कविता

प्रो. मधुसूदन की कविता : खंडहर शिवाला

प्रवेश: एक घना निबिड़ अरण्य। जलाशय के किनारे, प्राचीन खंडहर शिवाला विलुप्तसा। पगडंडी परभी पेड पौधे। मिट चुकी पगडंडी। बरसों से कोई यात्री ही नहीं। श्रद्धालु तो, निष्कासित हैं। कवि वहां पहुंचता है। प्रगाढ शांति -भंग करने की झिझक, और द्विधा के क्षण पर, यह कविता-एक सबेरे, चेतस की सितारी यूं, झन झना कर गई।

सरवर-जल पर तैरता,

खंडहर शिवालय।

शीर्ण ध्वज, बटकी जटाएं,

निःशब्द, नीरव।

चहुं दिश बहे, घन निबिड-

बन, एकांत शांत।

योजनो, योजनो तक,

निर-बाट निर्जन।

झूलती बट की जटाएं।

मध्य में खंडहर शिवाला।

शिवजी करते वास-

इस एकांत में।

जटा जूट में, खो चुका,

खंडहर शिवाला।

छतपर लटकी ,

जीर्ण जर्जर शृंखला।

शृंखला पर लटका घंट,

घंटपर लोलक लटका,

लोलक पर लटका शब्द,

ही समाधि-मग्न!

कई बरसों से सुन रहा।

अनाहत नाद!

अनाहत नाद।

अना–हत–नाद।

बस एकांत।

—-

—-

—-

अब न कोई घंटी बजाए।

कोई शब्द को जगाए ना।

रूद्र शिव बैठे हैं, तप में।

कोइ पगध्वनि ना करें।

भंग शांति ना करें।

सरवर जलपर तैरने

दे खंडहर शिवालय।

शीर्ण ध्वज, बटकी जटाएं,

निःशब्द नीरव।