जनता को विचारधारा से नहीं, विकास से मतलब

नीरज कुमार दुबे

राष्ट्रीय राजनीति में तीसरे मोर्चे की अगुवाई करती रही मार्क्‍सवादी कम्युनिस्ट पार्टी पिछले माह तक तीन राज्यों में सत्ता के बलबूते राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्यों और मुद्दों को प्रभावित करने की क्षमता रखती थी लेकिन पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में उसे दो राज्यों से हाथ धोना पड़ा और वह अपने इतिहास के सबसे बुरे दौर में पहुंच गई। यह सदमा माकपा को लंबे समय तक सालता रहेगा क्योंकि हाल फिलहाल कोई ऐसा मौका नहीं है जब उसे उबरने का मौका मिल सके। पिछले 34 वर्षों से वाम मोर्चा के किले के रूप में विख्यात पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की आंधी में वाम किले का भरभरा कर ढहना साबित करता है कि जनता में उनके खिलाफ कितना आक्रोश व्याप्त था। इस बात को कमतर नहीं आंका जाना चाहिए कि पश्चिम बंगाल में माकपा को सीटों की संख्या के मामले में सिर्फ तृणमूल कांग्रेस ही नहीं बल्कि उसकी सहयोगी कांग्रेस ने भी पीछे छोड़ दिया है।

दो राज्यों में माकपा की पराजय से हालांकि यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि वाम विचारधारा के अंत की शुरुआत हो चुकी है लेकिन यदि पांचों राज्यों के विधानसभा चुनाव और पिछले कुछ चुनावों के परिणामों पर गौर किया जाये तो यही सार निकलता है कि जनता का आज किसी खास विचारधारा के प्रति झुकाव नहीं रह गया है वह सिर्फ काम को पसंद करती है और जो भी दल काम करता है उसे वह सिर आंखों पर बैठाती है। यदि हम खुद माकपा महासचिव प्रकाश करात के पिछले साल कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में दिए गए संबोधन, जिसमें उन्होंने कहा था कि वामपंथ आधुनिक परिवेश में प्रासंगिक नहीं रहा और उसके सिद्धांत वक्त की कसौटी पर खरे उतर नहीं पा रहे हैं तथा विचारधारा के स्तर पर भारत में वामपंथी पार्टियां अभी भी 1940 के दशक में ही हैं, पर गौर करें तो साफ प्रतीत होता है कि अपनी पार्टी के लिए ‘चाणक्य’ माने जाने वाले करात शायद भविष्य पहले देख चुके थे लेकिन फिर भी वह पार्टी का भविष्य बदल नहीं पाए।

माकपा ने हालांकि चुनावी हार के कारणों के विश्लेषण का काम नतीजे आने के तुरंत बाद ही शुरू कर दिया था लेकिन यह जगजाहिर है कि इसके लिए पार्टी महासचिव प्रकाश करात सर्वाधिक जिम्मेदार हैं। पिछले साल हुए विकीलीक्स खुलासों में अमेरिकी राजनयिक के 7 नवंबर 2007 के केबल संदशों का हवाला देते हुए अमेरिका की नजर में मार्क्‍सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव प्रकाश करात को ‘जोर जबरदस्ती करके काम कराने वाला’ और ‘धन उगाही करने वाला नेता’ बताया गया था तो माकपा की भौहें तन गई थीं लेकिन उसे शायद तब समझ नहीं आया कि उन्होंने हरकिशन सिंह सुरजीत की जगह जिसको महासचिव बनाया है वह गलती दर गलती किये जा रहा है। यदि अमेरिका से असैन्य परमाणु करार के दौरान माकपा ने तल्खी नहीं दिखाई होती, कांग्रेस से संबंध नहीं बिगाड़े होते, सोमनाथ चटर्जी को पार्टी से निष्कासित नहीं किया होता और पश्चिम बंगाल में लोकसभा चुनावों में हार के बाद यदि वहां गलतियां सुधारने के प्रयास तेजी से किये होते तो आज माकपा शायद इतनी कमजोर नहीं होती।

