे एक बहाना मिल गया.नतीजा हम लोगोंन के सामने है.अतः इसमे अगर समीक्षा का आधार १९९३ को बनाया जाये तो हमाम में सब नंगे नजर आयेंगे. यही बात कुछ हद तक अन्य घोटालों में भी लागू होती है

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here