और अब देश के भावी कर्णधारों ने चलाई ‘महंगाई विरोधी मिसाईल’

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-निर्मल रानी

केवल हमारे देश में ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में महंगाई को लेकर किया जाने वाला विरोध तथा शोर-शराबा कोई नई बात नहीं है। मुंबई फिल्म उद्योग के प्रसिद्ध नायक एंव निर्देशक मनोज कुमार ने 1974 में बनाई गई अपनी एक सुपरहिट फिल्म ‘रोटी, कपड़ा और मकान’ में भी ‘महंगाई मार गई’ शीर्षक का गाना फिल्मा कर देश में बढ़ती जा रही महंगाई के प्रति अपनी गहन चिंता व्यक्त की थी। और आज एक बार फिर फिल्म निर्माता निर्देशक एवं अभिनेता आमिर ख़ां ने अपनी ‘पीपली लाईव’ नामक फिल्म में ‘महंगाई डायन खाए जात है’ शीर्षक के गाने को फिल्माकर 1974 में प्रदर्शित फिल्म रोटी,कपड़ा और मकान के गाने की याद को एक बार फिर ताजा कर दिया है। परंतु 1947 से लेकर 2010 तक की महंगाई की इस यात्रा में एक बहुत बड़ा अंतर भी सांफ दिखाई दे रहा है। महंगाई हमेशा बढ़ती चली आई है। और भविष्य में भी बढ़ती ही रहेगी। महंगाई का अर्थशास्त्र, बढ़ती जनसंख्‍या, माल की खपत तथा उत्पादन से जुड़ा हुआ है। जब भी खपत बढ़ती है तथा दूसरी ओर किसी भी वस्तु के उत्पादन में खपत के अनुपात में कमी आती है उस दौरान मूल्य वृद्धि होना एक स्वभाविक प्रक्रिया बन जाती है।

परंतु पिछले दो वर्षों के दौरान जिस प्रकार अचानक खाद्य सामग्रियों में तथा अन्य कई दैनिक उपयोगी वस्तुओं में लगभग दो गुनी मूल्यवृद्धि हुई है यह अपने आप में एक चिंता का विषय है। आश्चर्यजनक बात तो यह है कि इस समय भारतवर्ष की आर्थिक बागडोर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तथा योजना आयोग के उपाध्यक्ष एवं प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार मोंटेक सिंह आहलूवालिया जैसे विश्व प्रसिद्ध अर्थशास्त्रियों के हाथों में है। ऐसे में देश की जनता का यह सोचना बिल्कुल सही है कि ऐसे महान अर्थशास्त्रियों के हाथों में देश की अर्थव्यवस्था का नियंत्रण होते हुए महंगाई पर भी यथाशीघ्र लगाम लग जानी चाहिए। और तमाम खाद्य सामग्रियों में हुई अचानक लगभग दो गुणा मूल्यवृद्धि यथाशीघ्र वापस आ जानी चाहिए। परंतु न तो जनता की आकांक्षाओं के अनुरूप ऐसा हो पा रहा है और न ही भविष्य में ऐसी कोई उम्‍मीद दिखाई दे रही है। बजाए इसके घुमा-फिरा कर सरकार को जिम्‍मेदार मंत्रीगण व अधिकारीगण आम लोगों को यही समझाने का प्रयास करने में जुटे हैं कि अब तो किसी भी तरह से इसी मंहगाई के हालात में ही जीने की आदत डाल ली जानी चाहिए।

