टाँग खींचना मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है !

                  प्रभुनाथ शुक्ल

टाँगे हैं टाँगों का क्या, ऐसा नहीं है जनाब। टाँगों
का अपना महत्व है। हमारे समाज में उससे भी अधिक महत्वपूर्ण भूमिका टाँग खींचने वालों और टाँग अड़ानेवालों की है। इस तरह की प्रजाति हमारे आसपास प्रचुर मात्रा में पाई जाती है। ऐसे लोग अपने सामान्य दिनचर्या की शुरुवारत टाँग अड़ाने और टाँग खींचने जैसे पवित्र कार्य से करते हैं। रात को सोते वक्त पूरा पिलान तैयार करते हैं। मसलन सुबह किसकी टाँग खींचनी है। कब, क्यों और किसके लिए खींचनी है। जैसी अच्छी बातों से करते हैं। इस पर योजनाबद्ध तरीके से काम किया जाता है। यह जिम्मेंदारी अगर नीति आयोग को दे दी जाय तो वह भी हाथ खड़ा कर देगा। टाँगे खींचने वाले अपने क्षेत्र के विशेषज्ञ होते हैं। यह सलाह वह किसी को खैरात में भी नहीं देते हैं। क्योंकि उनकी टाँग खींचाई का उद्देश्य पवित्र जनसेवा के जुड़ा होता है।

हमारे मुलुक में जब चुनावी मौसम आता है तो
टाँगों की अहमियत सत्ता और विपक्ष दोनों के लिए बढ़ जाती है। क्योंकि टाँगों पर सारी राजनीति निर्भर होती है। सत्ता और विपक्ष एक दूसरे की टाँगे खींचते
रहते हैं। इसलिए चुनावी मौसम में अधिक मेहनत
नहीं करनी पड़ती। क्योंकि इसका पूर्वाभ्यास पहले से रहता है। चुनावों में टाँगे भाग दौड़ से थकहार जाती हैं। उन्हें सांस तक लेने की फुर्रसत नहीं होती है। चुनावी मौसम में बेचारी टाँगों को आम दिनों की अपेक्षा अधिक मेहनत करनी पड़ती है। चुनावों में
टाँगों की भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता है। लेकिन जुबान उसे चैन से सोने नहीं देती है। दोनों में लगता है चूहे और बिल्ली का बैर है। जुबान जब विपक्ष की हो तो कैंची भी फेल हो जाती है।

अब क्या बताएं जनाब बेचारी सत्ता की टाँग का हाल चुनावों में बुरा हो जाता है। विरोधियों के टाँग अड़ाने और अपनों के टाँग खींचने वालों से वह परेशान हो जाती है। संयोग बस, अगर तुक-ताल बैठ गया और टाँग टूट गई, या उनमें मोच आ गईं वह चुटहिल हो गईं तो पुरी मुसीबत खड़ी हो जाती है। टाँग को अस्पताल में भी एडमिट होने का अधिकार नहीं रह जाता है। पता नहीं सियासी विरोधियों की जुबान टाँग से इतना विरोध क्यों करने लगती है। दूसरे की टाँग टूटने से उन्हें इतनी पीड़ा क्यों होती है कि वह टांग अड़ाने पर आमादा हो उठते हैं। अरे भाई ! टाँग का भी अपना अधिकार है। क्या वह चुटहिल होने और टूटने पर अपनी दवा-दारु भी नहीं करा सकती। वह सत्ता की टाँग है इसलिए, विपक्ष उसका जीना हराम कर देता है। विपक्ष तो कभी सत्ता की पीड़ा जानता ही नहीं। जब उसकी टाँग टूटती तो पता चलता। जाके पैर न फटी बिवाई सो क्या जाने पीर पराई…। वह तो बस टाँग अड़ाना ही जानती है।

हमारे मुलुुक में विपक्ष की आदत बन गई है सत्तापक्ष के टाँग में टाँग अड़ाना। विपक्ष रात-दिन सिर्फ मौके की तलाश करता है, लेकिन जब मौसम चुनावों का होता है तो यह सतर्कता और बढ़ जाती है। टाँग लड़ाना उसका जन्मसिद्ध अधिकार बन गया है। उनका काम ही सिर्फ टाँग अड़ाना है। अरे भाई, कम से कम बेचारी टाँग को कुछ दिन अस्पताल में आराम तो करने देते, लेकिन वह ऐसा नहीं चाहते, क्योंकि उन्हें सत्ता पक्ष की टाँगों से जलन है। वह चाहते हैं कि जब विपक्ष की टाँग चुनावों में झुग्गी-झोपड़ी, गली-मुहल्ले, चट्टी-चैराहे पर दांड़ी मार्च कर रही है तो सत्ता की टाँग अस्पताल में आराम क्यों करेगी। उन्हें तो जनता के सामने यह साबित करना है कि उनकी टाँग कितनी मेहनत कर रहीं हैं जबकि सत्ता पक्ष की टाँग अस्पताल में बेफ्रिक होकर आराम फरमा रही है।

बेचारी निर्दोष टाँग का भला क्या दोष। उसे तो विपक्ष की साजिश की वजह से चोट लगी, वह तो बेगुनाह थी, लेकिन थोड़ा आराम भी नहीं करने पायी। अब उसे घायल अवस्था में चुनाव आयोग तक जाना पड़ा है। उस पर आरोप भी लगने लगा कि वह जनता की सहानूभूति लेना चाहती है। हाय रे राजनीति, हद हो गयी। शायद इसलिए कि वह सरकार की टाँग है। ऐसा लगता जैसे टाँग खींचने का इनका जन्मसिद्ध अधिकार है। कभी-कभी तो टाँगे ऐसी खींच ली जाती हैं कि फिर कभी खींचने लायक भी नहीं बचती।

हमारे समाज में टाँग खींचने की अधिकारवादिता का बेहद तेजी से विस्तार हो रहा है। अब यह आम चलन में आ गई है। हलांकि इसकी शुरुवात कब और कहाँ से हुई यह शोध का विषय है। लेकिन अब यह परंपरा चल निकली है। अरे भाई ! कुछ तो रहम करो। टाँग अड़ाना अपना अधिकार समझ लिए हो फिर भी कम से उस बेचारी निर्दोष टाँग का भी खयाल रखो। सत्ता की है तो क्या हुआ कभी आपकी भी बैशाखी बन जाएगी।

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