प्रदूषण मुक्ति

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मैं सुबह और शाम को तो घूमता ही हूं; पर सर्दियों में कई बार समय मिलने पर दिन में भी पार्क में चला जाता हूं। वहां खुली धूप से कमर की अच्छी सिकाई के साथ ही कई लोगों से भेंट भी हो जाती है। छुट्टी हो, तो बच्चे भी वहां खेलते मिल जाते हैं। उन्हें खिलखिलाता देख मन में नये उत्साह का संचार होता है। बुजुर्गों का तो कहना ही क्या, वे तो सदा वहां बने ही रहते हैं। इससे उन्हें भी चैन मिलता है और उनकी बहुओं को भी।
वहां कुछ लोग ताश और शतरंज से समय काटते हैं, तो कुछ गीता और रामायण बांच कर। कुछ को राजनीतिक चर्चा में ही मजा आता है। ‘रैडीमेड’ के जमाने में भी महिलाएं स्वेटर की बुनाई से लेकर चटनी और अचार पर बात कर लेती हैं। बुजुर्ग महिलाएं वहां बच्चों और महिला-रोगों के बारे में अपनी अनुभवसिद्ध सलाह निःशुल्क देती हैं। हर आयु और वर्ग के लोगों की मानसिकता समझनी हो, तो मोहल्ले का पार्क एक अच्छी जगह है।
यों तो हर पार्क में बैंच होती हैं; पर हमारे पार्क में कई बैंच इस तरह लगी हैं कि लोग आमने-सामने बैठकर भी बात कर सकें। कल मैं जहां बैठा, उसके सामने वाली बैंच पर बैठे दो बुजुर्ग बड़ी रोचक चर्चा कर रहे थे। उनके सफेद बाल और हाथ की छड़ी उनकी आयु बिना कहे ही बता रही थी।
– क्या बात है शर्मा जी, आज कई दिन बाद आये हैं ?
– हां वर्मा जी, पुराने दांतों का सेट ढीला पड़ गया था। कई दांत घिस भी गये थे। सो नये दांत बनवाने के लिए कई दिन लगातार मैट्रो अस्पताल में जाना पड़ा।
– लेकिन आप वहां क्यों गये; हमारे मोहल्ले के डॉक्टर रोहन तो बड़े प्रसिद्ध हैं। दूर-दूर से लोग दांत बनवाने यहां आते हैं ?
– हां। मैंने भी पिछली बार दांत उनसे ही बनवाये थे; पर वहां जाता, तो पांच हजार रु. भी तो लगते ?
– तो मैट्रो अस्पताल में पैसे नहीं लगे ?
– लगे तो होंगे; पर मेरी जेब से खर्च नहीं हुए।
– क्या मतलब ?
– वर्मा जी, मेरा बेटा राजीव जिस कम्पनी में काम करता है, वह उसे और उसके परिवार वालों को निःशुल्क चिकित्सा सुविधा देती है। उनका मैट्रो अस्पताल से अनुबंध है।
– लेकिन वह चिकित्सालय तो 25 कि.मी. दूर है। आने-जाने में ही काफी समय लग जाता होगा ?
– वर्मा जी, बुजुर्गों के पास समय की कोई कमी नहीं होती। मुझे तो जब भी जाना होता था, मैं राजीव को बता देता था। उसकी कम्पनी वाले टैक्सी भेज देते थे। मेरे साथ मेरी पत्नी भी चली जाती थी। इस बहाने उसका भी घर से बाहर कुछ घूमना-फिरना हो जाता था। लगे हाथ उसने एक-दो जांच भी करा लीं।
– लेकिन दिल्ली में टैक्सी पर एक दिन में दो हजार रु. से कम खर्च नहीं होता ?
– दो हो या ढाई, ये कम्पनी वालों का सिरदर्द था।
– तो आप कितनी बार गये होंगे ?
– शायद दस बार तो गया ही था।
– दस बार.. ? यानि आपके आने-जाने पर ही कम्पनी का बीस हजार रु. खर्च हो गया।
– जो भी हुआ हो..।
– लेकिन शर्मा जी, दिल्ली में आजकल प्रदूषण की बहुत चर्चा है। सरकार चाहती है कि लोग निजी गाड़ियों का प्रयोग कम करें। सड़कों पर जाम के कारण दस मिनट की यात्रा में कई बार एक घंटा लग जाता है। एक बार तो इस चक्कर में मेरी रेलगाड़ी ही छूट गयी थी। यदि आप डा. रोहन से दांत बनवाते, तो दस दिन में टैक्सी ने जो प्रदूषण फैलाया, वह बच जाता।
– आप भी कैसी बात कर रहे हैं वर्मा जी। डा. रोहन भले ही अपने पड़ोसी हों; पर उनके पास जाने से मेरे पांच हजार रु. भी तो खर्च होते। अब मेरी जेब से एक पैसा भी खर्च नहीं हुआ। इतना ही नहीं, एक महीने की दवा भी वहीं से साथ में मिली है।
– लेकिन शर्मा जी, प्रदूषण.. ?
– वर्मा जी, मेरा काम अपने पैसे बचाना है। प्रदूषण की बात वे नेता लोग जानें, जिन्हें इसके नाम पर राजनीति करनी है।
मैंने सोचा, ऐसे लोगों के रहते क्या दिल्ली प्रदूषण से मुक्त हो सकेगी ? आप भी सोचिये..।

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