आरक्षण, धर्मनिरपेक्षता एवं अल्पसंख्यकों का विरोध असंवैधानिक / डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’


सर्वप्रथम
हमें यह समझना होगा कि हमारे देश के विभाजन के समय हमारे तत्कालीन नेतृत्व ने सभी धर्मावलम्बियों तथा आदिवासियों एवं दलितों को आश्वस्त किया था कि वे भारत में रहना चाहें तो अवश्य रहें। उन्हें और उनकी धार्मिक आस्थाओं को किसी भी प्रकार की क्षति नहीं पहुँचने दी जायेगी। इसी विश्वास पर भरोसा करके दलित-आदिवासियों सहित; मुस्लिमों और कुछ क्रिश्चन परिवारों ने भारत को ही अपना राष्ट्र माना और हमारे पूर्वजों ने अपनी वचनबद्धता पर खरे उतरते हुए, भारत को धर्मरिनपेक्ष राष्ट्र घोषित किया।

आज के समय में अनेक लोगों को ज्ञात ही नहीं है कि दलित, आदिवासी, पिछडों द्वारा भी अलग राष्ट्र की मांग की गयी थी, जिसे डॉ. भीमराव अम्बेडकर के नेतृत्व में ब्रिटिश प्रधानमन्त्री, मोहनदास कर्मचन्द गाँधी एवं मोहम्मद अली जिन्ना के समक्ष विचारार्थ प्रस्तुत करने के बाद यह तय हुआ कि डॉ. अम्बेडकर अलग राष्ट्र की मांग छोड देंगे और इसके बदले में भारत के मूल निवासी आदिवासियों, दलितों और पिछडों को सत्ता में संवैधानिक तौर पर हिस्सेदारी दी जायेगी। इसे सुनिश्चित करने के लिये तत्कालीन ब्रिटिश सरकार सहित सभी पक्षों ने आदिवासी एवं दलितों के लिये सेपरेट इल्क्ट्रोल की संवैधानिक व्यवस्था स्थापित करने को सर्व-सम्मति से स्वीकृति दी। इन दोनों वचनबद्धताओं पर विश्वास करके इस देश में अल्पसंख्यक एवं आदिवासी व दलित साथ-साथ भारत में रहने को राजी हुए। लेकिन मोहनदास कर्मचन्द गाँधी, जिन्हें कुछ लोग भ्रमवश या अन्धभक्ति के चलते या अज्ञानतावश सत्य का पुजारी एवं राष्ट्रपिता कहने की गलती करते आ रहे हैं, उसने ब्रिटेन से भारत लौटते ही डॉ. अम्बेडकर के साथ हुए समझौते को इकतरफा नकार दिया एवं सैपरेट इलेक्ट्रोल के अधिकार को छोडने के लिये डॉ. अम्बेडकर दबाव बनाने के लिये भूख हडताल शुरू कर दी। जो लोग ऐसा मानते हैं, कि गाँधी इंसाफ के लिये उपवास या अनशन करते थे, वे यह जान लें कि सदियों से शोषित एवं अपमानित आदिवासी एवं दलितों के हकों को छीनने के लिये भी गाँधी ने उपवास शुरू कर दिया और मरने को तैयार हो गये। जिसका तत्कालीन गाँधीवादी मीडिया ने खुलकर समर्थन किया और अन्नतः डॉ. अम्बेडकर से गाँधी सेपरेट इलेक्ट्रोल का हक देने से पूर्व ही छीन लिया और जबरन आरक्षण का झुनझुना डॉ. अम्बेडकर के हाथ में थमा दिया। जबकि आरक्षण आदिवासी एवं दलितों कभी भी मांग का हिस्सा या ऐजेण्डा नहीं था। ऐसे में गाँधी के धोखे एवं कुटिल चलाकियों में फंसकर देश की करीब 30 प्रतिशत आदिवासी एवं दलित आबादी इस देश की ही नागरिक तो बनी रही, लेकिन इस विश्वास के साथ कि उन्हें शिक्षण संस्थाओं में एवं सरकारी सेवाओं में उनकी जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण प्राप्त होता रहेगा। जिसके लिये संविधान में अनेक उपबन्ध एवं अनुच्छेद जोडे गये। इसी प्रकार से संवैधानिक तौर पर भारत आज भी धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है और हर व्यक्ति को यहाँ पर धार्मिक आजादी है। लेकिन हिन्दूवादी कट्टरपंथियों और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर अल्पसंख्यक तुष्टिकरण को बढावा देने वाले राजनैतिक दलों ने धर्मनिरपेक्षता के स्वरूप को विकृत कर दिया है।

