राजनीतिक हस्तक्षेप से निरंकुश होती पत्रकारिता

– डॉ. सूर्य प्रकाश अग्रवाल

जिस प्रकार समाज में विगत कुछ वर्षों से प्रत्येक दिशा में तेजी से परिवर्तन देखा जा रहा है उसी प्रकार लोकतंत्र के चौथे स्तंभ (पत्रकारिता) में भी निरंकुशता बढ़ी है जिससे पत्रकारिता का उददे्श्य सनसनी फैलाना होकर रह गया है। सनसनी फैलाने, स्टिंग ऑपरेशन करने अथवा राष्ट्र के हितों को दर किनार करते हुए पत्रकारिता करने से कभी पत्रकार का सम्मान नहीं हो सकता। उससे तो देश ही विनाश की ओर बढ़ता चला जाता है और विदेशी हानिकारक ताकतों को मजबूती मिलती है। आज पत्रकार यह भूलता जा रहा है कि पत्रकार का सम्मान तो उसके द्वारा किये जाने वाले त्याग व तपस्या के कारण होता है। आदर्श पत्रकारिता तो पत्रकारों के द्वारा उठाये गये जोखिम, आदर्श, उद्देश्यों में ही पनपती है। गणेश शंकर विद्यार्थी तथा बाल गंगाधर तिलक इत्यादि ऐसे पत्रकारों में से थे जिन्होंने कभी पत्रकारिता के सिध्दांतों के साथ समझौता नहीं किया। निरंकुश पत्रकारिता देश व समाज के विनाश का कारण बनती है। अतः पत्रकार को पत्रकारिता के प्रति प्रतिबध्दता के साथ रहना चाहिए।

पत्रकार को कभी भी तथ्यों के साथ समझौता नहीं करना चाहिए। देश व समाज में विभाजन के बीज बोने वाले समाचारों से सदैव परहेज करना चाहिए। अमरीका में वर्ल्ड ट्रेड टॉवर परहमले के समय सीधा प्रसारण नहीं किया गया जबकि भारत में मुंबई हमले के समय सीधा प्रसारण दिखाया गया जिससे देश में सनसनी फैल गई और समाज का मनोबल हिल गया। समाज का मनोबल तोड़ने वाले व आतंकियों के हौसले बढ़ाने वाले समाचार दिखाना देश व समाज के हित में नहीं है। विभिन्न समाचार चैनलों में बढ़ती प्रतियोगिता, समाचार को दूसरे चैनल से शीध्र प्रसारित करने की ललक व भारत में उपलब्ध अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर निरंकुशता बढ़ी है। पत्रकार को यह ध्यान में रखना चाहिए कि वह समाज का है, समाज से ही निकला है तथा समाज में ही उसे रहना है। विभिन्न समाचार चैनल अपनी टी आर पी बढ़ाने के चक्क्र में पत्रकारिता के स्तर को ही गिरा रहे हैं। पत्रकार यदि भावना में बहकर समाचार लिखता है अथवा दिखाता है तो पत्रकार की यह प्रवृत्ति समाज के हित में नहीं है। भावना के साथ तथ्यों का होना अति आवश्यक है। केवल तथ्यों के आधार पर लिखे गये व दिखाये गये समाचार को आसानी से नहीं नकारा जा सकता है। वर्तमान में भारत को बनाने व सर्वांगीण विकास करने के लिए उच्च श्रेणी के राष्ट्रवाद (देशवासियों में राष्ट्रीयता की भावना जागृत करना) विचार को पूर्ण रूप से विकसित करने की आवश्यकता है। पत्रकार के स्वंय के मन का स्वयंसेवकत्व चमकते रहना चाहिए। राष्ट्रवाद से ही भारत शक्तिशाली बन सकता है। भारत के शक्तिशाली होने से यह तात्यपर्य कदापि नहीं है कि हम विश्व को गुलाम बनाने के लिए निकल पड़ेंगे। भारत के राष्ट्रवाद में विश्व के कल्याण की बात निहित है। एक बार ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर ने कहा था कि हम ब्रिटिश, मुगल, हिंदू, ईसाई सब मिलकर रहें लेकिन ब्रिटिश मूल्यों को सदैव ध्यान में रखें। उन मूल्यों से कोई समझौता नहीं किया जा सकता है। क्या यह बात हम भारत में कह सकते है?

