रावण वध

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डॉ.सतीश कुमार

किसी ने श्री राम से पूछा, आपने रावण को मारा?
श्री राम ने कहा ,
मैंने नहीं “मैं ” ने रावण को मारा।

खा जाता है अहंकार विवेक को,
समझने लगते हैं श्रेष्ठ,
हम अपने आप को ही,
नीचा दिखाने के लिए दूसरों को ,
गाहे बगाहे करते हैं ,
ओछी हरकतें,
सोच ही नहीं पाते हम,
किसी भी क्षेत्र में ,
बेहतर हमसे किसी ने,
कुछ किया है ,
कोई कुछ भी बेहतर कर सकता है।

हमारी नजरों में,
आदि और अंत ,
हम ही होते हैं ,
न वर्तमान, न भविष्य में, हमारे जैसा ना कोई है,
ना होगा।

हम अकड़े रहते हैं,
चढ़ी रहती हैं तोरियां हमारी, सत्ता,पद ,पैसा और प्रतिष्ठा, के नशे में,
रहते हैं चूर हम, गर्दन झुकती ही नहीं हमारी,
हम स्वयं को ,
लेते हैं बैठा इतनी ऊंचाई पर,
कि बौने नजर आते हैं,
हमें सब ।

खास आदमी हैं हम,
वे आम लोग हैं ,
कीड़े मकोड़े,
औकात ही क्या है उनकी? वजूद भी क्या है उनका?
कर ही क्या सकते हैं वे?
पैदा ही हुए हैं वे,
कुचले जाने के लिए।

पर मदमस्त हाथी को,
एक छोटी -सी ,नन्हीं-सी, परास्त करती है चींटी ही,
विफल होने पर,
बार-बार भी,
चींटी करती है ,
प्रयास लगातार।
अंततः पा ही लेती है,
अपने निर्धारित लक्ष्य को।

सत्ता,पद ,प्रतिष्ठा
और पैसों से रहित ,
कमजोर न समझें ,
आमजन को।
इन्होंने ही किया है,
हमेशा सत्ता परिवर्तन।

बचें हमेशा जन आक्रोश से,
न ले परीक्षा इनके धैर्य की कभी।
गर अधीर हुए ये तो,
सोच ही नहीं सकते आप, कर सकते हैं क्या ये?
बस बात ठन जाये इनके मत में ,
कर सकते हैं ये सभी कुछ भी । कुछ भी ।।

1 COMMENT

  1. शानदार सर, शब्दों की अभिव्यक्ति एवं भावों का उत्कृष्ट उदाहरण है यह कविता

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