आगे लिखने से पूर्व साफ कर दूँ कि मैं मुस्लिम या इस्लाम या अन्य किसी भी धर्म के प्रति तनिक भी पूर्वाग्रही या दुराग्रही नहीं हूं। मैं पूरी तरह से धर्म-निरपेक्ष, मानवतावादी एवं इंसाफ पसन्द व्यक्ति हूं। सारी दुनिया जानती है कि भारत का संविधान धर्मनिरपेक्षता के सिद्धान्त पर खडा है। जब तक भारत में यह संविधान लागू है, इस देश में किसी को भी संविधान से खिलवाड करने का हक नहीं है। बल्कि संविधान का पालन करना हर व्यक्ति का संवैधानिक एवं कानूनी दायित्व है। इस देश में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति को धर्मनिरपेक्षता को मानना और लागू करना ही होगा, जिसका तात्पर्य है कि-किसी भी धर्म के साथ सरकार, जन प्रतिनिधियों और लोक सेवकों को किसी भी प्रकार का कोई सरोकार नहीं होना चाहिये। यहाँ तक कि हज के लिये सब्सीडी तो दी ही नहीं जानी चाहिये, लेकिन साथ ही साथ किसी भी सरकारी इमारत की आधारशिला रखते समय गणेश पूजा या नारियल तोडने का कार्य भी इनके द्वारा नहीं करना चाहिये। राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री, मन्त्री, मुख्यमन्त्री और लोक सेवक की कुर्सी संभालते समय मन्त्रोचार या कुरआन की आयतों या बाईबल का पठन भी नहीं किया जाना चाहिये, जैसा कि वसुन्धरा राजे एवं उमा भारती ने मुख्यमन्त्री पद संभालते समय किया था। इन दोनों राजनेत्रियों ने मुख्यमन्त्रियों के रूप में संविधान के पालन और सुरक्षा की शपथ ग्रहण करते ही संविधान की धज्जियाँ उडाते हुए हिन्दू धर्म के कथित सन्तों के चरणों में वन्दना करके संविधान के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को तहस नहस कर दिया।

इस देश में केवल हिन्दू-मुसलमान ही नहीं, बल्कि सभी दिशाओं में असंवैधानिक काम चल रहे हैं। यही नहीं सरकारी कार्यालयों में कार्यालयीन समय में गणेश, शिवजी, हनुमानजी, दुर्गा आदि की मूर्तियाँ या चित्र स्थापित हैं, जिनकी लोक सेवकों द्वारा वाकायदा प्रतिदिन पूजा की जाती है और प्रसाद भी वितरित किया जाता है। सबसे दुःखद तो यह है कि गणेश, शिवजी, हनुमानजी, दुर्गा के आदर्शों या जीवन से प्रेरणा लेकर जनता की या देश की सेवा करने वाला इनमें एक भी लोक सेवक नहीं हैं। सबके सब अपने कुकर्मों से मुक्ति पाने के लिये प्रतिदिन पूजा-आरती का नाटक करते हैं। जिसके लिये मुनवादी व्यवस्था जिम्मेदार है, जो पाप करे, पाप से प्रायश्चित करने के पूजा-आरती रूपी समाधान सुझाती रही है। यह सब असंवैधानिक और गैर कानूनी तो है ही, साथ ही साथ लोक सेवक के रूप में पद ग्रहण करने से पूर्व ली जाने वाली शपथ का भी खुलेआम उल्लंघन है। जबकि एक भी सरकारी कार्यालय में मक्का-मदीना, प्रभु यीशू, बुद्ध या महावीर का चित्र नहीं मिलेगा! केवल ब्राह्मणवादी एवं मुनवादी धर्म को ही हिन्दू धर्म का दर्जा दिया गया है, जबकि गहराई में जाकर देखें तो इस देश में ब्राह्मणों सहित आर्य उद्‌गत वाली कोई भी नस्ल हिन्दू है ही नहीं, लेकिन इन्हीं के द्वारा कथित हिन्दू धर्म पर जबरिया कब्जा किया हुआ है। दूसरी ओर इस देश की निकम्मी जनता जागकर भी सोई हुई है। अतः यह सब कुछ गैर-कानूनी और असंवैधानिक दुष्कृत्य हजारों वर्षों से चलता आ रहा है और आगे भी लगातार चलता ही रहेगा। लोगों को अपने साथ होने वाले अत्याचार, व्यभिचार, शोषण, जातिगत, वर्गगत और बौद्धिक व्यभिचार तक की तो परवाह नहीं है। ऐसे में वे उस हिन्दू धर्म की क्या परवाह करेंगे, जिसका उल्लेख किसी भी प्रमाणिक धार्मिक ग्रंथ (चारों वेदों) में तक नहीं किया गया है।

