शुरुआत में ही बड़ी चुनौती
अमित शाह की दूसरी पारी में कड़ी परीक्षा के साथ शुरू होगी…क्योंकि इस साल मई- जून में पांच राज्यों (पश्चिम बंगाल, असम, तमिलनाडु, केरल और पुडुचेरी) में विधानसभा चुनाव होने हैं । हाल के विधानसभा चुनावों के नतीजे पार्टी के लिए अच्छे नहीं रहे हैं । सरकार को लेकर भी पहले जैसा जोश नहीं है..जिन राज्यों में चुनाव हैं वहां बीजेपी का मजबूत आधार नही रहा है इसलिए शाह के लिए चुनौतियां पहले से ज्यादा गंभीर हैं । इन राज्यों में बीजेपी के लिए सत्ता में आना तो दूर की बात है, अगर बीजेपी अपनी सीटों में ठीक ठाक इजाफा कर ले तो पार्टी के लिए यही बडी कामयाबी होगी ।
जम्मू कश्मीर में सरकार बचाना
मुफ्ती मोहम्मद सईद के रहते बीजेपी ने उनसे समझौता कर लिया था…इस वजह से जम्मू कश्मीर में गठबंधन सरकार बन गई थी । लेकिन अब महबूबा मुफ्ती गठबंधन सरकार को जारी रखने और सीएम पद की शपथ लेने पर चुप्पी साधे हुई हैं…मुफ्ती के निधन के इतने दिनों बाद भी सरकार न बनने पर कई सवाल उठ रहे हैं । ऐसे में अमित शाह के सामने भी ये सवाल हैं कि आखिर जम्मू कश्मीर में क्या महबूबा मुफ्ती को हर कीमत पर समर्थन जारी रखा जाए या उन पर दबाव डालने के लिए डिप्टी सीएम का कार्ड खेला जाए । अगर महबूबा राजी नहीं होती तो क्या बीजेपी किसी दूसरी पार्टी से हाथ मिलाकर सरकार बनाने की कोशिश करेगी या विपक्ष में बैठने को तैयार होगी । अमित शाह के लिए ये फिलहाल माथापच्ची का सवाल होगा ।
2017 में मिशन यूपी
लोकसभा चुनाव में यूपी में शाह अपना जादू चला चुके हैं..लेकिन 2017 उनके लिए चुनौतियों भरा होगा । तमाम छोटे बडे दल, वोट बैंक की राजनीति, विकास के वादों पर खरा उतरना, राम नाम की राजनीति, और हिंदुत्व के मुद्दे को कैसे साधेंगे । इन तमाम पहलुओं को ध्यान में रखते हुए उत्तर प्रदेश के चुनाव शाह के लिए असली परीक्षा साबित होंगे । देखना होगा कि शाह किस तरह से यूपी विधानसभा चुनाव के लिए रणनीतियां बनाते हैं..यूपी के साथ 2017 में पंजाब, उत्तराखंड, मणिपुर में भी चुनाव हैं । पंजाब में अकाली दल की हालत कमजोर होती जा रही है । वहां आमआदमी पार्टी के साथ साथ कांग्रेस की हवा बन रही है । ऐसे में शाह कैसे कमल खिला पाएंगे ये एक चुनौती भरा टास्क होगा । 2017 में हिमाचल, गुजरात और कर्नाटक में भी चुनाव होने हैं । यानि शाह के लिए व्यस्तताओं और चुनौतियों भरा साल रहने वाला है ।
विरोध के स्वरों को दबाना
बिहार में हार पर पार्टी के भीतर कई विरोध सुर उठे । मार्गदर्शक मंडल के नेताओं ने बिहार हार पर पार्टी को सबक लेने की नसीहत दे डाली तो शत्रुघ्न सिन्हा, आरके सिंह जैसे कई नेता खुलकर पार्टी लाइन के खिलाफ बोले । जेटली के मुद्दे पर कीर्ती आजाद ने बगावत की तो उन्हें सस्पेंड कर दिया । इसके बावजूद शाह चुप रहे क्योंकि बिहार की हार ने पार्टी के भीतर विरोधियों को बोलने का मौका दे दिया था । अब अगर किसी राज्य में बीजेपी का बड़ी हार होती है तो ये तमाम आवाजें उनके विरोध में पार्टी के भीतर उठनी शुरू हो जाएंगी । ऐसे में अमित शाह सबको साथ लेकर सबको शांत रखने के लिए क्या करेंगे ये देखना होगा ।
संघ, सरकार और संतुलन
अमित शाह ने निसंदेह बीजेपी को दुनिया की सबसे बडी राजनीतिक पार्टी बनाकर रख दिया है, लेकिन इस दौरान सरकार और पार्टी के बीच संतुलन कहीं गड़बड़ाता रहा । सरकार में संघ का दखल बढ़ता गया । अगर आगे भी संघ का दखल बढ़े तो क्या ऐसे में अमित शाह पार्टी के हार्डकोर कार्यकर्ताओं को संतुष्ट रख पाएंगे? जाहिर तौर पर अमित शाह को एक संतुलन बनाकर चलना होगा कि पार्टी और आरएसएस का सरकार पर सीमित दखल हो., लेकिन ये भी देखना होगा कि सरकार के कामों के प्रचार की जिम्मेदारी भी पार्टी और आरएसएस अच्छी तरह से निभा सकें ।
मार्गदर्शक न हों उदास
बिहार चुनाव के बाद मार्गदर्शक मंडल ने बीजेपी की नीतियों पर कई सवाल उठाए थे । अगर आगे भी अमित शाह को पराजय मिलती है तो मार्गदर्शक मंडल और भी सक्रिय हो जाएगा । दूसरी पारी के लिए अमित शाह की ताजपोशी के वक्त आडवाणी वहां मौजूद नहीं थे इसे भी खराब संकेतों के तौर पर देख जा रहा है । लिहाजा अमित शाह को यह भी तय करना होगा कि उन्हें बड़ों के मार्गदर्शन को गंभीरता से लेना चाहिए ।
पंकज कुमार नैथानी