-प्रमोद भार्गव-
आरक्षण की पुरानी मांग के मुद्दे पर राजस्थान सरकार की बेरुखी से आजिज गुर्जर समुदाय एक बार फिर आंदोलन की पटरी पर है। आरक्षण की रूढ़ हो चुकी परिपाटी को आगे बढ़ाने की जिम्मेबारी ‘गुर्जर आरक्षण आंदोलन समिति‘ के संयोजक कर्नल किरोड़ी सिंह बैसला निभा रहे हैं। इन्हीं के नेतृत्व में 23 मई 2008 सें 17 जून 2008 तक आरक्षण का यही उग्र आंदोलन परवान चढ़ा था। तब भी कोटा-दिल्ली रेलमार्ग पर स्थित पीलू पुरा आंदोलन का मुख्य स्थल था और इस बार भी यही स्थल है। तब इस आंदोलन ने जबरदस्त हिंसा का रूप ले लिया था। नतीजतन एक पुलिसकर्मी और 15 गुर्जर मारे गए थे, लेकिन आंदोलन का नतीजा शून्य रहा था। गुर्जर पांच प्रतिशत आरक्षण की मांग को लेकर संघर्शरत हैं। उनका तर्क है कि जब वसुंधरा राजे सिंधिया सरकार जाट समुदाय को एक दिन में आरक्षण दे सकती है तो गुर्जरों को क्यों नहीं ? गुर्जरों का तर्क अपनी जगह वाजिब हो सकता है, लेकिन हकीकत यह है कि जब आरक्षण रूढ़ परीपाटी बनकर रह गया है, तो इसका वास्तविक लाभ उन वंचित व जरूतमंदों को नहीं मिल पा रहा है, जो वास्तव में आरक्षण के हकदार हैं।
आर्थिक रूप से सक्षम व दबंग जातीय समूहों में आरक्षण की बढ़ती महत्वकांक्षा अब आरक्षण की राजनीति को महज पारंपरिक ढर्रे पर ले जाने का काम कर रही है। गोया, नैतिक रूप से एक समय आरक्षण का विरोध करने वाली, समाज में प्रतिष्ठित व संपन्न जातियां भी एक-एक करके आरक्षण के पक्षक्ष में आती दिखाई दे रही हैं। जाट जाति को जब राजस्थान और उत्तरप्रदेश में पिछड़े वर्ग की आरक्षण सूची में शामिल कर लिया गया था, तब उसका अनुसरण 2008 में गुर्जरों ने राजस्थान में किया था। तब राजस्थान की वसुंधरा सरकार ने हिंसक हो उठे आंदोलन को शांत करने की दृश्टि से पिछड़ा वर्ग के कोटे में गुर्जरों को 5 प्रतिशत अतिरिक्त आरक्षण देने का प्रावधान कर दिया था। किंतु आरक्षण का यह लाभ सर्वोच्च न्यायालय द्वारा आरक्षण की निर्धारित की गई सीमा से अधिक था, इस आधार पर राज्य सरकार के इस फैसले को राजस्थान उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई और अदालत ने आदेश पर रोक लगा दी। फिलहाल मामला विचाराधीन है। इसलिए सरकार ने मुद्दे से दूरी बनाते हुए साफ कह दिया है कि मामला हाईकोर्ट में लंबित है और हल न्यायालय से ही निकलेगा। सरकार के इस दो टूक उत्तर से खफा होकर गुर्जरों ने शुक्रवार को लाखों लीटर दूध सड़कों पर बहाकर अपना गुस्सा भी वसुंधरा सरकार के खिलाफ जता दिया है। कोई नतीजा नहीं निकलने के कारण आंदोलन का विस्तार पूरे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में दिखाई देने लगा है। आंदोलन पर नियंत्रण नहीं किया गया तो इसके हिंसक होने का खतरा है ?
आरक्षण के कमोवेश ऐसे ही संकट से महाराष्ट्र सरकार दो चार हो रही है। यहां की सत्ताच्युत हुई कांग्रेस और राकांपा गठबंधन सरकार ने विधानसभा चुनाव के ऐन पहले वोट-बटोरने की दृश्टि से मराठों को 16 फीसदी और मुसलमानों को 5 फीसदी आरक्षण दे दिया था। इसे तत्काल प्रभाव से शिक्षक्षा के साथ सरकारी और गैर-सरकारी नौकरियों में भी लागू कर दिया गया था। इस प्रावधान के लागू होते ही महाराष्ट्र में आरक्षण की सीमा 52 प्रतिशत से बढ़कर 73 फीसदी हो गई थी। यह व्यवस्था भी संविधान के उस बुनियादी सिद्धांत के विरूद्ध थी, जिसके अनुसार 50 फीसदी से ज्यादा आरक्षण का लाभ नहीं दिया जा सकता है। इस आरक्षण को देते समय सरकार ने चतुराई बरतते हुए ‘मराठी उपराष्ट्रीयता‘ का एक विशेश प्रवर्ग भी बनाया था। किंतु इस प्रकृति के टोटके संविधान की कसौटी पर खरे नहीं उतरते हैं, क्योंकि संविधान में धर्म और उपराश्ट्रीयताओं के आधार पर आरक्षण देने का कोई प्रावधान नहीं है। गोया यह मामला भी महाराष्ट्र उच्च न्यायालय में लटका पड़ा है।
