-आशीष तिवारी
मैं ये दावा तो नहीं करता कि इस शीर्षक को पढ़ने वालों की बड़ी तादात शायद इस शीर्षक का मतलब ना समझ पाए लेकिन इतना ज़रूर कहूँगा कि एक आदमी तो कम से कम होगा ही जिसे शायद इसका अर्थ समझने में कुछ परेशानी हो तो साहब बारात का मतलब आप जानते ही होंगे(नहीं जानते तो डूब मरिये कहीं, आजकल नालों में भी इतना पानी है कि काम हो जायेगा) और जहाँ तक बात बसिऔरा कि है तो जब घर मैं खाना बच जाता है तो उसे बासी कहते हैं और जब बारात या किसी अन्य बड़े आयोजन में बचा खाना फिर से परोसा जाता है तो उसे बसिऔरा कहते हैं…..अब समझ गए होंगे आप(नहीं समझे तो……) वर्तमान में इलेक्ट्रोनिक मीडिया की भी हालत कुछ ऐसी ही हो गयी है..पूरी बारात है लेकिन परोसा जा रह है वही बासी भोजन. दूरदर्शन का एक अपना ज़माना था. सधी हुयी भाषा में किसी सरकारी प्रेस विज्ञप्ति की तरह ख़बरें पढ़ दी जाती थी. धीरे धीरे परिदृश्य बदलने लगा और निजी क्षेत्र में मीडिया का पदार्पण हुआ. बुद्धू बक्सा समझदार होने लगा. अब टीवी पर ऐसी ख़बरें बोलने और दिखने लगी जिनके बारे में कभी सोचा भी नहीं गया था. एदुम से लगा कि इस देश में गरीबों और दलितों का नया मसीहा आ गया. अब सूरत बदल जाएगी. समाज का वंचित वर्ग सबकुछ पा जायेगा. देश में भ्रष्टाचार पर लगाम लगेगी. तानाशाह होते जनप्रतिनिधि जनता के प्रति जवाबदेह बनेंगे. लोकतांत्रिक आधार वाला देश सांस्कृतिक दृढ़ता और परिपक्व सभ्यता के साथ प्रजातंत्र के चौथे स्तम्भ के और अधिक मजबूत होने का उत्सव मनायेगा. लेकिन अब के हालात कुछ अलग हैं. ख़ास तौर पर इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने बहुत जल्द ही एक ऐसी स्थिथि में खुद को पहुंचा लिया जिसकी उम्मीद नहीं थी. ख़बरों को हद से अधिक खींचना, बार बार एक ही ख़बर को दिखाना, गंभीर शब्दों से दूरी बनना, सनसनी के लिए तथ्यों के साथ छेड़छाड़, ख़बरों को प्रोफाइल के नज़रिए से देखना. ये सबकुछ मीडिया को बधाई से अधिक आलोचना का पात्र बनता है.
बदलते परिवेश में मीडिया से जुड़े पुरनियों को नयी सोच के साथ सामने आना होगा. समाज की अवधारणा इस देश में बदल रही है. देश राज्य में बदला, राज्य जातियों में. बात शहर से होते हुए मोहल्ले में सिमटी और अब नज़रों के दायरे से ज्यादा कुछ नहीं दिखता. मीडिया भी अगर इसी राह पर चल पड़ेगी तो क्या होगा. ख़बरों के चुनाव में इस बात का ध्यान रखना ज़रूरी होता है कि वो समाज के बड़े हिस्से से जुड़ी हो. हम सब जब मॉस कॉम की पढ़ाई किया करते थे तो हमें बताया जाता था कि ख़बरों का करीबी बड़े सामाजिक दायरे से वास्ता होना चाहिए. अमेरिका में दस लोग की मौत से अधिक ज़रूरी ख़बर मोहल्ले में एक व्यक्ति के साथ हुयी दुर्घटना है. इससे अधिक जगह मिलनी चाहिए. लेकिन क्या आज मीडिया इस नियम को मानती है. आज भी भारत के गावों में लगभग ६५ फ़ीसदी आबादी रहती है लेकिन न्यूज़ चैनलों के कंटेंट से गाँव गायब हैं. गाँव गीरावं की खबरे कोट पैंट पहने एंकर नहीं बोलते हैं. पिछले साल के बाद इस साल एक बार फिर गावों में पानी कि कमी है. बारिश खूब हुयी लेकिन तब जब धान की रोपाई का वक़्त निकाल चुका था. मजबूरन खेत खाली रह गए. अब दुनिया देख रही है की दिल्ली में बारिश ही रहो है. आईटीओ डूब जा रहा है. यमुना का जलस्तर तेजी से बढ़ रहा है. दिल्ली में बाढ़ का खतरा उत्पन्न हो गया है लेकिन देश के कई गावों में बरसात के बीच सूखे का दर्द उभर रहा है. इसे मीडिया नहीं दिखाना चाहती. गावों में भूमिगत जलस्तर तेजी से गिर रहा है. कई गावों में पीने योग्य पानी की कमी हो रही है. फसलों के लिए खाद कि कमी है. सड़कें नहीं हैं. इलाज के लिए आज भी लोग शहरों की ओर भागते हैं. पढ़ाई की कोई सुविधा नहीं है. सरकारी योजनाओं का बुरा हाल है. देश का पेट भरने वाला ग्रामीण भूखा सो रहा है. किसान कहे जाने वाले इस जीव की दास्तान टीवी के चौखटे से गाएब है. इसका ज़िम्मेदार कौन है?