आसमान छूती इस महंगाई से अब हमारे देश का के वल कमाऊ वर्ग ही चिंतित नहीं है बल्कि इस विषय पर आमतौर पर बेंफिक्र रहने वाला युवा एवं छात्र वर्ग भी अब इस महंगाई के चलते अपने भविष्य को लेकर भी चिंतित दिखाई दे रहा है। देश के भावी कर्णधार इन छात्रों ने अपनी इस चिंता तथा महंगाई के कारण उनमें उपजे आक्रोश का जबरदस्त प्रदर्शन पिछले दिनों कोलकाता में उस समय किया जबकि प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार व योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह आहलूवालिया कोलकाता के प्रेसिडेंसी कॉलेज में अर्थशास्त्र पर आयोजित एक राष्ट्रीय सेमिनार में छात्रों को मु य अतिथि के रूप में संबोधित करने गए हुए थे। पहले तो इन छात्रों ने आहलूवालिया के विरुद्ध वापस जाओ के नारे लगाए तथा उनके विरुद्ध लिखे गए नारों की तख्तियां उन्हें दिखाए। फिर इन छात्रों ने उन्हें काला झंडा दिखाया। परंतु महंगाई से त्रस्त इन छात्रों का आक्रोश यहीं समाप्त नहीं हुआ। देश के इन भावी कर्णधारों ने अंत में आहलूवालिया पर अंडों व टमाटरों की बौछार कर दी। जाहिर है इस समय टमाटर 50 रुपये किलो तथा अंडा भी लगभग 40 रुपये दर्जन के भाव से मिल रहा है। ऐसे में इस खबर पर नार रखने वालों को यह चिंता भी सताने लगी कि आखिर मंहगाई विरोधी इस प्रदर्शन में छात्रों ने इतनी मंहगी खाद्य सामग्री का प्रयोग क्यों और किस प्रकार किया। खोजी खबरचियों को बाद में इस हंकींकत का यह पता चला कि आहलूवालिया पर फेंके गए अंडे व टमाटर सडे हुए थे जो छात्रों द्वारा कूड़े के ढेर से उठाकर लाए गए थे। तथा यह भी पता चला कि छात्रों ने खाद्य सामग्रियों की बढ़ती कीमतों के विरोध में खाद्य सामग्री का ही प्रयोग करना उचित समझा।

इसमें कोई संदेह नहीं कि देश के प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार रूपी इतने बड़े उच्चाधिकारी एवं महान अर्थ शास्त्री के विरुद्ध देश के भावी कर्णधारों द्वारा किया जाने वाला इस प्रकार का अनूठा प्रदर्शन अपने आप में पहला प्रदर्शन है। इस प्रदर्शन में प्रयुक्त सड़े अंडे व टमाटरों को मात्र अंडा या टमाटर समझकर इसे रोजमर्रा के होने वाले सरकार विरोधी प्रदर्शनों में शामिल करना भी हमारे राजनीतिज्ञों की एक बड़ी भूल होगी। हंकींकत में देश के भावी कर्णधारों द्वारा फेंका गया यह एक-एक अंडा व टमाटर एक-एक मिसाईल जैसी शक्ति रखता है। क्योंकि यह ‘हमला’ देश के वर्तमान कर्णधार पर देश के भावी कर्णधारों द्वारा किया गया है। संदेश बिल्कुल सांफ है कि -‘या तो तुम अर्थशास्त्री नहीं या तु हारा अर्थशास्त्र मंहगाई रोक पाने में नाकाम साबित हो रहा है और या फिर तु हें इस बेतहाशा बढ़ती जा रही मूल्यवृध्दि को रोकने में कोई दिलचस्पी नहीं। और इन तीनों ही हालात में तु हें कोई हंक नहीं कि तुम अर्थशास्त्र पर आयोजित राष्ट्रीय सेमिनार में अपना मंहगाई बढ़ाने वाला अर्थशास्त्र झाड़ो और हम उसे बैठकर सुनें’।

यहां यह कहना भी गलत नहीं होगा कि देश के भावी कर्णधारों का कोलकाता में आहलूवालिया के विरुद्ध प्रकट किया गया यह आक्रोश सीधे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को छात्रों द्वारा भेजा गया एक गंभीर व आक्रोश पूर्ण संदेश था। कोई आश्चर्य नहीं कि यदि प्रधानमंत्री स्वयं भी उन छात्रों की पहुंच के दायरे में होते तो उनके साथ भी यह घटना घट सकती थी। वैसे भी प्रधानमंत्री को यही महसूस करना चाहिए कि यह आक्रोश उनके विरुद्ध ही व्यक्त किया गया है, व्यक्तिगत रूप से आहलूवालिया के विरुद्ध नहीं । क्योंकि आखिरकार मनमोहन सिंह विश्व बैंक के वरिष्ठ अधिकारी होने से लेकर भारत के वित्तमंत्री एवं प्रधानमंत्री होने तक आहलूवालिया के वरिष्ठ अधिकारी के रूप में ही हमेशा रहे हैं। और वर्तमान में भी आहलूवालिया उनके सलाहकार मात्र ही हैं। योजना आयोग के अध्यक्ष का पद भी प्रधानमंत्री के नाते डा0 मनमोहन सिंह के पास ही है। अत: अप्रत्यक्ष रूप से यह आक्रोश प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के विरुद्ध व्यक्त किया गया आक्र ोश ही समझा जाना चाहिए।