इसके अलावा यह भी स्पष्ट करना कहना चाहँूगा कि कथित हिन्दू धर्म के प्रवर्तक एवं संरक्षकों द्वारा 20 प्रतिशत हिन्दुओं को मन्दिरों में प्रवेश तक नहीं करने दिया जाता है। मन्दिरों में प्रवेश करने से मुसलमान नहीं रोकते, बल्कि ब्राह्मण एवं मनुवादी मानसिकता का अन्धानुकरण करने वाले हिन्दू ही रोकते हैं। मध्य प्रदेश के आदिवासी बहुल झाबुआ जिले में आदिवासियों का शोषण मुसलमान नहीं करते, बल्कि मनुवादी हिन्दू ही करते हैं। ऐसे में हिन्दूवाद को बढावा देने वाले दलित-आदिवासियों से अपने पक्ष में खडे रहने की उम्मीद किस नैतिकता के आधार पर कर सकते हैं। अजा एवं अजजा की देश में करीब 30 प्रतिशत आबादी है, लेकिन इन वर्गों के हितों पर हमेशा कुठाराघात उच्चपदों पर आसीन सवर्ण हिन्दुओं द्वारा किया जाता है। यदि कोई भी व्यक्ति वास्तव में निष्पक्ष और न्यायप्रिय है तो यह जानकर आश्चर्य होना चाहिये कि हाई कोर्ट में सडसठ प्रतिशत पदों पर जजों की सीधी नियुक्ति की जाती है, लेकिन राजस्थान में आजादी के बाद से आज तक एक भी अजा एवं अजजा वर्ग में ऐसा व्यक्ति (वकील) नियुक्ति करने वाले सवर्ण हिन्दुओं को योग्य नहीं मिला, जिसे हाई कोर्ट का जज नियुक्त किया जा सकता। ऐसे में हिन्दु एकता की बात करना एक पक्षीय उच्च वर्गीय हिन्दुओं की रुग्ण मानसिकता का अव्यवहारिक पैमाना है। जो कभी भी सही नहीं ठहराया जा सकता और इसीलिये ऐसे लोगों को इन घोर अपमानकारी, घृणित वेदनाओं को केवल सामाजिक बुराई कहकर नहीं छोड दिया जाना चाहिये, बल्कि इस प्रकार के लोगों को कठोर दण्ड से दण्डित किये जाने की भी जरूरत है।

अल्पसंख्यकों, धर्मनिरपेक्षता एवं आरक्षण का विरोध करने वालों से मेरा विनम्र आग्रह है कि वे इस देश और समाज का माहौल खराब नहीं करें तथा अपने पूर्वजों द्वारा किये गये वायदों का निर्वाह करके अपने नैतिक एवं संवैधानिक दायित्वों को पूर्ण करें।? इस देश में हिन्दू-मुसलमानों को आडवाणी की १९८० की रथयात्रा से पूर्व की भांति और आदिवासियों तथा दलितों को आर्यों के आगमन से पूर्व की भांति शान्ति से रहने देने के लिये सुहृदयतापूर्वक अवसर प्रदान करें, जिससे देश और समाज का विकास हो सके। देश में शान्ति कायम हो और देश का सम्मान बढे।

