इक़बाल हिंदुस्तानी
प्रवक्ता डॉटकॉम की स्थापना के पांच साल पूरे होने पर 16 लेखकों का सम्मान समारोह और ‘‘न्यू मीडिया और जनसंवाद’’ पर विचार गोष्ठी दो हिस्सों में शानदार प्रोग्राम हुआ। हालांकि मैं खुद को इस लायक नहीं समझता कि देश-विदेश के उन 16 लेखकों में मेरा नाम भी शामिल किया जाता जिनको सम्मानित किया गया लेकिन प्रवक्ता की चयन समिति का निर्णय सिर माथे पर इस लिये भी लेना था क्योंकि प्रवक्ता से एक आत्मिक लगाव हो चुका है। संपादक भाई संजीव सिन्हा की सादगी, साफगोई और लगन का मैं कायल हूं।
मुझे यह विचार गोष्ठी विभिन्न कारणों से ज़रूर यादगार लगी। सबसे बड़ी बात मंच पर आसीन अतिथि विभिन्न विचारधाराओं से ठीक उसी तरह से जुड़े हुए थे जिस तरह से प्रवक्ता पर लिखने वालों में विचारों की विभिन्नता और विविधता पाई जाती है। साथ ही मैंने नोट किया कि समय कम होने के बाद भी सम्मानित होने वाले सभी लेखकों को अपनी बात कहने का बराबर मौका दिया गया।
इसका नतीजा यह हुआ कि जहां मार्क्सवाद, राष्ट्रवाद, पूंजीवाद और समाजवाद को लेकर वक्ताओं ने गोष्ठी का एक प्रकार से व्यापक एजेंडा आगे चर्चा के लिये दिया वहीं अलग अलग सोच और क्षेत्र से आये सभी साथियों में निश्कर्ष के तौर इस बात पर सहमति बनती दिखाई दी कि हम चाहे जिस विचारधारा के हों लेकिन देशप्रेम और जनहित से कोई समझौता किसी को नहीं करना चाहिये।
इससे पहले ऐसे प्रोग्रामों को लेकर अकसर यह वैचारिक छुआछूत भी देखने को मिलती रही है कि जिसमें एक विचारधारा के लोग दूसरी विचारधारा के लोगों के साथ मंच साझा करने तक को किसी कीमत पर तैयार नहीं होते हैं। हंस पत्रिका के एक सेमिनार में यह तमाशा खूब चर्चा में आया था। वैसे तो लेखक को भी किसी ‘वाद’ के खूंटे से बंधने से बचना चाहिये लेकिन वह अगर वह किसी कारण से ऐसा कर भी रहा है तो कम से कम संपादक तो ऐसा नहीं कर सकता।
जहां तक सवाल पुराने मीडिया यानी प्रिंट और इलेक्ट्रानिक चैनलों का है वे अपने संस्थापक, स्वामी या प्रकाशक के हितों और सोच के कारण संपादक को अपने हिसाब से चलने को मजबूर कर सकते हैं लेकिन उन संपादकों में भी अपने उसूलों और विचार को सर्वोपरि मानने वाले नौकरी और बड़े से बड़े पद व स्वार्थ को लात मार कर अपनी सोच के हिसाब से काम तलाश लेने वालों का इतिहास मौजूद है। उधर जहां तक किसी पोर्टल या ऐसे वेब का सवाल है जिसको उसका संचालक चला ही इसलिये रहा है कि उसको जो घुटन और बंदिश पुराने मीडिया में चुभ रही थी वह न्यू मीडिया में ना पेश आये वह भला कैसे हर हाल में निष्पक्ष रहने की भरसक कोशिश नहीं करेगा?
