रामजन्मभूमि विवाद, राजनीति के बांझपन का नतीजा ?

-भरतचंद्र नायक

राजनीति को लोकनीति बनाना श्रेष्ठ स्थिति मानी गयी है, लेकिन आजादी के बाद सियासत सकरे दायरे में कैद हुई है, उससे वह बांझ बनकर रह गयी है। राम जन्म भूमि विवाद को पाल पोसकर रखा जाना फिरंगी शासन की बांटो और राज करो की कुशल रणनीति का हिस्सा माना जा सकता था। लेकिन अब इसे समाधान की दिशा में ले जाने, निर्णय के मुहाने पर पहुंचते ही रास्ता रोक दिये जाने को जन आस्था के साथ क्रूर मजाक ही कहा जावेगा। छ: दशक तक अयोध्या में राम जन्म भूमि मिल्कियत विवाद अदालत में लंबित रहने के बाद 30 सितम्बर, 2010 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ ने एक मत से कहा कि अयोध्या में भूमि मिल्कियत विवाद के बारे में यह बात निर्विवाद है कि यह लोक नायक, मर्यादा पुरुषोत्तम की जन्मभूमि है। राम जन्म भूमि विराजमान को पहले जमीन देने के बाद खंडपीठ ने दूसरा हिस्सा निर्मोही अखाड़ा को देते हुए बाहरी भूमि सुन्नी वक्फ बोर्ड को देकर भारत की जनता और देश की अद्वितीय न्याय परंपरा के बीच विश्वास का पुल बांध दिया है। न्यायालय का फैसला आने के पहले सभी ने एक मत से प्रतिबद्धता जतायी थी कि न्यायालय का निर्णय शिरोधार्य किया जावेगा। लेकिन निर्णय का जब देश की जनता ने स्वागत किया और सुन्नी वक्फ बोर्ड के दावेदार ने आगे की सहमति बनाने के लिए कदम बढ़ाये तो सियासतदार कूद पड़े। अल्पसंख्यकों के मान न मान मंै तेरा मेहमान बनने की स्पर्धा शुरु हो गयी। मुलायम सिंह ने तो यहां तक कह दिया कि फैसले से अल्पसंख्यक ठगे से रह गये हैं। कांग्रेस ने मामले के सर्वोच्च न्यायालय से निर्णीत होने तक प्रतीक्षा करने की घोषणा कर दी। उन्हें समाधान से नहीं समस्या पर गर्व है? ऐसे में जो लोग कहते हंै कि राजनीति बांझ हो गयी है, इसका क्या जवाब हो सकता है?

रामजन्म भूमि विवाद की तह में जाने की फौरी कोशिश की जाने पर साफ जाहिर होता है कि सियासतदारों को भूमि के मलिकाना हक के वाजिब निपटारे के बजाय विवाद को बनाए रखने, विवाद को अवाम को भड़काने का बहाना बनावे रखने में रुचि रही है। राम जन्म भूमि जहां भारत और भारतीय के मूल के इंडोनेशिया, मलेशिया, जावा, सुमात्रा, आदि देशों में अवाम के लिए धर्म के अलावा आस्था का प्रश्न है, भारत के तथाकथित धर्मनिरपेक्ष सियासतदार इसे सियासत का मुद्दा बनाकर जीवित रखना चाहते हैं। भारतीय मूल के जो लोग धर्मांतरण के बाद विदेश गये हैं अथवा धर्मातरित हो गये हैं। वे राम चरित्र को लोक जीवन का आदर्श मानते हैं। रामलीला का मंचन करते हैं। उनका आग्रह सही है कि धर्म बदलने से वल्दियत, पुरखे नहीं बदल जाते।

