चरण वंदन करता आज मैं, कर गुरु गुणगान,
सिर पर मेरे हाथ धर,यूं ही बढ़ाते रहना मान।
क्या वर्ण और क्या वर्णमाला, रह जाता मैं अनजान,
‘अ’ से अनार,’ए’ से एपल की न हो पाती पहचान।
गिनती, पहाड़े, जोड़-घटा, न कभी हो पाती गुणा-भाग,
एक-एक क्यों बनें अनेक, बोध न हो पाता कभी ये ज्ञान।
क्या अच्छा, क्या बुरा कभी न मैं ये जान पाता,
न दिखलाते सही डगर तो मंजिल न कभी पाता।
बीच भंवर हिचकोले खाती रहती मेरी जीवन नैया,
सागर पार निकलना कैसे, ये कभी न जान पाता।
अज्ञानता के तिमिर से प्रकाशपुंज बनाया मुझको,
भूल सकूंगा न कभी, गुरुवर जीवन में तुमको।
सुशील कुमार ‘नवीन’