क्षेत्रीयता पर कांग्रेस और उसके युवराज की दोहरी मानसिकता

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अखंड भारत न जाने कितने बार विभक्त हो चुका है ये तो शायद इतिहास के पन्ने पलटने से ही पता चल पाएगा। आजादी के पहले और बाद में भारत अपने कई हिस्से से अलग होता रहा है। यह भी सच है कि आजादी की कीमत के रूप में भारत के तीन टुकड़े कर दिया गया। उसके बाद भी विदेशी ताकतों की नजर जम्मू-कश्मीर से लेकर अरूणाचल प्रदेश तक बनी हुई है और शायद क भी उनके नापाक इरादे हकीकत मे भी बदल जाएं।

पर तेजी से बदलते परीदृश्य में अब खतरा बाहरी ताकतों के बजाय अंदरूनी राजनीति से यादा बढ़ गयी है। प्रादेशिक राजनीति ही हवा अब लू में बदल गयी है और देश को झूलसाने में आमादा है। छोटे-बड़े सभी राय में अब दोहरी नागरीक व्यवस्था लागू करने की बात कही जाने लगी है। काग्रेस जो आजादी से ही देश को विभक्त करने की राजनीति करती आ रही है आज भी उसी काम में लगी है। भले ही गांधी परिवार के चेहरे बदल गये है पर रवैया वही पुराना है और खेल वही आजमाया हुआ खेला जा रहा है ताकि अगले कई पुश्तों तक गांधी, नेहरू परिवार का कोई पर्याय उपज न पाए।

कांग्रेस के युवराज जब उत्तरप्रदेश और बिहार की खाख छान रहे थे और जोर गले से बोल रहे थे कि मैं उत्तर भारतीयों के साथ खड़ा हूं और रहूंगा तभी दूसरी ओर कांग्रेस शासित प्रदेश महाराष्ट्र में टैक्सियों पर मराठी मानुस की राजनीति का पारा गरम हो रहा था। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री ने हंसते-हंसते बड़े ही आसानी से कह दिया कि प्रदेश में वो ही टैक्सी चला पाएगा जिसे मराठी भाषा बोलनी, पढ़नी और लिखनी आती हो। इसी कड़ी में राहुल गांधी ने भी मराठी मानुस का कार्ड खेलते हुए युवक कांग्रेस की कमान महाराष्ट्र के युवा विधायक को सौंप दी। और तो और राहुल गांधी को उत्तर प्रदेश और बिहार का दौरा करने के बाद सीधे महाराष्ट्र ही दिखा। शायद उत्तर प्रदेश में दिए भाषणों को वे मराठी मानुषों के मन से निकालना चाहते हो, तभी उन्होंने वहां लोकल ट्रेन में भी सफर किया जिसके फोटों उन्होंने देशभर के हर अखबारों में छपवाया। मानना तो पड़ेगा कि वो मेहनत तो खूब कर रहे हो भले ही देश को तोड़ने के लिए क्यों न हो।

दूसरी ओर इस कदम में उनकी माताजी का भी भरपूर सहयोग मिल रहा है। यूपीए के रेल मंत्री ममता बैनर्जी जिन्हें भारतीय रेल के बजाय पश्चिम बंगाल के रेलमंत्री कहा जाए तो गलत न होगा। क्योंकि उनकी सारी योजनाएं सिर्फ पश्चिम बंगाल के लिए ही होती है और क्यों न हो अगले साल विधानसभा चुनाव जो होना है। जब तक लालू रेल मंत्री रहे रेलवे का ध्यान बिहार के तरफ रहा और अब बंगाल की तरफ पटरीयां मुड़ती जा रही है पर यूपीए को इससे कोई मतलब नहीं है। उन्हें बंगाल में कम्यूनिष्टों का पतन देखने की ज्‍यादा इच्छा है। हाल ही में सोनिया गांधी की विशेष फरमाइश पर ममता बैनर्जी ने एक साथ उत्तर प्रदेश और बिहार को 17 ट्रेनों की सौगात दे डाली और एक कोच फैक्ट्री बनाने की योजना उत्तर प्रदेश में रख दी। पर इस दौरान् हुए कार्यक्रम में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री कहीं भी नहीं दिखाई दी। शायद कांग्रेस और मायावती की दूरी इतनी बढ़ गयी है कि संवैधानिक मान्यताओं को भी उत्तर प्रदेश में भुला दिया जा रहा है। उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र दोनों ही ऐसे प्रदेश है जहां काफी संख्या में लोकसभा की सीटें है और शायद इसी लिए कांग्रेस पार्टी इन दोनों प्रदेशों को छोड़कर किसी दूसरे प्रदेश में अभी ध्यान नहीं देना चाहती है।

एक तरफ तो कांग्रेस नित सरकार महाराष्ट्र में राज ठाकरे जैसी ताकतों को हवा देने में लगी रहती है और उन्हें खुलेआम उत्तर भारतीयों पर हमला करने देती है और दूसरी तरफ यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी उन जख्मों पर मरहम लगाने को हमेशा आतुर दिखती है।

पर कहीं ये सारी व्यवस्थाएं केन्द्र और राय सरकारों की बीच दूरी इतनी न बढ़ा दे कि अलग रायों की तरह ही अलग देशों की मांग उठने लग जाए। छत्तीसगढ़ जैसे छोटे प्रदेशों में लगता है कि अब गांधी परिवार का कोई रूची नहीं रह गया है। तभी इन प्रदेशों का न तो वे दौरा करते है और न ही इन प्रदेशों के लिए कोई नई योजनाएं केन्द्र द्वारा बनाई जाती है। छत्तीसगढ, उत्तरांचल और झारखंण्ड ऐसे तीन प्रदेश है जो कि अपने बाल्यकाल से गुजर रहे है पर न तो इनके लिए कोई नई योजनाऐं अबतक लागू हो पायी है और ना ही यहां से किसी को केन्द्र में नेतृत्व करने का मौका मिल पा रहा है। शायद इन्ही कारणों के वजह से कांग्रेस को यहां इन प्रदेशों में हार का स्वाद भी बार-बार चखना पड़ रहा है।

राजनीति के दिग्गज मां-बेटे को कब इस क्षेत्रीयता से मुक्ति मिल पाएगी यह देखना लाजमी होगा और तब तक शायद हम जैसे छोटे प्रदेशों के नागरिको को केन्द्र सरकार की उपेक्षा ही झेलनी पड़ेगी।

– गोपाल सामंतो, ओम