देश में हिंदी मीडिया ने तेजी से तरक्की की. शुरुआत में समाज के कई रंग सामने आये. धीरे धीरे सनसनी का रंग हिंदी मीडिया पर चढ़ा और अब तो हिंदी मीडिया को बस अपना ही रंग पता है. मीडिया के शीर्ष पर बैठे लोग सोचते हैं कि वह जो दिखा रहें हैं वही सही है. जो उनका नज़रियअ है वही सबका है. यहीं से बात बिगड़ती है. एक बात और है. मीडिया के साथ- साथ मीडिया पर्सन्स की भी तरक्की हो गयी. कथित आधुनिक होने की सभी योग्यताएं उनमे आ गयीं. अब उनका अपना एक स्तातास हो गया. और जब आँखों पर ऐसा चश्मा चढ़ गया तो देश का किसान, मजदूर सब त्याज्य समझ में आने लगे.नॉएडा और दिल्ली में इलेक्ट्रोनिक न्यूज़ चैनलों में बैठे लोग स्ट्रिंगर से पूछते हैं कि मरने वाला कैसी फॅमिली का था? अगर ठीक ठाक था तो भेज दो वरना ख़बर ड्रॉप. एक गरीब कि मौत को ख़बर बनने का कोई हक नहीं है. जब तक उसे राजनीतिक भूख या सियासी चालों ने ना मारा हो.
जब तक नॉएडा और दिल्ली में बैठे पत्रकार ख़बरों में प्रोफाईल तलाशते रहेंगे तब तक ख़बरों का इस देश के आम आदमी के साथ सरोकार नहीं बन पायेगा. दिल्ली और मुम्बई के बाहर भी भारतीय रहते हैं. इस बात को समझने का वक़्त आ गया है. बासी होती ख़बरों में कुछ नया खोजना होगा. जिसमे सनसनी ना हो बस ख़बर हो.
बासी होती ख़बरों में कुछ नया खोजना होगा. जिसमे सनसनी ना हो बस ख़बर हो
सही कहा आपने.
परन्तु सबसे पाने बोलने का अंदाज़ बदलना होगा – उद्घोषक को.
kya aapne 20 agasta ke samachar patra dekhe? yadi dekhe hon to samajh gaye honge ki mediawale kya chhapte hain aur kyon. Jiska khaiye tooka uska gaiye geeta
बिलकुल सही कह रहे है. सारा मीडिया खरबूजा का खेत है. एक को देखकर दूसरा रंग बदल लेता है. देश में सेकड़ो पत्रकरिता के संसथान है. कम से कम न्यूज़ रिपोर्टर को कुछ तो सीख लेनी चाइये. चीख चीख कर बोलते है. यह तो सत्य है की खबरों से आम व्यक्ति तो दूर हो गए है.
आपको शाबासी तो मैं दूंगा की आपने इस प्रश्न को उठाया पर जहां तक मैं समझता हूँ इसका प्रभाव शायद ही पड़े.कारन जो लोग चंका चौंध फ़ैलाने वाले मीडिया से जुड़े हुए हैं उनको उस चका चौंध में वही दिखता है जो वे देखना चाहते हैं या वह दिखता है जिनका उनकी विचारधारा के अनुसार ज्यादा मांग है.ऐसे मेरा मानना है की अगर गाँव की दुर्दशाओं का सही विवरण पेश किया जाये तो वह कम सनसनी खेज खबर नहीं बनेगी,पर उन दुर्दशाओं को देखने के लिए गाँव जाना पडेगा और सबसे बड़ी परेशानी यही है.होरी की वास्तविक दुर्दशा दिखा कर प्रेमचंद अमर हो गए,तो कोई कारण नहीं की वह अमरत्व हमारे साहसी मीडिया कर्मी को नहीं नसीब हो,पर उसके लिए प्रेमचंद जैसा ही संघर्षों से जूझना होगा,और वैसी पैनी दृष्टिकोण वाला बनना होगा. क्या इतना आत्मविश्वास आज के मीडिया कर्मी में है?
