राजनीति

आरक्षण का जिन्न एक बार फिर…

गंगा प्रसाद

 

देश में आरक्षण का जिन्न आजादी के पहले से चला आ रहा है। इसका जिक्र भी करूगा, कब से आरक्षण मिलना शुरू हुआ। लेकिन जिस तरह से गुजरात में एक बार फिर से जाति के आधार पर आरक्षण की लपटों ने आग लगाई है उस आग का असर आगे चल कर पूरे देश में दिखाई दे सकता है। ये तो आप सब जानते ही होंगे कि किस तरह से राजनीतिक लोगों ने आरक्षण की आग में अपनी-अपनी रोटियां सेकी हैं। ये बताने की जरूरत नहीं है। इसीलिए आज देश में जातिवाद के नाम पर पार्टी ही नहीं हैं। बल्कि वोट भी जाति वाद के नाम पर पड़ता है। सरकारे बदनाम भी जातिवाद से होती है। चाहे यूपी हो या बिहार यहां तो जातिवाद का जिन्न खास कर देखा जा सकता है। लेकिन विकसित राज्य गुजरात से अगर आरक्षण का जिन्न बाहर निकल कर आया है तो खतरे की घंटी जरूर बजा रहा है।

जिस गुजरात से पटेलों की आरक्षण की मांग उठी है। उस राज्य से गांधी और पटेल जैसे महापुरुष भी निकले हैं। जिन्होंने तय किया था कि किस आधार पर देश में गरीबों को एक समान राह पर लाकर खड़ा किया जा सकता है।तो फिर सवाल यही उठता है कि जिस गुजरात के पटेल समाज ने आरक्षण के लागू होने पर विरोध किया था आज वहीं पटेल एक 22 साल के हार्दिक पटेल नाम के युवा के कहने पर गुजरात के डायमंड शहर की सूरत ही बदल देता है। और हिंसा भड़क जाती है। जिसमें 7 लोगों की जान चली जाती है। जिसको हार्दिक पटेल जैसे लोग पुलिस और प्रशासन को जिम्मेदार ठहरा देते हैं। बात ठीक है इस तरह की घटनाओं में किसी ना किसी को नुकसान उठाना ही पड़ता है। और जिम्मेदार भी किसी ना किसी को ठहराया ही जाएगा।

लेकिन सवाल लाख टके का यही है कि गुजरात के पटेल आरक्षण की मांग कर क्यों रहे हैं? क्या इनके पास कारोबार नहीं है या फिर गुजरात के पटेल सक्षम नहीं हैं? गुजरात में 70 से 80 प्रतिशत कारोबार में पटेलों का कब्जा, इतना ही नहीं देश के बाहर भी पटेलों का अच्छा खासा कारोबार फल फूल रहा है। तो फिर सवाल यही कि इतना असंतोष क्यों? लेकिन आरक्षण की मांग अगर पूरी हो जाती भी है तो क्या इस पटेल सामाज का नौकरियों से पूरा पड़ जाएगा. जिस समाज का बाजार पेट नहीं भर पाया क्या उस समाज का सरकारी नौकरिया पेट भर देगीं?

हमारे देश में आज कुछ लोग इसी आरक्षण की राजनीति करके अपना जीवन अइयासी के साथ जी रहे हैं साथ ही प्रदेशों को अपनी जागीर समझ बैठे हैं उनको लगता है कि इस तरह से राजनीति नहीं करेंगे तो खाएंगे क्या और जो पुछलग्गू चार लोग पीछे-पीछे घूम रहे हैं उनको कैसे खिलाएंगे। इसलिए ऐसे जब भी आंदोलन खड़े होते हैं उनको समर्थन करने जरूर पहुंच जाते हैं अगर नहीं पहुंच पाते हैं तो मीडिया के माध्यम से या फिर 140 शब्द की चिडिया के जरिए जरूर पहुंच जाते हैं।

तो चलिए एक बार फिर से वहीं चलते हैं जिसका मैंने जिक्र किया था। यही की आरक्षण की सुरुवात कब से हुई थी। आरक्षण की सुरुवात आजादी के पहले 1902 में महाराष्ट्र के कोल्हापुर के महाराजा छत्रपति साहूजी महाराज ने पिछड़ी वर्ग से गरीबी दूर करने और राज्य प्रशासन में उन्हें हिस्सेदारी देने के लिए आरक्षण दिया गया था। गरीबी और अमीरों के बीच की दूरी कम करने के लिए पिछड़े वर्गों का आंदोलन सबसे पहले दक्षिण भारत, विशेषकर तमिलनाडू में जोर पकड़ा था। इस दूरी को पाटने के लिए रेत्तामलई श्रीनिवास पेरियार, अयोथीदास पंडितर, ज्योतिबा फूले, बाबा साहब अम्बेडकर, छत्रपति साहूजी महाराज और भी कई अन्य लोगों ने सुधारों को अमलीजामा पहनाने के लिए भरपूर कोशिश की। इन लोगों का मानना था कि जैसे-जैसे लोगों में सुधार होता जाएगा। लोग अपने आप आरक्षण का विरोध करने लगेंगे लेकिन ऐसा इसलिए नहीं हुआ क्योंकि आज राजनीति ही इस आरक्षण के रस में सद गई है। जिसको छुटाने के लिए पता नहीं कितना समय लगेगा। क्योंकि आज आरक्षण के बल पर नहीं जाति को देखकर राज्यों में नौकरी दी जाती है।