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डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
मीणा-आदिवासी परिवार में जन्म। तीसरी कक्षा के बाद पढाई छूटी! बाद में नियमित पढाई केवल 04 वर्ष! जीवन के 07 वर्ष बाल-मजदूर एवं बाल-कृषक। निर्दोष होकर भी 04 वर्ष 02 माह 26 दिन 04 जेलों में गुजारे। जेल के दौरान-कई सौ पुस्तकों का अध्ययन, कविता लेखन किया एवं जेल में ही ग्रेज्युएशन डिग्री पूर्ण की! 20 वर्ष 09 माह 05 दिन रेलवे में मजदूरी करने के बाद स्वैच्छिक सेवानिवृति! हिन्दू धर्म, जाति, वर्ग, वर्ण, समाज, कानून, अर्थ व्यवस्था, आतंकवाद, नक्सलवाद, राजनीति, कानून, संविधान, स्वास्थ्य, मानव व्यवहार, मानव मनोविज्ञान, दाम्पत्य, आध्यात्म, दलित-आदिवासी-पिछड़ा वर्ग एवं अल्पसंख्यक उत्पीड़न सहित अनेकानेक विषयों पर सतत लेखन और चिन्तन! विश्लेषक, टिप्पणीकार, कवि, शायर और शोधार्थी! छोटे बच्चों, वंचित वर्गों और औरतों के शोषण, उत्पीड़न तथा अभावमय जीवन के विभिन्न पहलुओं पर अध्ययनरत! मुख्य संस्थापक तथा राष्ट्रीय अध्यक्ष-‘भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान’ (BAAS), राष्ट्रीय प्रमुख-हक रक्षक दल (HRD) सामाजिक संगठन, राष्ट्रीय अध्यक्ष-जर्नलिस्ट्स, मीडिया एंड रायटर्स एसोसिएशन (JMWA), पूर्व राष्ट्रीय महासचिव-अजा/जजा संगठनों का अ.भा. परिसंघ, पूर्व अध्यक्ष-अ.भा. भील-मीणा संघर्ष मोर्चा एवं पूर्व प्रकाशक तथा सम्पादक-प्रेसपालिका (हिन्दी पाक्षिक)।

144 COMMENTS

  1. इस सदी के दूसरे दशक के शुरुआती दौर में हम ठगे से खड़े हैं …एक महास्वप्न का मध्यांतर है ….देश के संरक्षण के लिए किसी आरक्षण की जरूरत ही नहीं है यहाँ तो देश के भक्षण के लिए आराक्षण की मांग है ….आरक्षण का आशीर्वाद पा कर जैसे भष्मासुर शंकर के सिर पर हाथ रख कर उनको भष्म करने चल पडा हो ….क्रान्ति के लिए किसी आरक्षण की जरूरत नहीं होती …देश की आज़ादी के लिए जान देने को किसी आरक्षण की जरूरत नहीं होती …गांधी, भगत सिंह ,आज़ाद, आंबेडकर , लाजपत राय, जय प्रकाश नारायण, लोहिया आदि सभी का जन्म गुलाम भारत में हुआ था और सभी ने मिल कर देश को आज़ाद करा दिया …सभी ने अपने अपने रास्तों से अंग्रेजों पर चोट की और उसे देश से खदेड़ दिया . क्या कभी सोचा है कि आज़ादी के बाद भारत माता क्यों बाँझ हो गयी ? आज़ादी के बाद फिर एक अदद गांधी …भगत सिंह ,आज़ाद, आंबेडकर, लाजपत राय, जय प्रकाश नारायण, लोहिया जैसे किसी नेता का जन्म नहीं हुआ,– क्यों ? ….राजनीति गोलमाल कर मालामाल होने …मलाई खाने की जगह हो गयी …और हर उस जगह जहां देश का संरक्षण नही बल्कि भक्षण करना हो आरक्षण आसान किश्तों में लागू किया गया …आरक्षित निर्वाचन क्षेत्र हुए …याद रहे आरक्षण का दाव कोंग्रेस का नहीं है यह गैर कोंग्रेसीयों का राजनीतिक दाव है …मंडल कमीशन का गठन 1977 में हुआ था जब मोरार जी देसाई प्रधानमंत्री, अटल बिहारी बाजपेई विदेश मंत्री, अडवानी -सूचना प्रसारण मंत्री और चरण सिंह गृह मंत्री थे …मंडल कमीशन लागू हुआ तब वीपी सिंह प्रधान मंत्री थे जिनको भाजपा का बाहर से समर्थन था …इस बार भी पदोन्नति में आरक्षण को भाजपा का समर्थन है …कुल मिला कर प्रतिभा के कातिलों में भाजपा की भी समानुपातिक साझेदारी है ….सियाचिन पर राष्ट्र की चौकीदारी करने के लिए कोई क्यों नहीं माँगता आरक्षण …नश्ल एक वैज्ञानिक तथ्य है इससे इनकार नहीं किया जा सकता …आप अपने खेत में अच्छी नश्ल का बीज क्यों बोते हैं ?…आप अपने घर पर अच्छी नश्ल का कुत्ता क्यों पालते हैं ? अच्छी नश्ल का घोड़ा ,बैल, गाय ,भैंस क्यों पालते हैं ? …घर का वृहद् स्वरुप ही तो राष्ट्र है तो फिर राष्ट्र को भी उपयोगी कर्मचारी /जनसेवक अच्छी नश्ल के ही पालने होंगे जिसके चयन के लिए जरूरी है स्वतंत्र प्रतियोगिता फिर आरक्षण क्यों ?… आप सुनना चाहते हैं अच्छी आवाज़ …आप सूंघना चाहते हैं अच्छी सुगंध …आप खरीदना चाहते हैं अच्छी कार …अच्छा मकान …कपडे …दवा कल को कोई सिरफिरा चिलायेगा सांस में ओक्सीज़ंन के अलावा कार्बन डाईओक्साइड का भी आरक्षण हो …घुडदोड़ में भैसे का आरक्षण हो …खरगोश को हनुमान चालीसा पढ़ा कर शेर से लड़ा दो हो जाएगा सामाजिक न्याय . — कुल मिला कर देश के लिए जान देने के लिए आरक्षण की मांग नहीं है यहाँ तो देश की जान लेलेने को आरक्षण माँगा जा रहा है …राष्ट्र संरक्षण के लिए नहीं राष्ट्र भक्षण के लिए आरक्षण चाहिए .

