दादा ने दिल की सुनी, जवाब आया – ना

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-कुमार सुशांत-
pranab mukherjee

वर्ष 1998 में मौजूदा भारतीय राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी विदेश मंत्री थे। तमाम आरोपों के बीच सरकार चल रही थी। उसी वर्ष रीडिफ.कॉम ने तत्कालीन विदेश श्री मुखर्जी का साक्षात्कार किया और उसमें भ्रष्टाचार के आरोपों पर सवाल पूछा गया। प्रणब दा ने कहा था, ‘भ्रष्टाचार एक मुद्दा है। लेकिन मैं यह कहते हुए क्षमा चाहता हूं कि ये घोटाले केवल कांग्रेस या कांग्रेस सरकार तक ही सीमित नहीं हैं। बहुत सारे घोटाले हैं। विभिन्न राजनीतिक दलों के कई नेता उनमें शामिल हैं। तो यह कहना काफी सरल है कि कांग्रेस सरकार भी इन घोटालों में शामिल थी।” उस इंटरव्यू में अन्य राजनीतिक दलों के साथ ही सही, लेकिन कहीं न कहीं एक पीड़ा थी प्रणब दा के मन में, कि जो हो रहा है, वह ठीक नहीं हो रहा है। लेकिन राजनीतिक मजबूरी होती है। राजनेता किसी दल की विचारधारा से ऊपर नहीं जा सकता। बात इतने पर ही इतिश्री थी। लेकिन आज वही बातें प्रणब दा की याद रही हैं कि क्योंकि आज प्रणब दा, प्रणब दा नहीं रहे, बल्कि महामहिम हो गए हैं। और भले ही एक समय कांग्रेस के वफादार सिपहसलारों में इनकी गिनती हुई हो, लेकिन आज जब स्वतंत्र रूप से निर्णय इनके पाले में था कि मतदान किसे करना है, महामहिम ने निष्पक्ष रहने का फैसला किया। महामहिम की निष्पक्षता इस बात के सुबूत हैं कि सचमुच कांग्रेस ने जो आज तक बोए हैं, उसके बीज सार्थक विश के सामान हैं।

राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने ‘राजनीतिक लड़ाई में अपनी तटस्थता’ दिखाने के लिए लोकसभा चुनावों में मतदान नहीं करने का फैसला किया। वैसे ये बात बड़ी दिलचस्प है। महामहिम ने दक्षिण कोलकाता लोकसभा सीट के चुनाव में मतदान करने के लिए डाक मतपत्र मंगाया था। इस सीट पर 12 मई को चुनाव होना है। राष्ट्रपति दक्षिण कोलकाता लोकसभा क्षेत्र के 160 रासबिहारी इलाके के पंजीकृत मतदाता हैं। दक्षिण कोलकाता सीट पर कांग्रेस की माला रॉय, भाजपा उम्मीदवार एवं पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष तथागत रॉय, तृणमूल कांग्रेस के निवर्तमान सांसद सुब्रत बक्शी और माकपा उम्मीदवार नंदिनी मुखर्जी के बीच बहुकोणीय मुकाबला है। महामहिम ने डाक मतपत्र द्वारा मतदान करने की सभी औपचारिकताएं पूरी कर ली थीं, लेकिन आखिरकार उन्होंने भी अपने पूर्ववर्तियों की परंपरा का पालन करते हुए अपने मताधिकार का इस्तेमाल नहीं करने का फैसला किया। भारत के राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का यह फैसला बताता है कि उन्होंने आज दिल की सुनी। वह इसलिए क्योंकि इस मुकाम पर, जहां इंसान पर कोई दबाव नहीं रहता। स्वच्छंद निर्णयी होता है, वो दिल की सुनता है। ऐसे में अगर भारतीय राष्ट्रपति कांग्रेस को वोट देते, तो भी उसे एक अच्छी पार्टी सोचकर देते, नहीं दिए तो भी उसे इस लायक न सोचते हुए खुद को निष्पक्ष रखने की सोच डाली।

श्री मुखर्जी का संबंध कांग्रेस से क्या रहा है, इसे विस्तार से बताने की जरूरत नहीं है। राजीव गांधी की हत्या के बाद जब सोनिया गांधी अनिच्छा के साथ राजनीति में शामिल होने के लिए राजी हुईं, तब प्रणब मुखर्जी उनके प्रमुख परामर्शदाताओं में से रहे, जिन्होंने कठिन परिस्थितियों में उन्हें उदाहरणों के जरिये बताया कि उनकी सास इंदिरा गांधी इस तरह के हालात से कैसे निपटती थीं। श्री मुखर्जी की अमोघ निष्ठा और योग्यता ने ही उन्हें यूपीए प्रमुख सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का करीबी बना दिया। जब 2004 में कांग्रेस पार्टी सत्ता में आयी तो उन्हें भारत का रक्षा मंत्री बनाया गया। इससे पहले वर्ष 1991 से 1996 तक वे योजना आयोग के उपाध्यक्ष भी रहे। प्रणब मुखर्जी का राजनीतिक करियर करीब पांच दशक पुराना है। 1969 में कांग्रेस पार्टी के राज्यसभा सदस्य के रूप में (उच्च सदन) से शुरू हुए तो फिर 1975, 1981, 1993 और 1999 में भी चुने गये। 1973 में औद्योगिक विकास विभाग के केंद्रीय उपमन्त्री के रूप में मंत्रिमंडल में शामिल हुए। 1982 से 1984 तक कई कैबिनेट पदों पर रहे, तो वहीं 1984 में भारत के वित्त मंत्री बने।

वे इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए लोकसभा चुनाव के दौरान राजीव गांधी की करीबियों के षड्यन्त्र के शिकार हुए जिसने इन्हें मंत्रिमंडल में शामिल नहीं होने दिया। कुछ समय के लिए उन्हें कांग्रेस पार्टी से निकाल दिया गया। उस दौरान उन्होंने अपने राजनीतिक दल राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस का गठन किया, लेकिन 1989 में राजीव गांधी के साथ समझौता होने के बाद उन्होंने अपने दल का कांग्रेस पार्टी में विलय कर दिया। उनका राजनीतिक करियर फिर पुनर्जीवित हुआ, जब पीवी नरसिंह राव ने पहले उन्हें योजना आयोग के उपाध्यक्ष के रूप में और बाद में बतौर केन्द्रीय कैबिनेट मंत्री के तौर पर नियुक्त करने का फैसला किया। लेकिन जिस परिस्थिति में प्रणब मुखर्जी को अपनी पार्टी का गठन करना पड़ा, उसका तार उनके राष्ट्रपति बनने तक से जोड़ दिया गया। मीडिया में खबरें चलीं कि उनके राजनीतिक करियर पर अल्प-विराम लगाने के लिए उन्हें जान-बूझकर राष्ट्रपति की कुर्सी दे दी गई। खैर, यहां उस मसले को बयां करना हमारा ध्येय नहीं है, न करना चाहते हैं। बात इतनी है कि महामहिम ने आज दिल की सुनी और जवाब आया – ना। अब उस ना में कांग्रेस भी है, बाकी दूसरी पार्टियां भी।

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