कुछ लोग संजीव जी की इस निष्पक्षता को माइनस प्वाइंट मानकर सवाल उठाते हैं कि अगर वह हर किसी के विचार बिना सेंसरशिप के अपने पोर्टल पर एज़ इट इज़ प्रकाशित करते हैं तो उनके संपादक होने का क्या मतलब रह जाता है? मेरा मानना है कि संजीव जी का यही तो प्लस प्वाइंट है कि वे असहमति के बाद भी सबके लिये प्रवक्ता को सभी विचारधाराओं की अभिव्यक्ति का निष्पक्ष मंच बनाने में सफल रहे हैं। अगर प्रवक्ता जैसे पोर्टल का संपादक भी अख़बार और चैनल वालों की तरह अपनी मोनोपोली, मनमानी और खास विचारधारा व मिशन की वजह से एक विशेष सोच के लोगों का प्रवक्ता को भोंपू बनादेगा तो संघ परिवार से असहमत लोग यहां क्या करेंगे?
प्रवक्ता तो तरह तरह के फूलों का एक गुलदस्ता है जिसमें हर फूल का अपना रंग, खुश्बू और खूबसूरती है जिसकी वजह से आज प्रवक्ता का चमन महक रहा है। प्रवक्ता रूपी बागीचे की सुगंध इसी विविधता और विचारों की विभिन्नता की वजह से खुद ब खुद चारों तरफ फैल रही है। आज दुनिया ग्लोबल विलेज कही जा रही है। हमारी संस्कृति पूरे विश्व को एक खानदान यानी वसुधैवकुटंबकम मानती है। आज अमेरिका का शेयर बाज़ार गिरता है तो हमारी अर्थव्यवस्था लड़खड़ाने लगती है। आज अरब देशों में तेल संकट का केवल अंदेशा होने से ही हमारे यहां ट्रांस्पोर्टेशन चरमराने लगता है।
अफगानिस्तान से अगर अमेरिका तालिबान के भूत को नेस्तो नाबूद किये बिना जाने की तारीख़ तय करता है या पाकिस्तान को हथियार और अरबों डालर की मदद देता है तो हमारे देश के हित प्रभावित होते हैं और चीन के सस्ते सामान से हम पर मंदी का ख़तरा मंडराने लगता है। इंटरनेट पर दुनिया के किसी अंजान देश से एक विवादित पोस्ट डाले जाने पर पूरे देश में दंगा और अराजकता का ख़तरा पैदा हो जाता है। और हम खुद प्याज़ या गेहूं खरीदने को ग्लोबल टेंडर निकालते हैं तो पूरी दुनिया के बाज़ारों में तहलका मच जाता है। कहने का मतलब यह है कि आज के दौर में आप केवल अपने, अपने परिवार और अपने देश के बारे में अकेले नहीं सोच सकते।
राष्ट्रवाद के साथ ही जहां तक मार्क्सवाद, पूंजीवाद और समाजवाद जैसी विचारधाराओं का सवाल है, प्रवक्ता के सेमिनार में वरिष्ठ पत्रकार राहुल देव जी ने ठीक ही कहा था कि आपकी विचारधारा चाहे जो हो लेकिन आप किसी को यह तमगा नहीं दे सकते कि वह देश से प्रेम नहीं करता है। वरिष्ठ लेखक और विचारक नरेश भारतीय जी, जगदीश्वर चतुर्वेदी जी, विपिन किशोर सिन्हा जी, सुरेश चिपलूनकर जी और प्रवक्ता के प्रबंधक भारत भूषण जी सहित कई अन्य वक्ताओं ने भी इस बात पर ही सहमति व्यक्त की थी कि आपकी सोच जो हो लेकिन उसमें लोकतंत्र और इतनी उदारता ज़रूर रहे कि आप देश और जनहित को सर्वोपरि रखकर अपने विरोधी की बात भी धैर्यपूर्वक सुन सकें।
मेरा खुद यही मानना है कि आप चाहे जो लिखें जो बोलें और चाहें जो करें लेकिन यह याद रहे कि वह मानवता के खिलाफ कदापि ना हो। राष्ट्र की परिभाषा भी अगर आप करेंगे तो वह केवल भूमि, सड़क, पर्वत, वन, भवन, कारखाने, नदी, किताबें व तकनीकी व्यवस्था का मिश्रण नहीं हो सकता जब तक कि उसमें नागरिक यानी मानव शामिल नहीं हो। प्रवक्ता को ‘‘अभिव्यक्ति का अपना मंच’’ बनाये रखना होगा।