वैसे मौजूदा परिदृश्य में गुर्जर, जाट और मराठा समुदाय ऐसे गए गुजरे नहीं रह गए हैं कि उन्हें आर्थिक उद्धार के लिए आरक्षण की वाकई जरूरत है ? राजस्थान, हरियाणा और उत्तरी उत्तर प्रदेश में ये जाति समुदाय न केवल राजनीतिक दृश्टि से बल्कि आर्थिक, सामाजिक व शैक्षिक नजरीए से भी उच्च व धनी तबके हैं। महाराष्ट्र में यही स्थिति मराठों की है। सत्तर के दशक में आई हरित क्रांति ने भी इन्हीं समुदायों के पौ-बारह किए हैं। लिहाजा ये तबके हर स्तर पर सक्षक्षम हैं।
वैसे भी आरक्षण की लक्षक्ष्मण रेखा का जो संवैधानिक स्वरूप है, उसमें आरक्षण की सीमा को 50 फीसदी से ऊपर नहीं ले जाया सकता है। बावजूद यदि गुर्जरों को आरक्षण मिल भी जाता है तो यह वंचितों और जरूरतमंदों की हकमारी होगी। आरक्षण के दायरे में नई जातियों को शामिल करने की भी सीमाएं सुनिश्चित हैं। कई संवैधानिक अड़चनें हैं। किस जाति को पिछड़े वर्ग में शामिल किया जाए, किसे अनुसूचित जाति में और किसे अनुसूचित जनजाति में संविधान में इसकी परिभाशित कसौटियां हैं। इन कसौटियों पर किसी जाति विशेष की जब आर्थिक व सामाजिक रूप से दरिद्रता पेश आती है, तब कहीं उस जाति के लिए आरक्षण की खिड़की खुलने की संभावना बनती है। इसके बाद राष्ट्रपति का अनुमोदन भी जरूरी होता है।
हालात ये हो गए हैं कि आरक्षण का अतिवाद अब हमारे राजनीतिकों में वैचारिक पिछड़ापन बढ़ाने का काम कर रहा है। नतीजतन रोजगार व उत्पाद के नए अवसर पैदा करने की बजाय, हमारे नेता नई जातियां व उप-जातियां खोज कर उन्हें आरक्षण के लिए उकसाने का काम कर रहे हैं। यही वजह थी कि मायावती ने तो उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणों तक को आरक्षण देने का शगूफा छोड़ दिया था। आरक्षण के टोटके छोड़ने की बजाय अच्छा है सत्तारूढ़ नेता रोजगार के अवसर उपलब्ध नौकरियों में ही तलाशने की शुरूआत कर दें तो शायद बेरोजगारी दूर करने के कारगर परिणाम चल निकलें ? इस नजरिए से तत्काल नौकरी पेशाओं की उम्र घटाई जाए, सेवानिवृतों के सेवा विस्तार और प्रतिनियुक्तियों पर प्रतिबंध लगाया जाए ? वैसे भी सरकारी दफ्तरों में कंप्युटर व इंटरनेट तकनीक का प्रयोग जरूरी हो जाने से ज्यादातर उम्रदराज कर्मचारी अपनी योग्यता व कार्यक्षमता खो बैठे हैं। लिहाजा इस तकनीक से त्वरित प्रभाव और पारदर्शिता की जो उम्मीद थी, वह इसलिए कारगर नहीं हो पाई, क्योंकि तकनीक से जुड़ने की उम्रदराज कर्मचारियों में न तो कोई जिज्ञासा है और न ही बाध्यता ?
साथ ही यह प्रावधान में सख्ती से लागू करने की जरूरत है, कि जिस किसी भी व्यक्ति को एक मर्तबा आरक्षण का लाभ मिल चुका है, उसकी संतान को इस सुविधा से वंचित किया जाए। क्योंकि एक बार आरक्षण का लाभ मिल जाने के बाद, जब परिवार आर्थिक रूप से संपन्न हो चुका है तो उसे खुली प्रतियोगिता की चुनौती मंजूर करनी चाहिए। जिससे उसी की जाति के अन्य युवा को आरक्षण का लाभ मिल सके। इससे नागरिक समाज में सामाजिक समरसता का निर्माण होगा, नतीजतन आर्थिक बद्हाली के चलते जो शिक्षक्षित बेरोजगार कुंठित हो रहे हैं, वे कुंठा मुक्त होंगे। जातीय समुदायों को यदि हम आरक्षण के बहाने संजीवनी देते रहे तो न तो जातीय चक्र टूटने वाला है और न ही किसी एक जातीय समुदाय का समग्र उत्थान अथवा कल्याण होने वाला है। स्वतंत्र भारत में बाह्मण, क्षक्षत्रीय, वैश्य और कायस्थों को निर्विवाद रूप से सबसे ज्यादा सरकारी व निजी क्षक्षेत्रों में नौकरी करने के अवसर मिले, लेकिन क्या इन जातियों से जुड़े समाजों की समग्र रूप में दरिद्रता दूर हुई ? यही स्थिति अनुसूचित जाति व जनजातियों की है। दरअसल आरक्षण को सामाजिक असमानता खत्म करने का अस्त्र बनाने की जरूरत थी, लेकेन हमने इसे भ्रामक प्रगति का साध्य मान लिया है। नौकरी पाने के वही साधन सर्वग्राही व सर्वमंगलकारी होंगे, जो खुली प्रतियोगिता के भागीदार बनेंगे। अन्यथा आरक्षण के कोटे में आरक्षण को थोपने के उपाय तो जातिगत प्रतिद्वंद्विता को ही बढ़ाने का काम करेंगे।