पिछले दिनों दिल्ली में मंहगाई को लेकर मुख्‍यमंत्रियों का एक सम्‍मेलन बुलाया गया था। इस स मेलन में राज्‍य सरकारों से भी मंहगाई दूर करने के उपाय लागू करने को कहा गया था। इन उपायों में जमाखोरी तथा मुनाफाखोरी पर लगाम लगाने की बात हुई थी। परंतु देश की राज्‍य सरकारें भी इस दिशा में कोई कारगर कदम उठा पाने में नाकाम दिखाई दे रही हैं। गैर कांग्रेसी सरकारों को क्या दोष देना स्वयं कांग्रेस शासित राज्‍यों की सरकारें भी जमांखोरी,मुनांफांखोरी तथा मंहगाई पर लगाम लगा पाने में असमर्थ हैं। गैर कांग्रेसी राज्‍यों की सरकारें तो मानों बढ़ती मंहगाई को कांग्रेस के विरुद्ध भावी चुनावों में एक कारगर हथियार के रूप में प्रयोग किए जाने की तैयारी में जुटी हैं। गुजरात में मंहगाई कम करने के उपाय सुनिश्चित करने के बजाए गुजराती भाईयों को यह समझाने का प्रयास किया जा रहा है कि केंद्र सरकार गुजरातियों के स्वाभिमान को ठेस पहुंचाने तथा गुजरातियों को अपमानित करने में लगी हुई है तो दूसरी ओर बिहार में अल्पसं यक वोटों को हासिल करने के लिए राज्‍य के राजनीतिज्ञों द्वारा तरह-तरह के हथकंडे अपनाए जा रहे हैं। उधर उत्तर प्रदेश में जरूरी चीजों के दाम कम करने की कोशिश करने के बजाए शहरों व जिलों के नाम बदलने की राजनीति की जा रही है। बहन मायावती यही समझती हैं कि शहरों के नाम बदलने व जरूरी वस्तुओं के दाम बढ़ने की स्थिति में ही उन्हें फायदा पहुंचेगा। राजस्थान में लड़ाई इस बात को लेकर छिड़ी है कि मनरेगा की मलाई कौन खाए? सरकारी अधिकारी या सरपंच या फिर नेतागण? दिल्ली सरकार राष्ट्रमंडल खेलों में मची बंदरबांट से इस कद्र जूझ रही है कि शायद कुदरत को भी यह पसंद नहीं आया और उसने राष्ट्रमंडल खेलों से ठीक पहले न सिंर्फ दिल्ली को बाढ़ से परेशान कर दिया बल्कि डेंगू जैसी जानलेवा बीमारी ने भी इन्हीं दिनों दिल्ली को अपनी चपेट में ले लिया है। जाहिर है इन सबके बीच मंहगाई से निपटने के बारे में तो दिल्ली सरकार सोच भी नहीं सकती। आंध्र प्रदेश में मंहगाई से अधिक बड़ा मुद्दा यह बना हुआ है कि राज्‍य का मु यमंत्री कौन रहे रोसैया या जगन मोहन रेड्डी? वहां भी मंहगाई जैसा प्रथम बिंदु पर रहने वाला विषय सत्ता संघर्ष के चलते न जाने कितनी पीछे चला गया है। कमोबेश कुछ ऐसे ही हालात देश के सभी राज्‍यों के हैं। ऐसे में देश के छात्ररूपी भावी कर्णधारों के समक्ष बस एक और आंखिरी उपाय यही रह गया है कि वे अपने विरोध प्रदर्शन का हथियार स्वयं तलाश करें तथा ‘मिसाईल’ के रूप में इनका प्रयोग उन नेताओं व अधिकारियों के विरुद्ध करें जोकि देश की जनता को इधर-उधर की बातों में लगाकर आम जनता का ध्यान मंहगाई जैसे सबसे जरूरी मुद्दे की ओर से बांटना चाहते हैं। इस घटना को मंहगाई के विरुद्ध छात्रों के रोष प्रदर्शन की एक शुरुआत मानी जानी चाहिए तथा इस विषय से मुंह मोड़ने वाले देश के सभी नेताओं को भविष्य में होने वाले ऐसे ‘मिसाईल रूपी’ प्रदर्शनों का सामना करने हेतु स्वयं को तैयार रखना चाहिए।

5 COMMENTS

  1. शायद वो अंगडाई फिर वापस आ जाये जो वीरों ने ली थी इस देश को आजाद करने के लिए , नहीं तो यहाँ तो बहुतेरे अपनी दुकान लगाये रोटी सेंक रहे हैं

  2. “और अब देश के भावी कर्णधारों ने चलाई ‘महंगाई विरोधी मिसाईल’”
    -by- निर्मल रानी

    १. ७० – ७० की आयु के वरिष्ट अर्थशास्त्री संभवत: यह मान कर चल रहें हैं कि बढ़ती कीमतें आर्थिक प्रगति का सूचक हैं.

