लीना
बैंकिंग तो झमेला है और बैंकिंग अब चुटकी में यार! दो शिशु, जो खुद बोल भी नहीं सकते, आपको भरोसा दिला रहे हैं!
नीचे छोटे अक्षरों में लिखा है- बच्चे इसकी नकल न करें। तो उपर विज्ञापन में दो नन्हे मुन्ने ही मोटरसाइकिल पर बैठ, स्थिर मुद्रा में ही सही, पर इसे चलाकर गाड़ी की खूबियां बता रहे है! यही नहीं ‘कहानी’ में एक बच्ची लिफ्ट भी लेती है, गर्लफ्रेंड/ब्यायफ्रेंड के अंदाज में, तो अंत में दूसरे बाइक पर सवार बच्ची यह कहकर स्कूल जाने से इंकार करती है कि ‘मैं नहीं जाउंगी इस बोरिंग बाइक पर’। लगे हाथों एक घटना की खबर। पटना में सात फरवरी 2011 को स्कूटी फिसलने के बाद उसके स्कूल बस की चपेट में आने से एक 11वीं क्लास की छात्रा की मौत हो गई। यों तो यह देश के हजारों दुर्घटनाओं की तरह एक और एक दुखद दुर्घटना है। लेकिन बहुत सारे सवाल उठाते है। इसमें से एक है ड्राइविंग लाइसेंस न मिलने की उम्र में पूरी ट्रैफिक में रोजाना गाड़ी चलाना।
एक और कहानी बयान करती रहती है प्रिंट मीडिया में छपी एक तस्वीर। वो है जार में जंजीरों में बंद बिस्किट और गुस्से से भरी लड़की, इस स्लोगन के साथ कि ‘हिस्सा मांगो तो गुस्सा’। क्या यही हैं किसी समाज के संस्कार !
जब दो बड़े भाइयों/मित्रों के बीच एक किशोर हां रे/ ना रे के तहत अच्छे संस्कार सीख रहा है तो एक बबलगम अपना डिसीजन खुद लो की वकालत करता उसे गलत राह पर धकेलता दिखता है।
यह तो महज चंद उदाहरण हैं उन विज्ञापनों के जो बेतुके और बिना बात के जबरदस्ती बच्चों का इस्तेमाल करता है। साथ ही उन्हें गलत संस्कार भी सिखाता है। हमारे दिन रात चलने वाले टीवी सेट चाहे मनोरंजन चैनल हों या खबरिया या फिर प्रिंट मीडिया ऐसे ढेरों विज्ञापनों से भरे पड़े हैं जो मिनट दर मिनट हमारे, हमारे बच्चों के सामने घूमते फिरते दिन रात सजीव दिखते हैं और बुरी तरह से बच्चों को उकसाते हैं।
एक ओर मीडिया दिन प्रतिदिन किशोरों द्वारा किए गए रेप, चोरी- चकारी, अपराध के प्रति उनमें बढ़ते रुझान को लेकर चिंतित दिखता है और अक्सर इन मुद्दों पर विशेषज्ञों के साथ घंटों बैठकर चर्चा करता है। वहीं दूसरी ओर दिन में सैंकड़ों बार ‘गर्लफ्रेंड बहुत डिमांडिंग होती है’ किशोर किशोरियों को लेकर बनाया गया विज्ञापन दिन रात दिखाता रहता है। तो फिर क्यों न छोटे बच्चों का, किशोरों का उन्मुक्तता के लिए दिल मचले। फिर वह चाहे संबंधों के प्रति हो या भौतिक वस्तुओं के प्रति या फिर कम उम्र में बाइक चलाने जैसे खतरों के प्रति।
वैसे इन विज्ञापनों के मामलों में मीडिया की भूमिका स्वाभाविक रूप से निर्विकार नज़र आती है। क्योकि इनसे ही सारा का सारा मीडिया जगत चलता है। बिना विज्ञापनों के कोई भी मीडिया जिंदा नहीं रह सकता है और न ही उसके पास विज्ञापनों को चुनने की आजादी होती है कि वह खास विज्ञापन ही दिखाए। क्योंकि ऐसे विज्ञापन बनाने वाले बड़े व छोटे सभी विज्ञापनदाता है। और बात तो कमाई की ही है।
फिल्मों व रियलिटी शो को लेकर गंभीर व सेंसर रखने वाली हमारी सरकार भी विज्ञापनों के मामले में कोई कदम उठाती नहीं दिखती है। जबकि विज्ञापन सर्व सुलभ और अनायास हर घर में दिखते हैं। बच्चों को न देखने के लायक विज्ञापन के पहले कोई ऐसी चेतावनी भी नहीं होती जैसी फिल्मों के पहले होती है। वैसे भी विज्ञापन इतने कम समय के लिए होते हैं कि ऐसी चेतावनियां हो भी तो कोई फायदा नहीं हो सकता। ले दे के विज्ञापन बनाने वालों पर ही सारी जिम्मेदारी आती है कि वे उचित संस्कारों वाले विज्ञापन बनाएँ। क्योंकि आज हमारे समाज को विज्ञापन बहुत हद तक प्रभावित कर रहें हैं ।
सिर्फ बच्चों को उकसाने वाले विज्ञापन ही नहीं हैं बल्कि कई व्यस्क विज्ञापन भी कभी भी दिख जाते हैं, जिसे बच्चों के संग बैठकर टीवी देख रहे बड़े भी झेप जाते हैं।ऐसा नहीं है कि इस तरह के विज्ञापन अब ही बनाये जाने लगे हैं लेकिन अब इनकी संख्या दिन प्रति दिन बढ़ती जा रही है। सिर्फ झेपने या बुरा लगने की बात ही नहीं हैं बल्कि सबसे बड़ा मुद्दा गलत राह व संस्कारों की है। विज्ञापनों से मदद मांगने आई लड़की के प्रति ‘बेटा मन में लड्डू फूटा’ ही खयाल उन्हें आता है!
अति उत्तम लीना जी, लिखते रहिये और ऐसे ही लिखिए! एक ज्वलंत मुद्दा आपने उठाया है ! ये बातें क़ानून बनाने वालों को बिलकुल नहीं दीखती क्योंकि पैसों का चश्मा जो लगा हुआ है! जब पानी सर से ऊपर चला जायेगा तो फिर दोष टीवी चैनलों पर मढ़ दिया जाएगा अभी तो डीटी एच बेचने में मगन हैं सब लोग.