रामजन्म भूमि बाबरी ढांचा विवाद के निराकरण के लिए हुए प्रयासों की लंबी सूची है। 2004 में तो मुलायम सिंह ने ही समाधान की चौखट पर पहुंचकर ही कह दिया था कि इससे लोकसभा चुनाव के नतीजे प्रभावित हो जाएंगे। तब केंद्र एनडीए की अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में सरकार थी। मुसलमान और हिंदू सुधीजन ने समाधान स्वीकार कर लिया था। इसमें कुछ विदेशी मुस्लिम शासकों ने भी सद्भावना बनाने में योगदान दिया था। तब सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीश न्यायमूर्ति अहमदी साहब प्रारूप भी लगभग बना चुके थे। लेकिन समाजवादी पार्टी प्रमुख, उत्तरप्रदेश के राजनीतिक शासक की हैसियत रखने वाले मुलायम सिंह ने इस समाधान को सियासी चालों को शिकार बनाकर पलीता लगा दिया था। आज वही जवाब यदि मुसलमानों को भड़काते हुए कहते हैंं कि 30 सितम्बर का फैसला उनके प्रतिकूल है, तो इसमें हैरत नहीं होना चाहिए। राजनेताओं को सुन्नी वक्फ बोर्ड के हितों की नहीं अपने राजनीतिक हितों, सियासी मिल्कियत (वोटो) की चिंता है।

दरअसल आस्था, विश्वास, सद्भावना, हिंदुत्व के प्राण है। सियासतदार देश के समृद्ध इतिहास पर वर्णित होना सांप्रदायिकता मानते हैं। इन्हें याद नहीं आता कि 1857 में दिल्ली की फतेहपुरी मस्जिद अंग्रेजी सरकार ने नीलाम कर दी थी, जिसे खालिश हिन्दू चुन्नीलाल ने बोली लगाकर खरीद लिया था और बाद में मौजूदा मुकर्रम परिवार को सौंप दिया था। वहीं हिंदुत्व की उदारत और सही धर्मनिरपेक्षता है। परस्पर खौप पैदा करना, सहमति में पलीता लगाना और न्याय के लिए बंदर की भूमिका में आना सामाजिक पाप है।

1949 से यदि याद करें तो देश में समाजवाद के शिखर पर पुरुष और प्रवर्तक डॉ.राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि राजनीति को लोकनीति बनाना चाहिए, जिससे सभी की भावनाओं का आदर हो। तभी पं.नेहरू इस प्रतिस्पर्धा में कूद पड़े और सामने आए थे और उन्होंने हिंदुओं को अयोध्या में पूजा अर्चना की अनुमति दिलाते हुए जन्म भूमि के कपाट खोल दिये थे। लेकिन वे सियासत का मर्म जानते थे। चोर दरवाजे से 23 सितम्बर, 1949 को अयोध्या के पुलिस थाने में प्राथमिकी भी दर्ज करा दी थी जिससे सियासी जख्म हरा बना रहे। खोजबीन करने पर आप यह भी जान सकेंगे कि इस एफआईआर को दर्ज कराने वाला कोई मुसलमान नहीं था। एफआईआर दर्ज कराने वाले कलेक्टर साहब के.के.नायर थे, जो प्रधानमंत्री की भावना से पूरी तरह वाकिफ थे।

