RAMJAAN में राम और दीपावली में बसते हैं अली
हिन्दू-मुसलमान को छोडो, हम बनकर करो भारत निर्माण
RAMJAAN और दीपावली, पूरा भारत देश मनाता है, लेकिन क्या किसी ने भी इन शब्दों में छिपे गूढ रहस्य को समझने का प्रयास किया है। धर्मों के ठेकेदारों ने तो सदैव जातिवाद और संप्रदायवाद की विष बेल ही तैयार की है। हिन्दू-मुसलमान एक अरसे से एक-दूसरे का खून बहाते आ रहे हैं, कारण क्या है, शायद इसका किसी को भी पता नहीं। बस, कहते हैं कि उसने मंदिर तोडा और इसने मस्जिद। मंदिर में राम थे तो मस्जिद में अल्ला मियां। मैं पूछता हूं कि राम-रहीम के इस पचडे में वो इंसां कहां गया जिसे अल्लाह और राम ने एक ही सांचे में ढालकर बनाया था ? रमजान और दीपावली यूं ही नहीं बने, इन्हें बनाने वाला भी वही है जिसने हामिद और हरीश को बनाया। वह यही सिखाता रहा कि मजहब की सरहद खींचकर मेरी बनायी गई नायाब नक्काशी इंसान को ना बांटो, मगर देखो ना, कैसे एक-दूसरे के खून के प्यासे बन बैठे हैं हम।
आखिर कब तक हम सियासी चालों में फंसकर अपनों का गला काटते रहेंगें ? आखिर कब तक हम मंदिर-मस्जिद के नाम पर बेकसूरों का कत्ल करते रहेंगे, कब तक ? मैं हमेशा देखता हूं कि राम-रहीम के बीच मजहबी फसाद कराने का मौका तलाशते रहते हैं ये सियासी दलाल। आखिर मैं हिन्दुओं से पूछता हूं कि कौन हैं भगवान श्रीराम ? क्या किसी भी हिन्दू ने उन्हें देखा है और यदि देखा है तो फिर वो कहां रहते हैं ? क्या मुसलमान यह बता सकते हैं कि अल्ला मियां ने कहां पर बैठकर यह कहा कि जिहाद के नाम पर बेकसूरों का खून बहा दो, अपनों को अपनों से ही जुदा कर दो। मेरे देश के पढे-लिखे बेवकूफों, इतनी सी बात तुम्हारी समझ में नहीं आती कि मेरा राम और तेरा अल्लाह दोनों एक ही हैं। हम हिन्दू दीपावली बडी धूमधाम से मनाते हैं, पूजा-पाठ करते हैं, आतिशबाजी छुडाते हैं लेकिन यह क्या दीपों के इस पर्व को तो अली ने ही साध रखा है। बिना अली शब्द के तो दीपावली का अर्थ भी पूरा नहीं होता। मुसलमान RAMJAAN का त्यौहार मनाते हैं, मस्जिद में जाकर खुदा के सदके में सिर झुकाते हैं और यह दुआ करते हैं कि या मालिक अमन-चैन कभी भी खत्म न हो। लेकिन यह क्या मेरे मुसलमान भाइयों, RAMJAAN की तो शुरूआत ही राम से होती है। अरे, जब हमारे त्यौहार राम-रहीम से जुदा नहीं हैं तो फिर हम कौन होते हैं एक-दूसरे का बंटवारा करने वाले।
मेरा मकसद किसी की धार्मिक भावना को ठेस पहुचाना नहीं है। और फिर मजहबी लोग तो हर सीधी बात का गलत मतलब निकाल लेते हैं। मैं तो बस यही समझाने का प्रयास कर रहा हूं कि यह देश इंसानों से बनता है हिन्दु और मुसलमानों से नहीं। हिन्दू-मुसलमान आखिर, हम, बनकर क्यों नहीं रहते हैं। मेरे भाइयों कब तक अयोध्या और बाबरी के नाम पर विनाश लीला करते रहोगे। देश की सियासत से जुडे वो भेडिए आखिर अपनी चुनावी रोटियां सेकने से पहले हमारे बारे में क्यों नहीं सोचते। सब अपनी-अपनी बात पर अडे हुए हैं। अरे, कोई हम नौजवानों से भी तो पूछे कि हमें मंदिर-मस्जिद नहीं, बल्कि अपने और अपने आगे आने वाली पीढियों के लिए बेहतर भविष्य चाहिए, नौकरी चाहिए, एक सुकून भरा समाज चाहिए जहां आने वाला कल हंस-खेलकर खेल सके। क्यों दहशत फैलाये बैठे हो। इन संगीनों से ना तो कुछ मिला है और ना ही कुछ मिलेगा। बंदूक से चलने वाली गोली मजहब देखकर नहीं चलती। जो बंदूक हिन्दू को मारती है वही गोली मुसलमान का भी रक्त बहाती है। मैं कहता हूं छोड दो ये सब कुछ। आओ हम मिलकर एक नये भारत की तासीर लिखें जहां सिर्फ हम हों, हम हों और हम हों।
जय हिन्द
वीरभान जी आपने अपने इस भावनात्मक लघु निबंध के जरिये बहुत कुछ कहने का प्रयास किया है,पर इसको समझने की कौन कहे,पढने वाले भी बहुत कम मिलेंगे. कौन है जो सुनेगा और समझेगा इन इंसानी जज्बों को?