मीडिया का कुछ नहीं हो सकता…लोग जानते हैं की वो पैसा लेकर खबरे रचता है वास्तविकता से उसे कोई लेना देना नहीं, और हाँ अगर हम देश की बात करें तो उसे इस देश से कोई सरोकार नहीं क्योंकि अधिकतर चैनल विदेशी हैं या उनमे विदेशी पैसा लगा हुआ है|
मॉस कॉम किये हुए लोग संगठित होकर नया चैनल नहीं खड़ा कर सकते क्या? क्या कोई देशी कंपनी उसमे पूंजी नहीं लगाएगी क्या? अगर स्टॉक मार्केट मैं लिस्टिंग करने के बाद तो उसे पूंजी मिल ही सकती है|
आज ये स्तिथि है कि सच्ची ख़बरों वाला एक मात्र न्यूज़ चैनल जी न्यूज़ भी (सुचना मत्री खुर्शीद से अवार्ड पाने के बाद सुभाष चन्द्र की विचारधारा परिवर्तित हो गयी ) अब सरकारी विज्ञापन के बदले अपने कंटेंट निर्धारण का अधिकार भी बेच चूका है…पुण्य प्रसून भी कंही गुम हो गए हैं |
बड़े दिनों बाद कोई देसज मुहावरे का प्रयोग देखने में आया .बारात का बसिओरा तो फिर भी हंसी -ख़ुशी रस- रंग -उमंग से ;मान -मनुहार से खाया जाता रहा है ;किन्तु आधुनिक मीडिया में सब कुछ तो नहीं किन्तु कुछ तो ऐसा है जो न तो सुपाच्य है और न ही शक्तिवर्धक .
जो राजनेतिक विचारधारा का ककहरा भी नहीं जानते वे लोक सभा स्पीकर का इंटरव्यू कुछ ऐसे लेते दीखते हैं मानों इन्ही ने माननीय अध्यक्ष /अध्यक्षा
को राजनीति शाश्त्र पढाया हो .जो लोग अर्थशाश्त्र के लेखकों का नाम भी ठीक से नहीं लिख सकते वे युवक /युवतियां वैश्विक आर्थिक मंदी और बेल आउट पैकेज पर
अधकचरा कूड़ा करकट अपने दर्शकों /श्रोताओं पे उड़ेलते हुए बीच बीच में किसी अश्लील मिमिक्री करता को घंटानाद करते हुए दिखा देते हैं
बारात में बसिऔरा – by – आशीष तिवारी
आशीष जी समझा रहे हैं कि बसिऔरा वह बचा हुआ (बारात जैसे आयोजन से) खाना है जिसे फिर से परोसा जाता है.
यह सत्य प्रतीत होता है कि इलेक्ट्रोनिक न्यूज़ चैनल, मीडिया, मीडिया पर्सन्स, बसिऔरा ही प्रसारित कर रहे हैं.
मैं मानता हूँ:
प्रथम, यह सभी, मीडिया, बिकाऊ है. मीडिया पर्सन्स generally don’t see beyond their noses; और,
दूसरा, बसिऔरा परोसते हैं.
देश की ६५% ग्रामीण जनसंख्या इनके दायरे में ही नहीं है क्योंकि देहात की खबरों से इन्हें कुछ प्राप्ती नहीं होती और न ही देहातीयोँ समाचारों से इनको प्रोफाइल मिलते.
संवाद दाता, सम्पर्की भी मालदार लोगो की ही खबर इलेक्ट्रोनिक न्यूज़ चैनलों में बैठे लोगों को पहुचाते हैं. सब पैसे का खेल हो गया है.
अमीर सड़क पर मर गया तो खबर है; गरीब का सड़क पर मरना खबर ही नहीं है.
मनमोहन जी कुछ करो भी; आप कैसा समाजवादी गणतन्त्र बना रहें हैं !