पार्टी की हार के लिए प्रकाश करात की सर्वाधिक जिम्मेदारी सिर्फ इसलिए नहीं है कि वह पार्टी का नेतृत्व कर रहे थे बल्कि इसलिए भी है कि उन्होंने हर निर्णय पार्टी पर कथित रूप से थोपा भी। इसके अलावा उन्होंने पार्टी में गुटबाजी को भी हवा दी। करात की पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुध्ददेव भट्टाचार्य और केरल के मुख्यमंत्री वीएस अच्युतानंदन से कभी नहीं बनी। केरल में तो करात ने राज्य पार्टी महासचिव पी. विजयन को अच्युतानंदन के खिलाफ माहौल बनाने के लिए अप्रत्यक्ष रूप से हवा भी दी। जब अच्युतानंदन ने विजयन के आरोपों का जवाब दिया तो उन्हें पोलित ब्यूरो से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। करात की चलती तो वह अच्युतानंदन को पिछली बार ही नहीं बल्कि इस बार भी विधानसभा का टिकट नहीं देते जबकि अच्युतानंदन की साफ छवि और उनके द्वारा किये गये कार्यों की बदौलत ही माकपा केरल में बुरी हार से बच पाई। वरिष्ठ नेता ज्योति बसु, जिन्होंने पश्चिम बंगाल को माकपा के गढ़ के रूप में निर्मित किया था उन्होंने कभी सोचा भी नहीं होगा कि उनके राज्य में पार्टी की कभी ऐसी बुरी गति भी होगी, अच्छा हुआ कि उन्हें यह दिन अपने जीवनकाल में देखने को नहीं मिला।

वर्तमान में माकपा की सबसे बड़ी कमजोरी बन चुके करात को दंभी नेता माना जाता है। यदि ऐसा है तो आखिर उन्हें दंभ किस बात का है? सबने देखा कि संप्रग-1 सरकार के दौरान जब वामदल उसके सहयोगी थे तो किसी विषय पर मनमुटाव होने पर करात प्रधानमंत्री या सोनिया गांधी से ही बात करना पसंद करते थे ना कि उनके किसी प्रतिनिधि से। देखा जाए तो करात के पार्टी की कमान संभालने के बाद से लगातार माकपा का आधार घटा ही है। उत्तार भारत में पार्टी पहले से ही कमजोर थी और यह कमजोरी बरकरार रही। केरल, पश्चिम बंगाल में पार्टी पंचायत चुनाव हों या विधानसभा उपचुनाव, निकाय चुनाव हों या लोकसभा चुनाव, सभी में बुरी तरह हारी और अब विधानसभा चुनावों में हार के बाद पार्टी को अगले वर्ष राज्यसभा चुनावों के दौरान भी झटका लगेगा जब उसके कई सदस्य रिटायर होंगे और उनके पुनर्निर्वाचन के कोई आसार नहीं हैं। पार्टी के कई ऐसे नेता हैं जिन्हें थिंक टैंक माना जाता है और वह दिल्ली में पार्टी के राज्यसभा सांसदों के यहां ही डेरा जमाए हुए हैं अब उन्हें भी नया ठिकाना ढूंढना होगा। यही नहीं सीताराम केसरी की राज्यसभा सदस्यता समाप्त होते ही पार्टी का 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाले की जांच कर रही संयुक्त संसदीय समिति में से प्रतिनिधित्व भी खत्म हो जाएगा।

चुनावी हार के बाद अब माकपा यह भले कह रही हो कि राज्य की जनता ने परिवर्तन के लिए वोट दिया और इसका फायदा तृणमूल नेता ममता बनर्जी को मिला। लेकिन उन्हें यह बताना चाहिए कि राज्य की जनता को आखिरकार परिवर्तन की जरूरत क्यों महसूस हुई? केंद्र की ओर से भरपूर मदद के बावजूद उसका फायदा सिर्फ पार्टी कार्यकर्ताओं को ही दिया गया। राज्य के कई इलाके आज भी बदहाली के हालात से गुजर रहे हैं, हजारों गांवों में बिजली नहीं है, रोजगार का अभाव है, खुद सत्तारुढ़ पार्टी की ओर से समय समय पर आहूत हड़तालों और बंद के चलते उद्योगों का विश्वास डिगा हुआ है, स्वास्थ्य सेवाओं का बुरा हाल है, कानून व्यवस्था के मोर्चे पर केंद्रीय गृह मंत्रालय राज्य में सबसे खराब हालात की बात करता रहा है, माओवादियों पर पार पाने में सरकार की विफलता रही, दशकों पुराने गोरखालैंड मुद्दे का हल नहीं हो पाया, सिर्फ कोलकाता की चकाचौंध और बरसों पुरानी मेट्रो की बदौलत ही आखिरकार कब तक राइटर्स बिल्डिंग पर लाल रंग का कब्जा रहता। जनता को परिवर्तन तो करना ही था उसने किया और उस उसी की प्रतिध्वनि अब माकपा के कानों में गूंज रही है।

लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि माकपा नेतृत्व अभी भी वास्तविकता से दूर भाग रहा है क्योंकि रस्सी जल गई पर बल नहीं गये, कहावत एक बार फिर तब चरितार्थ हुई जब माकपा ने यह कहा कि हमारी हार हुई है, लेकिन यह कहना गलत है कि हमारा सफाया हो गया है। एक ही राज्य में 173 सीटों के नुकसान को यदि सफाया नहीं कहा जाए तो क्या कहा जाए यह बात माकपा नेतृत्व को बतानी चाहिए। पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने सही ही कहा है कि माकपा का प्रदर्शन इसलिए खराब रहा क्योंकि पश्चिम बंगाल में वह लोगों से कट गई थी और लोगों का मूड भांपने में विफल रही। अब भाकपा महासचिव एबी वर्धन भी कह रहे हैं कि वाम नेताओं को अपना रवैया बदलना चाहिए नहीं तो राजनीति से बाहर होने के लिए तैयार रहना चाहिए। यह वही वर्धन हैं जोकि परमाणु करार के समय कांग्रेस पर दबाव बनाते हुए संप्रग सरकार की कुछ घंटों की ही गारंटी दे रहे थे। उम्मीद की जानी चाहिए कि वाम नेता इस हार से सबक लेंगे और अपने बड़बोलेपन पर रोक लगाएंगे।

यकीनन सिंगूर और नंदीग्राम पश्चिम बंगाल सरकार की दो बड़ी गलतियां थीं जिन्हें यदि समय पर ठीक कर लिया गया होता तो पार्टी की ऐसी स्थिति नहीं होती। लेकिन माकपा बंगाल को अपने अभेध गढ़ के रूप में मानती थी और यह मानकर चलती थी कि कोई इसे भेद नहीं सकता लेकिन पिछले वर्ष निकाय चुनावों और उससे पहले लोकसभा चुनावों में माकपा नीत वाम मोर्चा की हार के बाद यदि पार्टी नेतृत्व चेत जाता तो राजनीतिक रूप से इस बड़े नुकसान से बच सकता था। माकपा नेतृत्व पिछले कुछ समय में मिली हर हार के बाद उसकी समीक्षा का दावा करता रहा लेकिन समीक्षा यदि सही ढंग से की ही नहीं गई। लोकसभा चुनावों में हार के बाद जब माकपा पोलित ब्यूरो की बैठक हुई थी तब भी उसमें सिर्फ खानापूर्ति ही की गई और पार्टी की ओर से बयान दिया गया कि पार्टी की सफलता और पराजय, दोनों के ही लिए सामूहिक जवाबदेही के सिद्धांत को मानते हुए प्रकाश करात को ही दोषी नहीं ठहराया जा सकता और वह पद पर बने रहेंगे।

वामपंथियों को सिद्धांतवादी मानने वालों के लिए वह झटके का ही समय था जब उन्होंने देखा कि भ्रष्टाचार को कांग्रेस की नीति का हिस्सा बताते वाले और परिवारवाद मुद्दे पर कांग्रेस सहित अन्य दलों पर प्रहार करते रहे करात को जयललिता से गठबंधन के समय भ्रष्टाचार मुद्दा नहीं सालता और दूसरे दलों पर परिवारवाद का आरोप लगाते समय क्यों वह अपने गिरेबां में नहीं झांकते। सब जानते हैं कि वह जहां पार्टी महासचिव हैं वहीं उनकी पत्नी वृंदा करात राज्यसभा की सदस्य। यह सही है कि वृंदा की खुद की अपनी पहचान है लेकिन वामपंथी तो शुरू से ही त्याग की बात करते रहे हैं ऐसे में क्या करात अपनी पत्नी का नाम राज्यसभा उम्मीदवार के रूप में सामने आने पर दूसरा नाम नहीं सुझा सकते थे।

बहरहाल, बंगाल में चुनाव प्रचार के दौरान ममता बनर्जी को ‘दिल्ली में गूंगी गुड़िया’ कहने वाले प्रकाश करात चुनाव परिणाम के दिन खुद दिल्ली में रह कर भी गूंगे बने रहे जबकि वह कई बार हर छोटे बड़े मसले पर संवाददाताओं से खुद बातचीत करते रहे हैं। साफ है कि उन्हें मीडिया से बातचीत से पहले कई उन कथित तथ्यों को एकत्रित करना है जोकि उनके लिए मुंह छिपाने में मददगार हो सकें।

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