गङ्गानन्द झा
काजी नजरुल इस्लाम मूलतः विद्रोही कवि के रुप में परिचित हैं. लेकिन उनके श्यामासंगीत और इस्लामी भक्ति मूलक कलाम भी उत्कृष्ट कोटि के हैं। उनकी नतिनी के द्वारा डॉ पूरबी मण्डलPurabi Mondal) से शेयर किया गया एक संस्मरण—- उत्तर कलकत्ता के किसी कुलीन परिवार से एक बार काजी नजरुल को – रा दोल पूर्णिमा के उपलक्ष्य पर भक्तिमूलक गीत- गाने के लिए निमन्त्रित किया गया। उस परिवार में गृहदेवता प्रतिष्ठित थे, उनकी नित्य पूजा होती थी। घर के बाहर स्टेज बनाया गया था अतिथियों के साथ नजरुल पहली पंक्ति में बैठे हैं। अभी उनके नाम की घोषणा होगी, वे ही पहले कलाकार हैं। तभी अन्तःपुर से तीव्र असन्तोष का आभास आया। घर की गिन्नी माँ,—- गृहस्वामी की माँ ने बेटे को आवाज दी।. हिन्दु के आचारनिष्ठ घर में मुसलमान के कीर्तन गाने की खबर सुनकर वे प्रचण्ड रुप से क्रुद्ध हो गई थीं। ऐसा अनाचार वे कदापि बर्दाश्त नहीं करेंगी। गृहस्वामी ने समारोह के संचालकों को सन्देश दिया– नजरुल के बदले दूसरे कलाकार से आयोजन शुरु किया जाए। इस बीच काफी अनुनय अनुरोध के बाद वे माँ को सिर्फ एक बार काजी का गान सुनने को राजी करने में सफल हुए। इसके बाद स्टेज पर काजी के नाम की घोषणा हुई। उन्होंने गाया—- श्यामासंगीत, कीर्तन और भजन। — गाना समाप्त होने पर अन्दर से अभिभूत, आश्रुसिक्त गिन्नीमाँ ने – सर पर कपड़ा ,,गले में आँचल दिए,हाथ जोड़े काजी से क्षमा याचना की। बिना जाने कितना बड़ा अन्याय करने जा रही थीं वह- ऐसा कथन, ऐसी भक्ति, ऐसी उपलब्धि, विकलता और समर्पण– मेरा मन, प्राण डूब गया। काजी को प्रणाम कर उन्होने उन्हें आशीर्वाद किया।