आपको बता दें कि 1882 में हंटर आयोग की नियुक्ति हई जिसमें महात्मा ज्योतिराव फुले ने निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा के साथ सरकारी नौकरियो में सभी के लिए आनुपातिक आरक्षण के साथ-साथ प्रतिनिधित्व की मांग की। इसके बाद 1902 में महाराष्ट्र के कोल्हापुर के महाराज ने आरक्षण लागू कर दिया, इसके पहले सामंती बड़ौदा और मैसूर की रियासतों में भी आरक्षण पहले से लागू कर दिया गया था।जिसके बाद ब्रिटिस सरकार ने 1908 में बहुत सारी जातियों और समुदायों में भी आरक्षण लागू कर दिया।

1909 में भारत सरकार अधिनियम 1909 के तहत आरक्षण का प्रावधान कर दिया गया था।1921 में मद्रास प्रेसीडेंसी ने जातिगत सरकारी आज्ञापत्र जारी किया जिसमें गैर ब्राह्मणों के लिए 44 प्रतिशत ब्राह्मणों के लिए 16 प्रतिशत, मुसलमानों के लिए 16 प्रतिशत, भारतीय एंग्लो/ईसाइयों के लिए 16 प्रतिशत और अनसूचित जातियों के लिए 8 प्रतिशत आरक्षण दिया गया था। आपको बता दे कि 1935 में पूना समझौता के आधार पर दलित वर्ग के लिए निर्वाचन क्षेत्र आवंटित किए गए थे।इसके बाद 1935 में भारत सरकार अधिनियम के तहत आरक्षण का प्रावधान कर दिया गया।

1942 में डॉ. बी आर अम्बेडकर ने अनुसूचित जातियों की उन्नति के लिए अखिल भारतीय दलित वर्ग महासंघ की स्थापना की। इसके बाद 1947 में भारत के स्वतंत्रता प्राप्त के बाद भारत सरकार ने संविधान में केवल धर्म, नस्ल, जाति, लिंग और जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव को दरकिनार करता है। बल्कि सभी नागरिकों के लिए समान अवसर प्रदान करते हुए समाजिक और शैक्षिण रूप से पिछले वर्गों या अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की उन्नति के लिए संविधान में विशेष प्रावधान किए गए हैं ।1979 में मंडल आयोग की स्थापना होती है। आयोग ने 1980 में एक रिपोर्ट पेश करती है जिसमें मौजूदा कोटा में बदलाव करते हुए 22 प्रतिशत से 49.5 प्रतिशत की बढ़ाने की सिफारिस की करता है।

1990 में मंडल आयोग की सिफारिशें तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने सरकारी नौकरियों में लागू कर दिया। जिसके बाद सरकार के खिलाफ अगड़ी जातियों के लोगों द्वारा देश व्यापी विरोध प्रदर्शन हुए। दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र राजीव गोस्वामी ने आरक्षण के विरोध में आग लगाकर आत्म हत्या कर ली थी।जिसका अनुसरण करते हुए अलग-अलग राज्यों में छात्रों ने ऐसे ही विरोध प्रदर्शन किए।इसके बाद 1991 में नरसिम्हा राव की सरकार ने अलग से अगड़ी जातियों में गरीबों के लिए 10 प्रतिशत का आरक्षण शुरू कर दिया। इसके बाद 1992 में इंदिरा साहनी मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अन्य पिछड़ी जातियों के आरक्षण को जायज ठहरा दिया।
लेकिन अब सवाल ये है कि अलग-अलग राज्यों में कई जातियों के लोगों ने इसी तरह से आंदोलन कर सरकारों पर आरक्षण देने के लिए मांग करते रहे हैं। जैसा कि हरियाणा में कई सालों से जाटों की आरक्षण की मांग चल रही है जिसको कोर्ट ने गलत करार देते हुए गंभीर टिप्पणी भी की है। इसके बाद भी जाटों की आरक्षण की मांग जारी है। इसी तरह से गुजरात में पटेलों को जाति के आधार पर इसलिए आरक्षण चाहिए की वो भी अब आरक्षण के दम पर इंजीनियर, डॉक्टर और भी कई तरह की सरकारी नौकरियों में पैर जमा सके। गुजरात आज जिस आरक्षण की आग में जल रहा है उसको सपोर्ट करने के लिए नीतीश कुमार जो जाति के कुर्मी है उतर गए और हार्दिक पटेल को समर्थन दे दिया। इसके साथ ही कई और मुख्यमंत्रियों ने भी समर्थन दिया। लेकिन सवाल ये है कि इतना बडा आंदोलन किसी के सपोर्ट के बिना नहीं खड़ा हो सकता। इसमे चाहे कांग्रेस के लोगों का हाथ हो या फिर बीजेपी के ही लोग जो अंदरूनी बिगड़े हुए हैं वो कर रहे हैं। इसके साथ ही ये भी कहा जा रहा है कि केजरीवाल का भी समर्थन प्राप्त है। जिसके कारण आज गुजरात आरक्षण की आग में झुलस रहा है। हार्दिक पटेल की भाषा पर गौर करें तो ऐसा लगता है कि जैसे नीतीश कुमार या फिर केजरीवाल की भाषा बोल रहे हैं। हम तो ले के रहेंगे। इससे कम में कोई बात नहीं होगी! अब देखना होगा कि सरकार क्या करती है। और केंद्र सरकार इस घटना से कैसे निपटती है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने जिस आधार पर आरक्षण को लेकर अभी हाल में टिप्पणी की है उससे तो यही लगता है कि आगे हार्दिक पटेल की आरक्षण की मांग भी धरासाही हो जाएगी।