नक्सलवाद में कमी पर जड़ से सफाया जरूरी

– साल 1967 में शुरू हुई इस समस्या को जड़ से मिटाने में अब तक कोई भी सरकार पूरी तरह सफल नहीं हो पाई है। हालांकि सरकार का दावा है कि नक्सली हमलों में धीरे-धीरे कमी आ रही है और नक्सल प्रभावित इलाके लगातार सिमटते जा रहे हैं।
अमित बैजनाथ गर्ग

केंद्र और राज्य सरकारों का दावा है कि उनके कठोर रुख अपनाने के बाद नक्सलवाद की समस्या में लगातार कमी आ रही है। आंकड़े बताते हैं कि 2017 से लेकर आज तक नक्सल प्रभावित जिलों की संख्या लगातार घटी है। अगर नक्सली हिंसा में कमी की बात करें तो 2008 में 223 जिले नक्सल प्रभावित थे, लेकिन सरकार के प्रयासों से इनमें कमी आई और 2014 में यह संख्या 161 रह गई। वहीं 2017 में नक्सल प्रभावित जिलों की संख्या और घटकर 126 रह गई। छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा और बिहार को सबसे ज्यादा नक्सल प्रभावित राज्यों की श्रेणी में रखा गया है। पिछले कुछ सालों से नक्सली हमलों में हजारों लोगों की मौत हुई है। साल 1967 में शुरू हुई इस समस्या को जड़ से मिटाने में अब तक कोई भी सरकार पूरी तरह सफल नहीं हो पाई है। हालांकि सरकार का दावा है कि नक्सली हमलों में धीरे-धीरे कमी आ रही है और नक्सल प्रभावित इलाके लगातार सिमटते जा रहे हैं।
     नक्सलवाद यानी कि नक्सलवादी विचारधारा एक आंदोलन से जुड़ी हुई है। 1960 के दशक में कम्युनिस्टों यानी साम्यवादी विचारों के समर्थकों ने इस आंदोलन का आरंभ किया था। इस आंदोलन की शुरुआत पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिले के गांव नक्सलबाड़ी से हुई थी, इसलिए यह नक्सलवादी आंदोलन के रूप में चर्चित हो गया। इसमें शामिल लोगों को नक्सली कहा जाता है। नक्सलवाद बंगाल के नक्सलबाड़ी में विकास के अभाव और गरीबी का नतीजा है। इस आंदोलन के समर्थक भुखमरी, गरीबी और बेरोजगारी से आजादी की मांग करते रहे हैं। आजादी के बाद भूमि सुधार की पहल हुई थी, लेकिन यह कामयाब नहीं रही। नक्सलबाड़ी किसानों पर जमींदारों का अत्याचार बढ़ता चला गया। इसके बाद किसान और जमींदारों के बीच जमीन विवाद पैदा हो गया। 1967 में कम्युनिस्टों ने सत्ता के खिलाफ सशस्त्र आंदोलन की शुरुआत की, जो आज तक जारी है।
     इतिहासकारों का मानना है कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता चारू मजूमदार ने कानू सान्याल और जंगल संथाल के साथ मिलकर सत्ता के खिलाफ एक किसान विद्रोह कर दिया था। 60 के दशक के आखिर और 70 के दशक के शुरुआती दौर में नक्सलबाड़ी विद्रोह ने शहरी युवाओं और ग्रामीण लोगों दोनों के दिलों में आग लगा दी थी। देखते ही देखते यह आंदोलन बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल में आम हो गया और धीरे-धीरे ओडिशा, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र तक फैल गया। आजाद भारत में पहली बार किसी आंदोलन ने गरीब और भूमिहीन किसानों की मांगों को मजबूती दी, जिसने तत्कालीन भारतीय राजनीति की तस्वीर बदल दी। एक गांव और एक पुलिस स्टेशन से शुरू हुआ यह आंदोलन 20 राज्यों के 230 जिलों के 2,000 पुलिस स्टेशन तक फैल चुका था, जिसमें अब कमी आ रही है।
     कृषि संबंधी मुद्दों को लेकर जो आंदोलन शुरू किया गया था, आज वह सत्ता पर कब्जा करने के विचार और विचारधारा के साथ गति पकड़ चुका है। नक्सलवाद का सैन्यीकरण और इसका हिंसक रूप धारण करना सर्वाधिक चिंता का विषय बनता जा रहा है। सुरक्षा बलों के लिए नक्सलवाद सबसे बड़ी चुनौती है। वे इस संघर्ष में लगातार अपनी जान गंवा रहे हैं। रिटायर्ड आईपीएस के. सत्यनारायण की किताब ‘नक्सलवाद और समाज’ कहती है कि नक्सलवाद सामान्य अपराध नहीं है, न ही यह केवल कानून और व्यवस्था की समस्या है। नक्सलवादियों का सामाजिक आधार कानून और व्यवस्था की समस्या से कहीं आगे जाकर इसकी कहानी कहता है। बेरोजगार गरीब युवाओं, वंचित आदिवासियों, शोषित ग्रामीण के अलावा कई शिक्षित युवा भी हैं, जो नक्सलवाद के रास्ते पर निकल पड़े हैं। शहरी इलाकों के कुछ बुद्धिजीवी भी नक्सली विचारधारा के प्रति सहानुभूति रखते हैं। यह किसी भी सूरत में ठीक नहीं कहा जा सकता।
     हर बार नक्सलियों के हमले होते हैं और हर बार नेता से लेकर सुरक्षा बलों और आम आदमी तक की मौत होती है। इसके बावजूद हम समस्या का पूरी तरह से समाधान नहीं कर पाए हैं। सरकारों को इस बात को समझना होगा कि नक्सलवाद को जड़ से समाप्त करने के लिए कठोर फैसले लेने होंगे। सामाजिक प्रणाली में आई विकृतियों को दूर करना होगा, गरीबी उन्मूलन के लिए कदम उठाने होंगे और त्वरित विकास सुनिश्चित करना होगा। कानून और व्यवस्था को कड़ाई से लागू करना होगा। पुलिस बल को तकनीकी रूप से मजबूत बनाना होगा। केंद्र और राज्यों को मिलकर इस गंभीर समस्या का मुकाबला करना होगा। नक्सलवाद भयावह समस्या बन गई है, जिसके सफाए के लिए गंभीर कार्रवाई करनी होगी। भारत का अस्तित्व चुनौतियों का मुकाबला करने में पूरी तरह से सक्षम है, जिसे हमें मिलकर तय करना होगा।

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