0 मैं वो साफ़ ही न कहदूं जो है फ़र्क़ तुझमें मुझमें,
तेरा ग़म है ग़म ए तन्हा मेरा ग़म ग़म ए ज़माना।।
प्रवक्ता के पांच वर्ष पूरे होने के उपलक्ष में जो विचार गोष्ठी होने जा रही थी,उस समय मैंने भी एक आलेख लिखा था. उसमे मैंने लिखा था,”अजब है यह प्रवक्ता भी. विभिन्न विचारों का ऐसा समन्वय बहुत कम ही दृष्टिगोचर होता है. युवा संपादक संजीव जी की व्यक्तिगत विचारधारा प्रवक्ता पर कभी हावी नहीं हुई इसके लेखकों और पाठकों में वामपंथी भी हैं तो दक्षिणपंथी भी. कट्टर धार्मिक हैं, तो उदार वादी भी. वामपंथ और दक्षिणपंथ की लड़ाई ने तो कभी कभी ऐसा ज़ोर पकड़ा है कि प्रवक्ता के पुराने सहयोगियों ने इससे किनारा करने की भी धमकी दे डाली,पर प्रवक्ता प्रबंधकों पर इसका भी कोइ प्रत्यक्ष प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं हुआ.” आज जब मैं इकबाल जी का आलेख पढ़ रहा हूँ ,तो १८ अक्टूबर के शाम की उस गोष्ठी की याद ताजा होगयी है. ऐसे इकबाल भाई को शायाद लगे क़ि मैंने इतने दिनों बाद यह आलेख क्यों पढ़ा, तो मैं उस शाम को उनके साथ हुई बातचीत की याद दिला दूंगा.
कितना अच्छा लगा था,वह संगम उस शाम काऔर उसमे बड़े बड़े विचारकों के बीच मुझे सम्मानित किया जाना. मैं तो इसमे ही अभिभूत था,पर असल याद जो वह शाम मुझ पर छोड़ गयी ,वह था एक दूसरे से परिचय प्राप्त करने की उत्सुकता. गोष्ठी का दूसरा भाग जिसमे नई मेडिया के महत्त्व और उसके भविष्य के बारे में विशेषज्ञों द्वारा दी गयी जानकारी बहुत ही ज्ञान वर्द्धक रही.
प्रवक्ता के लेखों ,कहानियों और अन्य विधाओं में जो गंगा जमुनी समन्वय दिखता है,वैसा ही वहाँ उपस्थित जन समूह में था.कौन नहीं था,वहाँ? अगर पंकज जी थे,तो डाक्टर जगदीश्वर चतुर्वेदी भी थे..उसीके बीच हम सब थे,जिसमे भारतीय जी से लेकर डाक्टर मीणा निरंकुश श्री ,विपिन किशोर सिन्हा ,श्री इकबाल हिंदुस्तानी ,श्री शादाब जफ़र ,श्री सुरेश चिपलूनकर भी थे और थे डाक्टर राजेश कपूर. इतने लोग मिले उस दिन.तब लगा था क़ि प्रवक्ता.कम का परिवार कितना बड़ा है. कितने लोगों को एक मच पर लाकर खड़ा कर दिया हैं ,इन स्वप्न दर्शी युवक वृंद ने.
आज जब इस आलेख को पढ़ रहा हूँ,तो लाग रहा है क़ि श्री इकबाल भाई ने बहुत ही समन्वित विवेचन किया है उस गोष्ठी का.इसके लिए उनको साधुवाद.
धन्यवाद
विचारिक भिन्नता के बावजूद…. आपको यह सम्मान मिलने पर बधाई… इससे एक बार फिर साबित हो गया कि संघी अब भी “सेक्युलर” हैं…
भाई इक़बाल जी आपने आपने प्रवक्ता के आयोजन की अच्छी विवेचना की है।
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’
मै इस समारोह मे शामिल थी, व्यक्तिगत रूप से आपसे परिचय नहीं हो पाया, आपको इस सम्मान के लियें बधाई। आपके लेख की हर बात से मै सहमत हूँ।