समाज

विशुद्ध राजनीतिक है जाति आधारित जनगणना की मांग

– अवधकिशोर

संपूर्ण देश की जनसंख्या कितनी है और यह किस अनुपात में बढ़ रही है, इसकी जानकारी हेतु प्रत्येक दस वर्ष पर जनगणना होती है। जनगणना हो तो उसका आधार क्या हो, यह स्पष्ट होना ही चाहिये। इस बार की जनगणना में जातिगत गणना की विशेष चर्चा है। इसके पक्ष-विपक्ष में आये दिन राजनैतिक दलों के बयान, लेख और समाचार प्राकाशित हो रहे हैं। किसी का मत है कि जाति आधारित जनगणना से जातिवाद बढ़ेगा। किसी का मत है कि जाति आधारित जनगणना से और नई जातियों का पता चल सकेगा। हालांकि जाति बुरी नहीं है बल्कि जातीयता की भावना बुरी है।

कुछ विश्लेषकों का मत है कि यदि राजनैतिक क्षेत्र में इनका वर्चस्व विशेष रूप से बढ़ा तो देर-सवेर जति आधारित राज्य की मांग भी जोर पकड़ सकती है। कुछ विश्लेषकों का कहना है कि इससे सामाजिक एवं राष्ट्रीय सौहार्द बिगड़ सकता है। जबकि लोग कहते हैं कि एक तरफ जहां देश आतंकवाद और नक्सलवाद से जूझ रहा है वहीं इस संकट की घड़ी में जाति का तूफान खड़ा करने से देश पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। ऐसी परिस्थिति में जाति आधारित जनगणना आग में घी का काम करेगी। अच्छा तो यही रहेगा कि इस विषय पर राष्ट्रहित में व्यापक चर्चा होनी चाहिये। इस विषय पर आम राय भी बननी चाहिये।

जहां तक प्रश्न जातिवाद के बढ़ावे का है, वह विशुद्ध रूप से राजनीति से प्रेरित है। हर राजनेता अपने हित में वोट को साधता है। चुनाव में जातिगत समीकरण के आधार पर टिकट दिये जाते हैं। सोशल इंजीनियरिंग की बात की जाती है और समीकरण बिठाया जाता है कि किस विधानसभा या लोकसभा क्षेत्र में किस जाति का वर्चस्व है। वहां पर उसी जाति का प्रत्याशी खड़ा किया जाता है। जातियों में भी व्यवस्था वर्चस्व की जंग छिड़ी रहती है। जाति आधारित राजनीति प्रेरित ध्रुवीकरण से संपूर्ण सामाजिक ढांचा ही विषाक्त हो चुका है।

राजनीतिक दल अपने हित के लिये जातियों के सभा सम्मेलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं। इलेक्शन से लेकर सलेक्शन तक पूरी प्रक्रिया जाति के इर्द-गिर्द ही घूमती दिखाई देती है। फिर तो इस प्रकार की चोचलेबाजी कि जाति आधारित जनगणना से जातिवाद बढ़ेगा। यह अनर्गल प्रलाप है, दो मुंहेपन की बात है। राजनीति में सब कुछ चलता है, खेल मुखौटे का है। मैं यह नहीं कहता कि जाति के आधार पर जनगणना हो, मैं यह भी नहीं कहता कि जाति के आधार पर देश के नागरिकों से भेद-भाव हो या फिर जाति के आधार पर आरक्षण हो।

जातिवाद के आधार पर आरक्षण देकर शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश दिये जा रहे हैं। जाति के आधार पर नौकरी दी जा रही है। जाति के आधार पर प्रशिक्षण दिया जा रहा है। जाति के आधार पर देश में उथल-पुथल करने का षड़यंत्र चल रहा है। किसी का हित हो रहा है, किसी का अहित हो रहा है। आज यह चर्चा जोर पकड़ रही है कि समाज कास्टवाइज बंट गया है।

इन सभी विषयों को छोड़ विकास की बातें की जाएं, ऐसा करना देशहित में होगा, जाति की बात करने से यह विकास प्रभावित होगा। सच तो यह है कि उच्चवर्गीय से मध्यम वर्गीय और निम्नवर्गीय तक समाज कास्टवाइज बंटा है और इसका आधार आर्थिक है। जो नीचे का तबका है, वह अपने विकास हेतु सदा प्रयासरत है। इन सभी वर्गों में सभी जाति के लोग हैं और उनके जीने का स्वर उसी आर्थिक ढांचे पर आधारित है।

जातियों की बात तो स्वार्थ हित में होती हैं। जैसे अपने स्वार्थ हेतु वोट बैंक को कैश करने के लिये राजनीतिक दल सीना ठोंक-ठोंक कर अपने को सेकुलर कहने लगते हैं और इस अवसरवादी राजनीति की शिकार भोली-भाली जनता होती है। जातियों के कुछ स्वयंभू नेता होते हैं, जो यह नहीं चाहते हैं और राष्ट्रवाद को भूलकर जातिवाद, क्षेत्रवाद, व्यक्तिवाद को समर्थन दे डालते हैं। यह खेल अनवरत चल रहा है और एक बुराई का रूप ले चुका है। 20 साल पहले मंडल कमीशन ने 1700 नई जातियां ढूंढ निकाली, जिसके परिणामस्वरूप हजारों नौजवान इसके शिकार हो गए। अब ये जातियां वर्तमान में करीब 1965 तक की संख्या में पहुंच चुकी हैं। कुछ विश्लेषकों का मानना है कि जाति आधारित जनगणना से और भी जातियां उभर कर सामने आ सकती हैं। लेकिन पिछड़ी जातियों के जो राष्ट्रीय … बना पाना संभव है। वैसे देखा जाये तो सैकड़ों की संख्या में देश में घुमंतू जातियां हैं, जो विकास की किरण से कोसों दूर हैं और उनका आज यहां तो कल वहां ठिकाना है।

वर्ग की बात करना ही राष्ट्रहित में होगा। जाति तो गुजरे जमाने की बात हो गयी है। जाति आधारित आरक्षण की बात न कर अवसर की बात करनी चाहिये, जिससे प्रतिभाओं का पलायन रुके। उदाहरण के लिये अपने को दलित की बेटी कहने वाली के पास 87 करोड़ की संपत्ति है। सामान्य दलित और इस दलित की बेटी में कितना अंतर है। यह चिंतन का विषय है।

आज समाज का चित्र बदल चुका है, जाति की बात करना नितांत राजनीति से प्रेरित है। उस अनर्गल प्रलाप से राष्ट्रवाद को हानि पहुंचेगी। राष्ट्रीय एकता और अखंडता प्रभावित होगी। अपने दलगत राजनैतिक स्वार्थ से उपर उठकर राष्ट्रहित में विश्वास होना चाहिए। सामाजिक सौहार्द उसी में सन्निहित है, और राष्ट्र का विकास भी।

* लेखक राष्ट्रवादी विचारों के वरिष्ठ पत्रकार हैं।