आर. सिंह की कविता / कविता का अन्त

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मेरी बेटी,

कहती है मुझसे.

डैडी लिखते तो हैं आप.

एक तरह से अच्छा ही लिखते हैं.

भाषा पर पकड भी अच्छी है आपकी.

पर,

पर क्या मेरी बेटी?

साफ साफ कहो मुझसे.

क्या कमी दिखती है तुमको मेरे लेखन में?

डैडी, निराशा झलकती आपकी रचनाओं में.

निराश नजर आते हैं आपके पात्र.

लगता है जिन्दगी के संघर्ष से तंग आ चुके हैं.

आशा की कोई किरण भी नहीं दिखाते उनको आप.

अच्‍छा है वर्णन यथार्थ का.

पर न ले जाना आदर्श की ओर,

च्यूत होना है कलाकार की गरिमा से.

मानती हूँ अंधेरा है सब ओर.

सघन अंधेरा है.

उस पर लोगों का अंधापन.

उनको नहीं नजर आता है यह अंधेरा भी.

पर क्या कुछ कर्त्तव्य नहीं बनता आपका ?

दिखाइये ज्योति की एक किरण,

इस सघन अंधेरे के उस पार.

ज्योति की किरण सघन अंधेरे में भी,

फूटने का कारण बनेगी आशा के अंकुर का.

दिखाइये पथ डैडी, उस ज्योति किरण तक पहुँचने का.

पितृ उवाच, पिता बोले.

मेरी बेटी,

जब मैं था तुम्हारी उम्र का.

सोचता मैं भी था कुछ वैसा ही

जैसा सोचती हो तुम.

शायद मैं आदर्शोन्मुखी था कुछ ज्यादा ही.

विश्वास करो मेरा.

तम्मना थी बहुत कुछ कर गुजरने की.

चला था एक पथ पर.

जो भिन्न था दूसरों से.

‘उपदेश से अच्छा है उदाहरण’.

जेहन में था यह दर्ज.

एक स्वप्न था मेरा.

एक आदर्श था मेरे सामने.

पर चलते हुए जिन्दगी के डगर पर,

बीतते दिनों के साथ ही,

अपने संघर्षों के बीच देखा मैंने.

सत्य को बिलबिलाते हुए.

झूठ को पनपते हुए.

देखा मैंने.

‘घर घर रावण हर घर लंका’ को.

राम की कमी मार गयी मुझको.

विश्वास करो मेरी बेटी.

झूठ नहीं बोलूंगा जीवन की इस संध्या में.

देखा है मैंने.

हैवानियत के हाथों इन्सानियत को नंगा होते हुए

देखा है मैंने राम को भीख की झोली फैलाये हुए.

देखा है मैंने रावण को कहकहे लगाते हुए,

अट्टहास करते हुए.

देखा है मैंने राम को विवश नेत्रों से निहारते हुए.

पढा था त्रेता में राम ने मारा था रावण को.

विजय हुई थी सत्य की असत्य पर

पर लगता है झूठ था यह भी.

मैंने देखा है सत्य को तड़पते हुए.

तड़प तड़प कर मरते हुए.

और देखा है झूठ को अठखेलियाँ करते हुए उसकी लाश पर.

मेरी बेटी, लगता है मैं भी होता जा रहा हूँ ज्योति विहीन.

नहीं दिख रही है मुझे ज्योति की कोई किरण.

नहीं दिख रहा है पथ आदर्श की ओर जाने का.

डूब गया हूं खुद मैं निराशा के गहरे गर्त में.

बताओ मेरी बेटी.

कैसे दिखाऊं पथ मैं ज्योति किरण का.

कैसे ले जाऊं आदर्श की ओर.

लगता है ऐसा.

मैं भी अंधा हो गया हूं.

और भटक रहा हूं अंधेरे में. 

3 COMMENTS

  1. यह कविता हकीकत बयान करती है.मेरी असली विचार धारा नहीं.मैं तो आज भी पहाड़ से टकराने की हिम्मत रखता हूँ.उम्र का तकाजा जो भी हो पर वह मेरे किसी फैसले में आड़े नहीं आती.मेरे विचार से उम्र बढ़ने के साथ यदि ज्ञान की पिपासा और कुछ कर गुजरने की तमन्ना भी बढ़ती जाए तो उससे अच्छा कुछ हो ही नहीं सकता.

  2. उम्मीद और हौसला मर गया तो जियेंगे कैसे इन्हे हर हाल मे ज़िन्दा रखना है।

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