    श्री राजीव चतुर्वेदी जी की फेसबुक वाल से साभार

  2. Kal ek TV news chanel par ek show isi bindu par adharit dikhaya ja raha tha. Jismain shree baba saheb ko gandhi ji ka dhur virodhi bataya ja raha thaa, to main sirf yeh janna chahta hun agar kuch aisi batten joki itihas main ghatit hui bhi hain jisko ke saath (60)saal hu chuke hai, aaj use is tarah sarvajanik karke bharat ke logon main kya sandesh diya jaraha hai, jiska aaj ke samaj main bahut hi galat sandesh jaa sakta hai,
    Jahan aaj ka samaj Roti kapda aur makan ke liye duniya se lad raha hai, whin shayad kuch log chahte hai ki aaj ka samaj phir ek bar 60 saal pahle chala jai aur,apne mool muddon ko chhodkar. aur ismain midia ka bahut hi bada yogdaan rahega.

    • “EQUALITY of status and opportunity;”

      “स्थिति और अवसर की समानता;”

      ये शब्द संविधान की प्रस्तावना के हैं! प्रस्तावना संविधान का चेहरा है! क्या हम संविधान के चेहरे को विकृत करना चाहते हैं! यदि हाँ तो किसी भी फोरम पर चर्चा या प्रवक्ता पर कथित “स्वस्थ बहस” करने से कोई सार्थक परिणाम सामने नहीं आ सकते! हाँ यदि हम संविधान का चेहरा सुन्दर और सार्थक बनाना चाहते हैं तो संविधान की भावनानुकूल देश के सभी लोगों को “अवसर की समनाता” प्रदान करके, सभी की स्थिति (स्टेटस) को समान बनाने के लिए कार्य करना होगा! आरक्षण इसी दिशा में एक छोटा सा प्रयास है! जिसे सैकड़ों बार सुप्रीम कोर्ट न्यायसंगत और प्राकृतिक न्याय के सिंद्धांत के अनुकूल घोषित कर चुका है! इसके बावजूद भी आप जैसे लोग यदि इसे कविता या फ़िल्मी धुनों की उपाधि देते हैं, तो इसमें संविधान का नहीं आपकी रुग्ण मानसिकता का दोष है! जिसका उपचार है-पूर्वाग्रह रहित मानव व्यवहार करने की दिशा में “सकारात्मक और स्रजनात्मक चिंतन” !
      शुभेच्छु!
      डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

  3. आरक्षण दे दे के देश को निकम्मा बना दो | सारे प्रतिभाशील लोग विदेशों के लिए काम करेंगे तो इस देश का कल्याण कैसे होगा ?
    समाज की भलाई करने की इत्ती ही इच्छा है तो आप गरीब स्टुडेंट के विकास के बारे में सोचिये उनको एक सपना दीजिये नाकि आरक्षण रूपी बैशाखी|

    आप का लेख देख कर येही प्रतीत हुआ कि आप कुवे के मेढक वाली कहानी लिखते में उस्ताद हैं या फिर नेता गिरी में आप का कोई जवाब नहीं होगा |

    धन्यवाद

    • भारत के मूल संविधान की प्रस्तावना मूल रूप से अंग्रेजी में लिखी गई है। उसका हिन्दी अनुवाद भी उपलब्ध है, लेकिन विश्वसनीय संदर्भ के लिए अंग्रेजी प्रस्तावना ही दी जा रही है –

      WE THE PEOPLE OF INDIA, having solemnly resolved to constitute India into a SOVEREIGN SOCIALIST DEMOCRATIC REPUBLIC and to secure to all its citizens –

      JUSTICE, social, economic and political;

      LIBERTY of thoughts, expression, faith and worship;

      EQUALITY of status and opportunity;

      and to promote among them

      FRATERNITY assuring the dignity of individual and the unity and integrity of the Nation.