इससे भी अधिक त्रासद तथ्य यह है कि हिंदुओं पर सांंप्रदायिकता का दाग लगाने वाले रामजन्मभूमि पर लगातर सियासत करते रहे। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने चुनाव अभियान में बहुसंख्यकों को लुभाने के लिए 1986 में गर्भगृह निर्माण की बात आयी तो ताला खुलवाकर अपने विश्वस्त सियासतदार गृहमंत्री बूटा सिंह को भेजकर उद्घाटन भी करवा दिया था। साथ ही कांग्रेसी मुसलमान भाईयों को बाबरी एक्शन कमेटी गठित करने की प्रेरणा देकर जो जख्म था, उसे कैंसर की शकल में दे थी। देश के बहुसंख्यक समाज की आस्था के अनुरूप देश के अल्पसंख्यकों में जो सद्भाव रहा है, उसे गलत दिशा देना यहां सियासतदारों का शगल रहा है। क्योंकि उन्हें समाधान से अधिक चिंता विवाद बनाए रखने की रही है। नब्बे के दशक में नरसिंह राव सरकार में अयोध्या विवाद के समाधान के प्रयास हुए कई बार सहमति चौैखट पर आयी लेकिन धर्मनिरपेक्षता अपने को आहत मानकर पैर पीछे हटायी रही। विश्व हिन्दू परिषद ने 1992 में ढांचा गिरने के पूर्व नरसिंह राव से मुलाकात कर निर्णयात्मक पहल करने का आग्रह किया। साधु-संतों का भी यही आग्रह था। मौनी बाबा (नरसिंह राव) ने सिर्फ इतना कहा कि कुछ होना चाहिए। ढांचा गिर गया तब कांग्रेस ने एक समिति बनाकर नेतृत्व चंद्रास्वामी को सौंप दिया, जिसे खुद कांग्रेस ने कबूल नहीं किया। 30 सितम्बर को आये फैसले को सकारात्मक पहल मानकर आगे बढ़ाये जाने की जरूरत है। लेकिन कांग्रेस और समाजवादी पार्टी को निर्णायक, सदभावपूर्ण कदम रास नहीं आ रहे हैं। उच्च न्यायालय ने दो आस्थाओं के बीच सहमति का सेतु बनाने की दिशा दिखायी है, जिसे पूरे मन से स्वीकार करने की आवश्यकता है। छोटे मन से बड़े काम नहीं हो सकते है। इसके लिए देश के सहोदरों को परस्पर विश्वास जताना होगा। रामजन्म भूमि तय हो जाने के बाद अब इस बात को सभी को स्वीकार करना होगा कि ऐसी परिस्थिति बनायी जाए जिससे भव्य राम मंदिर बनने का पथ प्रशस्त हो। सरयू के किनारे मस्जिद भी बने, कांग्रेस ने जिस तत्परता से बाबरी एक्शन कमेटी का गठन कराया था, उसी तत्परता से वह लखनऊ खंडपीठ के फैसले को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दिये जाने की व्याकुलता से प्रतीक्षा करती है, तो उसकी नीति और नीयत समझने में देर नहीं लगती। भारत में जो मुसलमान है, उन्हें अपनी सांस्कृतिक विरासत पर फक्र है, इसमें संदेह नहीं है। उनके हकों की अनदेखी नहीं की जाना चाहिए. फिर भी मुसलमानों को विस्तृत नजरिया से देखना होगा। प्रसन्नता की बात है कि यहां भी प्रवृद्ध मुसलमानों की कमी नहीं है। यह भी मानने लगा है कि रामजन्मभूमि गर्भगृह पर यदि फैसला हो चुका है और उसे न्यायिक मान्यता दी जा चुकी है तो फिर बीचों-बीच विवाद की जड़ एक तिहायी भूमि सुन्नी-वक्फ बोर्ड को भले ही सदाशयता में दी गयी हो, लेकिन उसकी सामाजिक उपयोगिता अथवा सार्थकता अधिक नहीं रह जाती है। इसका न्यायिक पक्ष भी सुप्रीम कोर्ट में यह हो सकता है कि एक तिहायी जमीन का प्रसंग तार्किक नहीं है। कांग्रेस सर्वोच्च न्यायालय में मामले को धकेलकर यदि इसी तर्क पर विवाद का फैसला कराकर इस विवाद को स्थायी बनाए रखने की तलफगार है, तो इसे राजनीति का बांझपन ही कहा जाएगा। परिस्थितियों ने पिछले शतक में जो मानसिक क्रूरता का दंश देश को दिया है, उससे मुक्ति मिलना चाहिए। राजनेता और इसके लिए दूरदर्शिता का परिचय देना चाहिए।

रामजन्मभूमि विवाद पर न्यायिक समीक्षा को लेकर एक बात ध्यान में आती है कि जब सर्वोच्च न्यायालय से तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने राय जानना चाही थी तब सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी राय देने से असमर्थता जता दी थी। न्यायालय का कहना था कि यह आस्था का विषय है। आज की राजनीति की निरर्थकता सामने आती है कि जो आस्था, जनविश्वास के मामले होते हैं, उससे राजनीतिक दल सियासी खुदगर्जी के कारण पीछे हट जाते हैं और न्यायालय को सौंप कर पिंड छुड़ाना चाहते हैं। लेकिन जब न्यायालय अपना फैसला देता है तो सरकारें उसे नीतिगत मामले में हस्तक्षेप बताने लगती है। सोमनाथ मंदिर के भव्य निर्माण का मार्ग तत्कालीन कांग्रेस नेतृत्व ने कानून बनाकर हल किया था। भव्य मंदिर के उद्घाटन में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ.राजेंद्र प्रसाद शामिल हुए थे। महात्मा गांधी ने भी इसे आस्था की अभिव्यक्ति बताया था। ऐसे में यदि केंद्र सरकार रामजन्मभूमि मामले का भव्यता से पटाक्षेप करने के लिए हस्तक्षेप करके आगे आती है और कानून सम्मत हल खोजती है तो यह सोने में सोहागा होगा। रामजन्मभूमि धर्म का नहीं विश्व मानवता की आस्था का प्रतीक।

