विविधा

खुलेआम भ्रष्टाचार… मौन तोड़ो!

-सुनील अम्बेकर

एक बालक ने बड़ी उत्सुकता से किसी से पूछा- ‘यह 2जी क्या होता है?’ उसने भी सारी तकनीकी जानकारी तथा इससे होने वाले फायदे गिनाने शुरू किये। तभी बालक ने कहा- ‘मैंने तो सुना है कि यह पैसे कमाने की कोई नयी तकनीक आयी है जिसमें राजा नाम का कोई व्यक्ति काफी कुशल है।‘ नयी पीढ़ी को शिक्षा विद्यालय से जितनी मिलती है, उतनी ही समाज में होने वाली घटनाओं से भी प्राप्त होती है।

विज्ञान और तकनीकी की निरंतर प्रगति हमारे जीवन को सुगम बना रही है। परंतु इस तकनीकी से देशवासियों का कैसे भला हो, यह सोचने का दायित्व जिनके पास है, ऐसे लोगों की नजर भ्रष्टाचार की नयी तकनीक खोजने पर लगी है। 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाला जिस बेशर्मी से किया गया है वह काफी आश्चर्यजनक है। जैसे- जैसे इसकी नयी-नयी जानकारियों का खुलासा हो रहा है, स्पष्ट हो रहा है कि ट्राई जैसी विभिन्न संस्थाओं द्वारा आपत्ति जताने पर भी उन्हें धता बताते हुए तत्कालीन मंत्री राजा ने सारे निर्णय स्वयं लिये हैं। प्रधानमंत्री की चुप्पी से सारा देश स्तब्ध रह गया है।

देश की सर्वोच्च अदालत के कारण सरकार कुछ झुकी व राजा को जाना पड़ा। अभी भी केन्द्र सरकार में यूपीए गठबंधन की राजनीति इस कदर हावी है कि देश की सुरक्षा एवं हितों के साथ समझौते करने पर भी सरकार तैयार दिख रही है। जहां वर्ष 2001 में एम एस बी (मोबाइल सब्सक्राइबर बेस) 40 लाख था, 2008 में वह 35 करोड़ हो चुका है। सामान्य व्यक्ति भी समझ सकता है कि स्पेक्ट्रम लाइसेन्स का प्रवेश शुल्क 2001 की तुलना में 2008 में अधिक होना ही चाहिये। लेकिन 2001 को आधार बना कर ही सारा व्यवहार किया गया।

छोटे से काम में भी टेंडर या नीलाम की पद्धति आवश्यक होती है परंतु 2 जी (दूसरी पीढ़ी) की तकनीक के मामले में यह सब दरकिनार कर भ्रष्टाचार का रास्ता अपनाया गया। पहले आओ- पहले पाओ को आधार बनाया गया, आवेदन की अंतिम तिथि से पहले ही आवेदन अधिक आ गये हैं, यह कह कर नये आवेदन स्वीकार करना बंद कर दिया गया। फिर पुरानी दर पर लाइसेन्स देकर कुछ चुनिंदा कंपनियों को लाभ पहुंचाया गया। कैग(भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक) की रिपोर्ट के अनुसार सरकार को चालू बाजार दर के आधार पर लगभग 1.76 लाख करोड़ रुपये का घाटा हुआ।

यह सब प्रधानमंत्री कार्यालय के ध्यान में था, फिर भी वह चुप रहा। उसका इस घोटाले से कोई सीधा आर्थिक संबंध था अथवा नहीं, यह तो जांच होने पर ही पता लगेगा, परंतु यह बात बिल्कुल साफ है कि अपनी कुर्सी बनाये रखने के लिये राष्ट्रीय हित के साथ समझौता किया गया। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह घोटाले की इस प्रक्रिया अथवा बाजार की परिस्थिति को समझ नहीं सके, यह स्वीकार करना असंभव है। सारा देश जानता है कि वह अर्थशास्त्री हैं तथा आधुनिक बाजार की गतिविधियों के समर्थक ही नहीं, ज्ञाता भी हैं।

इस सारे घटनाक्रम ने देश के लोगों में भ्रम से भी ज्यादा भय एवं अविश्वास उत्पन्न किया है। जिस स्वान कंपनी को रु. 1537 करोड़ में लाइसेन्स मिला, उसने तुरंत ही अपने 45 प्रतिशत अधिकार इटिसलर कंपनी को 4200 करोड़ रुपये में तथा यूनिटेक वायरलेस, जिसे 1661 करोड़ में लाइसेन्स मिला उसने अपने 60 प्रतिशत अधिकार 6200 करोड़ रुपये में बेच दिये। एक तरफ केवल दो कम्पनियों के आधे हिस्से को ही 10 हजार करोड़ से अधिक कीमत प्राप्त हो रही है वहीं दूसरी ओर सभी 9 लायसेन्स पाने वाली कम्पनियों ने मिलकर केवल 10,722 करोड़ रुपये दूरसंचार विभाग को दिये।

किसी मंत्री ने भ्रष्टाचार किया और उसे हटाया गया, इतनी सीमित दृष्टि से इस मामले को नहीं देखा जाना चाहिये। इतने बड़े घोटाले के बावजूद एक बड़ा तंत्र प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की भोला-भाला नेकदिल इन्सान तथा श्रीमती सोनिया गांधी की गरीबों की मसीहा की छवि को कोई चोट न पहुंचे, इस प्रयास में लगा है। समाचार माध्यमों और उनसे जुड़े बड़े पत्रकारों की संलिप्तता का पर्दाफाश भी इस प्रकरण में हुआ है। बरखा दत्त और वीर संघवी जैसे पत्रकारों का असली चेहरा समाज के सामने आया है। नीरा राडिया के साथ उनके संवाद की जो टेप आयी हैं उनसे साफ है कि बड़ी कंपनियों के आर्थिक हितों के लिये राजा को मंत्री बनाने में वह कितनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे थे। भ्रष्टाचारी कम्पनियों, राजनेताओं व पत्रकारों की यह तिकड़ी मिलकर जनता का शोषण कर रही है, यह दुर्भाग्यपूर्ण है।

(लेखक अभाविप के राष्ट्रीय संगठन मंत्री हैं।)