आरक्षण: दलितों में क्रीमीलेयर तो अभी गिनती के हैं!

इक़बाल हिंदुस्तानी

पिछड़ों का कोटा कम होने से इसकी ज़रूरत वहां वाजिब थी!

देश में एक वर्ग ऐसा मौजूद है जो इस सच को आज भी समझने को तैयार नहीं है कि आरक्षण उसके साथ अन्याय नहीं बलिक उनके साथ आंशिक न्याय है जिनके साथ सदियों से या तो जानबूझकर नाइंसाफी की गयी है या फिर खुद ही वे तरक्की की दौड़ में पिछड़ गये। जो पिछड़ गये उनका दावा है कि जब सिस्टम ही ऐसा बना रखा था कि कुछ लोगों को पिछड़ना ही था तो इसमें उनका क्या क़सूर और जो लोग आगे बढ़ गये उनका कहना है कि यह तो होता ही है कि अपने नाकारापन या अयोग्यता से कोर्इ तबका पिछड़ जाता है तो वह इसका दोष दूसरों को देता है। हम यहां इस बहस में नहीं पड़ना चाहते कि इसके लिये वास्तव में कौन जि़म्मेदार है।

सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दायर करके यह मांग की गयी है कि जिस तरह से पिछड़ों के क्रीमीलेयर वर्ग को आरक्षण से बाहर रखा गया है उसी तरह से दलितों के भी खातेपीते वर्ग को आरक्षण के लाभ से वंचित किया जाना चाहिये। हालांकि पिछड़ों की जनगणना पूरी होने और आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत से बढ़ाकर उनको उनकी जनसंख्या के अनुसार रिज़र्वेशन नहीं दिये जाने तक इस बात पर भी विवाद चला आ रहा है कि उनको क्रीमीलेयर के बहाने आरक्षण से बाहर रखना कितना ठीक है लेकिन जहां तक अनुसूचित और अनुसूचित जनजातियों का सवाल है, उनका तो आरक्षण का आधार ही अलग है। याचिका में आरोप लगाया गया है कि आज़ादी के बाद से लागू दलित आरक्षण से अनेक एससी एसटी जातियों ने भरपूर लाभ उठाकर अपनी आर्थिक सिथति इतनी मज़बूत कर ली है कि अब उनको आगे आरक्षण का लाभ नहीं मिलना चाहिये। केंद्र सरकार ने इस बारे में रिपोर्ट देने को 1965 में लोकुर कमैटी भी बनार्इ थी जिसने कुछ दलित जातियों को आरक्षण से बाहर करने का सुझाव दिया था। इसके बाद 2008 में एक बार फिर से उूषा मेहरा आयोग इस मामले में राय देने के लिये गठित किया गया। इस कमीशन की अनुशंसाएं भी कुछ इसी तरह की थी कि दलितों की भी क्रीमीलेयर को रिज़र्वेशन से अलग रखा जाये। बिहार में भी वहां की सरकार ने एक आयोग की अनुशंसा पर दलित और महादलित की अवधारणा पर चलते हुए एक तरह से दलितों में क्रीमीलेयर की बात स्वीकार कर ली थी लेकिन वहां इसको वोटों की राजनीति से जोड़कर रामविलास पासवान को कमज़ोर करने का हथकंडा माना गया जिससे बात आगे नहीं बढ़ सकी। दलितों में क्रीमीलेयर की मांग करते हुए यह तर्क दिया जाता है इस जाति के अनेक लोग लंबे समय से पीढ़ी दर पीढ़ी आइएएस पीसीएस बनते चले आ रहे हैं जिससे अब उनको तो कम से कम आरक्षण की ज़रूरत नहीं है।