    यदि कीमतें नहीं बढ़ती रहीं तो, उत्पादन से लाभ कम होने के कारण, उत्पादन उतना तेज़ी से नहीं होगा. इस सोच का एक आर्थिक उत्तर देना होगा.

    प्रगति भी हो पर मामूली मूल्य वृद्धि के साथ.

    २. गंदे, सड़े टमाटर अंडे का इसी तरह तीव्रता से प्रयोग करें, देश में बहुत गंदगी है.

    ३. युवा ऊपर के प्रोग्राम के साथ कुछ रच्नाम्तिक सुझाव प्रदान करें की कीमतें कैसे तुरंत बढ़ने से रुकें.

    ४. मिसाइल छोड़ने के साथ-साथ कुछ जादू सा हो जावे.
    AMEN !

  3. आदरणीय निर्मल जी ने सही लिखा है.
    यह अच्छी खबर है की छात्रों ने महंगाई के विरुद्ध आवाज उठाई है. वैसे बहुत से छात्र आन्दोलन अक्सर राजनीति से प्रेरित और पोषित होते है.

    महंगाई तो बढ़ी है किन्तु लगभग दोगुनी वाकई चिंता का विषय है. देश में अनाज सड रहा है, कुछ प्राकृतिक विपदा भी आई है किन्तु फिर भी औसत उत्पादन हर साल बढ़ रहा है. फिर भी महंगाई – बहुत बड़ा सढ़यन्त्र है. क्या सरकार पिछला और अगला चुनाव का खर्चा एक तो साल में है वसूल कर लेना चाहती है.

    हमारे देश का दुर्भाग्य है की आज के निति निर्माता बहुत उच्च (आर्थिक) वर्ग से होते है. बहुत से इतने सभ्य (उच्छ, अति उच्छ शिक्षित) होते है की उन्हें पता ही नहीं होता है की गुड, तेल – बोतल में आते है की डिब्बे में.

    भ्रष्टाचार मिटे तो समस्या लगभग पूरी ख़त्म हो जायेगी. किन्तु आज भ्रष्टाचार तो कर्मचारिओं का संवैधानिक अधिकार हो गया है. सभी गर्व से बोलते है की हिस्सा ऊपर तक जाता है. गरीब मिट जाएगा किन्तु महंगाई नहीं मिटेगी.

  4. आदरणीय निर्मल जी ने सही लिखा है.
    यह अच्छी खबर है की छात्रों ने महंगाई के विरुद्ध आवाज उठाई है. वैसे बहुत से छात्र आन्दोलन अक्सर राजनीति से प्रेरित और पोषित होते है.

    महंगाई तो बढ़ी है किन्तु लगभग दोगुनी वाकई चिंता का विषय है. देश में अनाज सड रहा है, कुछ प्राकृतिक विपदा भी आई है किन्तु फिर भी औसत उत्पादन हर साल बढ़ रहा है. फिर भी महंगाई – बहुत बड़ा सढ़यन्त्र है. क्या सरकार पिछला और अगला चुनाव का खर्चा एक तो साल में है वसूल कर लेना चाहती है.

    हमारे देश का दुर्भाग्य है की आज के निति निर्माता बहुत उच्च (आर्थिक) वर्ग से होते है. बहुत से इतने सभ्य (उच्छ, अति उच्छ शिक्षित) होते है की उन्हें पता ही नहीं होता है की गुड, तेल – बोतल में आते है की डिब्बे में. दिन भर में ये जितने का बोतले बंद पानी पी जाते है उतने पैसे से गरीब का पूरा परिवार चार दिन खाना खा सकता सकता है.

    भ्रष्टाचार मिटे तो समस्या लगभग पूरी ख़त्म हो जायेगी. किन्तु आज भ्रष्टाचार तो कर्मचारिओं का संवैधानिक अधिकार हो गया है. सभी गर्व से बोलते है की हिस्सा ऊपर तक जाता है. गरीब मिट जाएगा किन्तु महंगाई नहीं मिटेगी.

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