      आरक्षण की व्यवस्था संविधान की मूल भावना का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन है। यह कीचड़ से कीचड़ धोने का प्रयास है। यह संविधान द्वारा प्रदत्त सबको समान अवसर उपलब्ध कराने की गारंटी का भी उल्लंघन है। यह प्राकृतिक न्याय (Natural Justice) के भी खिलाफ़ है।

      मूल संविधान में सिर्फ अनुसूचित जातियों और जन जातियों के लिए आरक्षण का प्रावधान था, वह भी मात्र १० वर्षों के लिए। वे दूरदर्शी थे। वे जानते थे कि आरक्षण की बैसाखी अगर सदा के लिए किसी वर्ग या जाति को थमा दी जाय, तो वह शायद ही कभी अपने पैरों पर खड़ा हो पाएगा। सामान्य विकास के लिए स्वस्थ प्रतियोगिता अत्यन्त आवश्यक है।

      • आदरणीय श्री नरेन्द्र सिंह जी,
        आपने इस आलेख पर टिप्पणी की और संविधान की प्रस्तावना का उल्लेख करके अपनी बात कही है, इससे इस बात का प्रमाण मिलता है की आप तर्क और संविधान में विश्वास करते हैं!
        आपने दस वर्ष के आरक्षण का उल्लेख किया है! कितना अच्छा होता कि आप उस प्रावधान का भी उल्लेख कर देते, जिसमें और जहाँ दस वर्ष के आरक्षण का प्रावधान क्यों और किसलिए किया गया था!
        मैं साफ कर दूँ कि दस वर्ष का आरक्षण का प्रावधान अनुच्छेद में संसद और विधान सभाओं में प्रतिनिधित्व प्रदान करने के लिए किया गया था, न कि “नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में प्रवेश के लिए?” अनुच्छेद 15 (4) एवं 16 (4) के अनुसार “नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में प्रवेश के लिए?” अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जन जातियों के लिए आरक्षण का प्रावधान संविधान का स्थायी हिस्सा है! जिसे न कभी बढाया गया और न ही बढ़ाये जाने की जरूरत है! हाँ इस प्रावधान को अनेक बार न्यायपालिका ने कमजोर करने का जरूर प्रयास किया है! जिसे हर दल की सरकार के समय पर संसद की संवैधानिक शक्ति से अनेक बार मजबूत और स्पष्ट किया है!
        जहाँ तक प्रस्तावना में किसी विषय का उल्लेख होने या न होने के सवाल है तो बंधुवर हर व्यक्ति अपने हिसाब और अपनी सुविधा से अर्थ लगता है और अपनी सुविधा से ही किसी बात को समझना कहता है! अन्यथा प्रस्तावना में साफ़ शब्दों में लिखा गया है कि “अवसर की समता” और “व्यक्ति की गरिमा” सुनिश्चित करना संविधान का लक्ष्य है! जिसे पूर्ण करने के किये ही नौकरियों, शिक्षण संस्थानों में आरक्षण की व्यवस्था की गयी है!
        इसके आलावा ये बात भी समझने की है कि प्रस्तावना में सब कुछ विस्तार से नहीं लिखा जाता! “अवसर की समता” और “व्यक्ति की गरिमा” के प्रावधान के आधार पर ही आज महिलाओं, छोटे बच्चों और नि:शक्तजनों के लिए विशेष प्रावधान किये गए हैं!
        प्रस्तावना में तो स्पष्ट रूप से कहीं भी चुनाव के बारे में एक शब्द नहीं लिखा गया है, लेकिन “अभिव्यक्ति” शब्द सब कुछ बयां करता है!
        अत: आपसे निवेदन है कि यदि आप संविधान के जानकर हैं और यदि देश में सभी की खुशहाली चाहते हैं तो कृपया अपने ज्ञान का उपयोग देश के सभी लोगों के लिए और विशेषकर वंचित तथा जरूरतमंद लोगों के हित में उपयोग करने का कष्ट करें!