कभी कभी आधा सच पूरे झूठ से भी ख़तरनाक होता है। यह बात सुनने में भले ही ठीक लगती हो कि जिन लोगों को आरक्षण का इतना लाभ मिल गया कि वे अब अपने पैरों पर खड़े होकर देश के संसाधनों, आर्थिक, राजनैतिक, शैक्षिक और पद प्रतिष्ठा के मामले में अन्य जातियों के बराबर आ गये हैं, उनको आरक्षण की क्या ज़रूरत है लेकिन यह नहीं भूलना चाहिये कि आरक्षण उनको छुआछूत और पक्षपात रोकने के लिये दिया गया है। दलित लोगों का जब आज तक निर्धारित 22.5 प्रतिशत कोटा पूरा भरा ही नहीं जा सका है ऐसे में उनमें से क्रीमीलेयर को बाहर करने की मांग एक तरह से आरक्षण के खिलाफ साजि़श ही मानी जायेगी क्योंकि जो थोड़े बहुत दलित अपनी सिथति मज़बूत हो जाने से इस लाभ को लेने लायक बने भी हैं जब वे वंचित हो जायेंगे तो कौन आरक्षण लेगा?

यूपी की सीएम बहन मायावती जी ने आरक्षण को लेकर केन्द्र सरकार को हाल ही में जो चिटिठयां लिखी हैं उनका अलग अलग मतलब निकाला जा रहा है लेकिन उनकी बात को अगर सियासी चश्मे से न देखा जाये तो काफी दम नज़र आता है। उनका कहना है कि मुसलमानों , गरीब सवर्णों, जाटों को भी आरक्षण दिया जाना चाहिये और दलितों को कोटा बढ़ाकर निजी क्षेत्र में भी रिज़र्वेशन मिलना चाहिये । उनके विरोधियों का दावा है कि बहनजी ये सब मांगे यूपी के चुनाव नज़दीक आता देखकर कर रही हैं। हमारा सवाल है कि लोकतंत्र में चुनाव क्या इसीलिये नहीं रखे गये हैं कि सरकारें और राजनीतिक दल जनता के सामने जब वोट मांगने जायें तो इसकी पूरी तैयारी करके जायें कि जनता उनसे क्या चाहती है?

यह बात अपने आप में बिल्कुल ठीक है कि आदर्श समाज वह होता है जिसमें किसी वर्ग या जाति को आरक्षण की ज़रूरत ही न पड़े लेकिन यह भी कड़वी सच्चार्इ है कि हमारे देश में हज़ारों साल तक कुछ लोगों के साथ पक्षपात और अन्याय हुआ है जिसकी वजह से वे विकास और प्रगति की दौड़ में काफी पीछे रह गये। अगर किसी को समाज की मुख्य धारा में लाने के लिये रिज़र्वेशन की ज़रूरत पड़ती है तो उसे उसका हक़ दिया जाना चाहिये। विकास का सही पैमाना यही माना जाता है कि सभी मिलजुलकर आगे बढ़ें अगर समाज का कोर्इ भी वर्ग तरक्की में पीछे रह जायेगा तो देश कभी भी आगे नहीं बढ़ सकता। हालांकि शुरू में दलितों को आरक्षण केवल दस वर्ष के लिये देने का फैसला किया गया था लेकिन जब यह देखा गया कि जिस मकसद से यह रिज़र्वेशन दिया गया था वह अभी पूरा नहीं हुआ तो इसको आगे बढ़ा दिया गया।