आज भारत में इनफॉरमेशन वार (तीसरा युद्ध) चल रहा है जिसमें पत्रकार की भूमिका एक सिपाही की है और पत्रकार को उससे मुकाबला करना है। विचारों के युध्द में हम सुचनाओं के अभाव में पिछड़ न जायें। अपने विचार के प्रति आस्था रखते हुए तथ्यों के आधार पर आगे बढ़ते जायें। तथ्यों के आधार पर समाज के अंदर चलने वाले अच्छे व विकास के कार्य-जिनसे भारतीय मनुष्य के मन में उत्साह व स्वाभिमान जाग्रत हो सके तथा मन में बढ़ता निराशा का भाव समाप्त हो सके, को लेखनी के माध्यम से समाज के सामने लाया जाना चाहिए। ऐसे कार्य देश में समाज के सभी वर्ग व धर्म के अनुयायी चल रहे हैं जिनको समाज के परिदृश्य पर लाना आवश्यक है जिससे समाज के विभिन्न वर्गों में एकता की भावना पुष्ट होगी और भारत की अखंडता मजबूत हो सकेगी।

गत दो दशकों से जिस प्रकार भारतीय पत्रकारिता उपभोक्तावादी संस्कृति से स्वयं को जोड़ती जा रही है, उससे सामाजिक हित कम, निजी स्वार्थ कुछ ज्यादा ही दिखाई पड़ने लगा है वर्तमान में पत्रकार निजी स्वार्थ के लिए उपभोक्तावादी संस्कृति में इस स्तर तक चला गया है कि पत्रकार अपने नैतिक कर्तव्य भी भूलता जा रहा है। आज पत्रकार एक ओर तो सामाजिक हित की बात करता है तो दूसरी ओर राजनीतिक दलों व सेठों से सांठगांठ कर आम आदमी से दूरी बनाता जा रहा है। आम आदमी के लिए राजनीति करनी है, आम आदमी के लिए पत्रकारिता करनी है-इसका ढोल पीटा जाता है। परंतु यह एक धोखा दिखाई दे रहा है। पत्रकारिता कमरे में बैठ कर की जा रही है। वहीं राजनीति भी आम आदमी से कट कर राजनेताओं के द्वारा स्वयं की जेब भरने की कोशिशों के साथ एक व्यवसाय (धंधा) के रूप में ही अधिक हो रही है।

पत्रकारिता व राजनीति आम आदमी के लिए एक सेतु का काम करती है। आम आदमी की समस्या पत्रकार ही राजनेता तक पंहुचाता है तथा राजनेताओं की राजनीतिक गतिविधियां आम आदमी तक पत्रकार ही पंहुचाता है। आज संपादक संपादकीय कर्तव्य को कम व अपने मालिक के व्यावसायिक कर्तव्य पर कुछ ज्यादा ही ध्यान देता रहता है। आज बाजार से जो संपादक ज्यादा से ज्यादा कमा लेता है उसमें उतनी ही अधिक बुध्दिजीविता है। चुनाव के समय राजनेताओं व राजनीतिक दलों से पैकेज डील कर राजनेता स्वयं ही प्रचार में कूद पड़ते है जिससे आम आदमी को सही-सही राजनीतिक परिदृश्य पत्रकाराें के द्वारा दिखाया ही नहीं जाता है। पत्रकारों के इस कृत्य से उल्टे-सीघे व लंपट राजनेता चुनाव जीत कर आम आदमी का भ्रष्टाचार के द्वारा शोषण करने में लिप्त हो जाते हैं। कुछ पत्रकार व उनके नजदीकी भी राजनीतिक दलों के टिकट पर राज्यसभा व विधान परिषद के चुनाव जीत कर अपने राजनीतिक आकाओं के राजनीतिक भोपू बन जाते है। उनकी पत्रकारिता के प्रति निष्ठा तहस-नहस होकर रह जाती है। राजनीति अपनी सुविधा व असुविधा के अनुसार स्वंय ही पत्रकार तैयार करा के पत्रकारिता करवा लेती है। पत्रकार के होने व न होने से कोई मतलब नहीं रह जाता है। पत्रकारिता ज्ञान भी राजनीति से होकर व राजनीतिक सत्ता के आगे पत्रकारिता प्रसंग भर ही रह जाती है। पत्रकार यदि राजनेताओं के संरक्षण में पलेगा व बढ़ेगा तो देश का विनाश भी निश्चित ही है क्योंकि ऐसा पत्रकार तो राजनेता की बुराई देख ही नहीं पायेगा और बुरा राजनेता देश की सत्ता पर काबिज हो कर देश को विनाश की ओर धकेल देता है।

* लेखक, सनातन धर्म महाविद्यालय, मुजफ्फरनगर में वाणिज्य संकाय में रीडर के पद पर कार्यरत तथा स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।

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