        अन्त में, मैं आपको निवेदन करना चाहता हूँ कि आरक्षित जातियों को विगत में हजारों सालों तक जन्म, वंश और जाति के आधार पर न मात्र वंचित किया गया, न मात्र उनके हकों को छीना गया, बल्कि उन्हें सामाजिक, संस्कृतिक, शैक्षिक और आर्थिक रूप से उत्पीड़ित भी किया गया! ऐसे में इन जातियों का उत्थान भी जातिगत आरक्षण के मार्फ़त ही संभव है!

        इसीलिये संविधान में जाति, धर्म आदि अनेक आधारों पर वर्गीकरण (जिसे आप शायद विभेद मानते हैं) करने को संविधान और विधायिका द्वारा मान्यता दी गयी है! प्रोफ़ेसर प्रद्युमन कुमार त्रिपाठी (बी एस सी, एल एल एम-दिल्ली, जे एस दी-कोलंबिया) लिखित ग्रन्थ “भारतीय संविधान के प्रमुख तत्व” (जिसे भारत सरकार के विधि साहित्य प्रकाशन विभाग द्वारा पुरस्कृत और प्रकाशित किया गया है) के पेज 277 पर कहा गया है कि-

        “जब स्वयं विधायिका ही वर्गीकरण कर देती है तो समता के मूल अधिकार (के उल्लंघन) संबंधी कोई गंभीर प्रश्न उठने की सम्भावना नहीं होती (जैसे की कुछ पूर्वाग्रही लोगों द्वारा निहित स्वार्थवश उठाये जाते रहे हैं), क्योंकि….विधायिका विशेष वर्गों की समस्याओं, आवश्यकताओं तथा उलझनों को ध्यान में रख कर ही उनके विशेष विधि बनाती है, असंवैधानिक या वर्जनीय विभेद के उद्देश्य से नहीं| उदाहरनार्थ केवल हिन्दुओं (हिन्दू आदिवासियों को छोड़कर) के लिए ‘हिन्दू विवाह अधिनियम’ बनाने का उद्देश्य हिन्दुओं (जिसमें में भी हिन्दू आदिवासियों पर ये लागू नहीं होता है) तथा अन्य धर्मों के अनुयाईयों में (सामान्य हिन्दुओं और आदिवासी हिन्दुओं में) भेद करना नहीं है, बल्कि यह अधिनियम हिन्दुओं (आदिवासी हिन्दुओं सहित) के इतिहास, उनकी मान्यताओं, उनके सामाजिक विकास के स्तर तथा उनकी आवश्यकताओं और आकांक्षाओं को ध्यान में रखते हुए उनके कल्याण की कामना से पारित किया गया है| अत: यह केवल हिन्दुओं (हिन्दू आदिवासियों को छोड़कर) पर लागू होता है तो भी कोई हिन्दू तथा अहिन्दू (सामान्य हिन्दू और आदिवासी हिन्दू) इसे इस आधार पर चुनौती नहीं दे सकता कि यह हिन्दू तथा अहिन्दू (सामान्य हिन्दू और आदिवासी हिन्दू) में कुटिल विभेद करता है| अनुच्छेद 14 (समानता का मूल अधिकार) विभेद की मानाही नहीं करता, वह केवल कुटिल विभेद की मनाही करता है, वर्गीकरण की मनाहीं नहीं करता, कुटिल वर्गीकरण की मनाहीं करता है!”

        जिसे सुप्रीम कोर्ट ने एन एम टामस, ए आई आर. 1976 , एस सी 490 में इस प्रकार कहा है-
        सरकारी सेवाओं में नियुक्ति और प्रोन्नति पाने के सम्बन्ध में अजा और अजजा के नागरिकों को जो सुविधा प्रदान की गयी है, वह अनुच्छेद 16 (4) से आच्छादित न होते हुए भी स्वयं इसके खंड (1) के आधार पर ही वैध है, क्योंकि यह निश्चय ही एक विशिष्ठ पिछड़े हुए वर्ग के लोगों का संविधान के अनु. 46 में उपबंधित नीति निदेशक तत्व की पूर्ति करने तथा अनु. 335 में की गयी घोषणा की कार्यान्वित करने के उद्देश्य से किया गया वैध वर्गीकरण है| जो समानता के मूल अधिकार का उल्लंघन नहीं, बल्कि सही और सकारात्मक क्रियान्वयन करता है|

        पश्चिम बंगाल राज्य बनाम अनवर अली सरकार, ए आई आर 1952 एस सी 75 , 88 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि-
        समानता का मतलब सबको आँख बंद करके एक सामान मानना नहीं है, बल्कि सरकार के द्वारा समानों के साथ समान व्यवहार करना है, जिसके लिए एक समान लोगों, समूहों और जातिओं का वर्गीकरण करना समानता के मूल अधिकार को लागू करने के लिए अत्यंत जरूरी है!