जहां तक मुसलमानों को आरक्षण दिये जाने का सवाल है इसके लिये आंध्रा, केरल से लेकर बंगाल तक में यह कवायद काफी दिन से चल रही है लेकिन मामला कोर्ट में पहुंच जाने से आज तक इसकी असली शक्ल सामने नहीं आ पार्इ है। केंद्र सरकार भी बहुत समय से यह ऐलान कर रही है कि अल्पसंख्यकों विशेषरूप से मुसलमानों की जीवन के हर क्षेत्र में हालत बेहद ख़राब हो चुकी है इसलिये उनको सरकारी सेवाओं और शैक्षिक संस्थाओं में आरक्षण दिया जायेगा। सच्चर कमैटी की रिपोर्ट भी आये काफी समय बीत चुका है। सरकार इस रिपोर्ट से सहमत भी बतार्इ जाती है लेकिन फिर भी इस पर अमल को लेकर आज तक आरक्षण की प्रक्रिया शुरू नहीं की गयी है। जो यूपीए सरकार यूपी की सीएम और अन्य गैर कांग्रेसी सरकारों पर आरक्षण को लेकर राजनीति करने का आरोप लगाती है वह खुद इस बारे में कोर्इ ठोस कार्यवाही क्यों नहीं करती ? इसका जवाब शायद यह हो सकता है वह भी सेंटर के चुनाव का इंतज़ार कर रही है ताकि उस समय इस मामले को लागू न कर पाने के बावजूद केवल ऐलान करके ही वोटों में बदला जा सके। हम तो कहते हैं कि अगर यह काम इलैक्शन के दबाव में भी हो जाता है तो कोर्इ बुरार्इ नहीं है क्योंकि राजनीति तो आज सभी दलो की होती ही वोटों की है लेकिन देशहित और समाजहित के खिलाफ इसका उपयोग नहीं किया जाना चाहिये। मनमोहन सरकार को चाहिये कि वह आरक्षण की गेंद राज्यों के पाले में न फैंककर जो संभव हो सकता है उसको संजीदगी से करने की कोशिश करे और जब संविधान में पहले ही इतने संशोधन हो चुके हैं तो जिस वर्ग के लिये आरक्षण अब वह ज़रूरी समझती है उसके लिये संविधान में एक और संशोधन करदे तो क्या बुरार्इ है।

ये फूल मुझे कोर्इ विरासत में मिले हैं,

तुमने मेरा कांटोंभरा बिस्तर नहीं देखा।

 

 

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इक़बाल हिंदुस्तानी
लेखक 13 वर्षों से हिंदी पाक्षिक पब्लिक ऑब्ज़र्वर का संपादन और प्रकाशन कर रहे हैं। दैनिक बिजनौर टाइम्स ग्रुप में तीन साल संपादन कर चुके हैं। विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में अब तक 1000 से अधिक रचनाओं का प्रकाशन हो चुका है। आकाशवाणी नजीबाबाद पर एक दशक से अधिक अस्थायी कम्पेयर और एनाउंसर रह चुके हैं। रेडियो जर्मनी की हिंदी सेवा में इराक युद्ध पर भारत के युवा पत्रकार के रूप में 15 मिनट के विशेष कार्यक्रम में शामिल हो चुके हैं। प्रदेश के सर्वश्रेष्ठ लेखक के रूप में जानेमाने हिंदी साहित्यकार जैनेन्द्र कुमार जी द्वारा सम्मानित हो चुके हैं। हिंदी ग़ज़लकार के रूप में दुष्यंत त्यागी एवार्ड से सम्मानित किये जा चुके हैं। स्थानीय नगरपालिका और विधानसभा चुनाव में 1991 से मतगणना पूर्व चुनावी सर्वे और संभावित परिणाम सटीक साबित होते रहे हैं। साम्प्रदायिक सद्भाव और एकता के लिये होली मिलन और ईद मिलन का 1992 से संयोजन और सफल संचालन कर रहे हैं। मोबाइल न. 09412117990

1 COMMENT

  1. इक़बाल जी अच्छा लेख लिखा

    आरक्षण देना ना देना ये सब तो शियाशी हथकंडे है इन हथकंड़ो के खेल में सारी आबादी खेल भी रही है और झेल भी रही है .

    सीधी बात किसी को समझ में नहीं आती हो सकता है मेरी समझ में ही खोट हो.

    सरकारे कहती है गधे को घोडा बनाना है अब बेचारे गधे घोडा बनाने को व्याकुल है किन्तु ६५ सालो के बाद भी बेचारे गधे ही रहे कुछ तो गयेगुजरे हो गए यह है सर्कार का असली खेल क्योकि सरकारों को पता है गधे घोड़े नहीं बन सकते यही सरकारे चाहती है की गधे गधे ही बने रहे यदि ऐसा नहीं है तो गधो को भरपेट पौष्टिक भोजन दे दीजिये फिर देखिये यही गधे कैसे घोड़ो से आगे निकलते है .

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