3 COMMENTS

  1. rajneeti ka baanjhpan sarv sweekaary hai…kyonki raajneeti to vaaraangnaa hai jiski santati ydi hogi to varnshankar ….ya harami….so uske baanjhpan se samajik shuchita ki gunjaais abhi bhi hai.

  2. “रामजन्मभूमि विवाद, राजनीति के बांझपन का नतीजा ?” – by -भरतचंद्र नायक

    (१) अयोध्या के सभी, हिन्दू-मुस्लिम, निवासी अपने, अपनी अयोध्या के विकास और प्रगति के लिए क्या चाहते होंगे ?

    इसका कोई मान्य NGO सर्वे करवा कर प्रस्तुत कर सकता है ?

    (२) विराजमान मूर्ती को हटाने का कभी कोई प्रश्न उत्त्पन्न नहीं हो सकता और पूजा इसी प्रकार, इस दयनीय अवस्था में चलती रहेगी.

    (३) ऎसा कब तक चल सकता है – मुलायम सिंह, मनमोहन सिंह जी; ज़रा कल्पना करें, द्रेश-हित में सोचें ?

    (४) सभी अयोध्या निवासी आगे बढे और अपना निर्णय देश के सम्मुख प्रस्तुत करें कि वे राम जन्म- भूमि मंदिर कहाँ, कितने भूखंड में चाहेतें हैं ? फिर जिसको जो कहना हो कहता रहे ?

    Unilateral declaration of Ayodhya residents

    -अनिल सहगल –

  3. नायकजी: “ऐसे में यदि केंद्र सरकार रामजन्मभूमि मामले का भव्यता से पटाक्षेप करने के लिए हस्तक्षेप करके आगे आती है और कानून सम्मत हल खोजती है तो यह सोने में सोहागा होगा। रामजन्मभूमि धर्म का नहीं *’विश्व मानवता की आस्था’* का प्रतीक।”
    म. उवाच: *विश्व मानवता की आस्था* का अनुभूत उदाहरण। टिप्पणी, अस्थायी नहीं है।निम्न पढें।
    २००६ में मैंने –“सूरिनाम, गयाना, और त्रिनिदाद”— इन तीन देशोंका लग भग १६-१७ दिनका प्रवास किया था। मेरे आश्चर्यका पार नहीं था, जब मैं ने सुरीनाम में १५०-१७५ वर्ष वहां बिताने के बाद भी तुलसी रामायण के प्रति श्रद्धा का अनुभव किया। भव्य मंदिर देखें। मंदिरों में भोजपूरी हिंदी में भजन, वार्तालाप, प्रवचन सूने। रेडियो प्रोग्राम में एक साक्षात्कार(प्रश्नोत्तर) भी करने का अवसर मिला।हिंदी का पठन पाठन भी वहां चलता है। त्रिनिदाद और गयाना में भी “रामायण ग्रंथ” की अन्य मूर्तियों के समान पूजा की जाती है।ऊंची ऊंची हनुमान जी की(१२ से ३० फूट) खडी मूर्तियां,अनेक छतोंपर देखी। हर हिंदू के घर पर भगवा झंडा लगा देखा। — भरत चंद्र जी का धन्यवाद। हमारे राम विश्वके हैं, कुछ जानकारी के लिए, उचित समझा, इसलिए लिखा ।
    मंदिर यदि बनता है, तो उ. प्र. और अयोध्या में प्रवासियोंकी धूम मचेगी। प्रवासन बढेगा, वाणिज्यमें वृद्धि होगी। यात्रियों की सुविधा प्रदान करती सारी यंत्रणाएं पोषित होगी। रोज़गार बढेगा। ऐसा बना बनाया अवसर लाया जाता है, उसका विरोध करने वालों को क्या संज्ञा दें?

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