  4. बहुत शानदार लिखा है. आरक्षण तो अन्य्याय का मामूली पश्चाताप है उसको बराबरी आने से पहले खत्म नही किया जा सकता और गाँधी जी आलोचना से ऊपर नही हैं.

  5. इस आलेख पर कोई टिप्पणी करने में नितांत असमर्थ हूँ.किन्तु आज १४ अप्रैल को परम आदरणीय बाबा साहेब आंबेडकर जी के जन्म दिन पर उन सभी बंधुओं,लेखकों और चिंतकों को बाबा साहेब के व्यक्तित्व और कृतित्व के सम्मानार्थ अपने-अपने विचारों और प्रतिबद्धताओं में उदारता की उम्मीद अवश्य करूँगा. जय भीम ..

  6. बाकी भ्रष्टाचार तो देर सबेर ख़त्म हो सकते है पर आरक्षण रुपी सामाजिक भ्रष्टचार ख़त्म होने की कोई सम्भावना नजर नहीं आती इन लोगों को शर्म भी नहीं आती वो आ भी नहीं सकती क्योंकि मुफ्त का मॉल कोंन छोड़ना चाहेगा वैसे भी मीणा जैसे लोग पीढ़ी दर पीढ़ी आरक्षण का लाभ लेते रहे है और लेते रहेंगे जरा इनको उन दलित बस्तिओं में जाने को बोलो मनुष्य और पशु एक जैसे रहते है साडी मलाई तो इन जैसों ने हड़प ली है वे तो वैसे के वैसे ही रह गए क्या यही अम्बेडकर का सपना था मेरे ख्याल से बिलकुल नहीं इंसानी तबियत ही ऐसी होती है की वह अपने स्वार्थ के आगे नहीं देखता ये नव्य ब्रह्मण किसी भी भाति शोषण करने में किसी से पीछे नहीं है हा बाते बनाने में इनका कोई जोड़ नहीं है किसी ने थोडा सवाल उठा दिया फिर देखिये इनका शोरोगुल आरक्षण ने साबित किया है कि वह पद भले ही दिला दे पर वह उस समाज की
    जड़ें नहीं मजबूत कर सकता अंततः देश भी विकलांग हो कर चलेगा मै अपने अनुभव से कह रहा हूँ ,मै जहाँ काम करता हूँ वहां कुछ आरक्षण के द्वारा प्रोन्नति पा कर अधिकारी बन गए है उनकी स्थिति इस प्रकार की है की इंग्लिश को कौन पूछे हिंदी भी लिख्नना कठिन होता है अब इन्हें बताने की भी जिम्मेवारी मेरी बन जाती है ,न करो तो सारा काम बिगड़ जाता है एक दो दिन की बात हो तो कोई बात नहीं यहाँ तो रोज का सिलसिला चलता है मीणा जी क्या इस पर गौर फरमाएंगे ?
    बिपिन कुमार सिन्हा

  7. यह तथाकथित लेखक “डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’ ” मुझे कुछ कुंठाग्रस्त लगते हैं. में नहीं जनता की ये दलित परिवार से हैं या नहीं पर इनका लेख बताता हैं शायद, इन्हें कुंठा है अपने आप का जन्म दलित परिवार में होने की! ऐसे में व्यक्ति बिना तथ्यों की बाते करता है| हम इनसे पूछना चाहेंगे कौन से साहित्य में इन्होने आंबेडकर के अलग राष्ट्र की मांग का उल्लेख देखा है|

    आरक्षण आज ऐसे है जैसे बिना काम किये कुछ प्राप्त करना और मेरी नज़रों में मैं इसको भिक्षा से ज्यादा कुछ नहीं मानता| यह हक़ हैं उन मेहनती बच्चों और युवाओं का जो नाकाबिल लोगो को भीख में दे दिया जाता हैं कुछ इतिहास में किये वादों को निभाने के लिए और उनके प्रति वचनबद्धता दिखने के लिए. और भीख में कुछ भी दिया जाये तो उसके लिए शुक्रगुजार होंना चाहिए नतमस्तक होना चाहिए. वैसे मैं इतना कटु और निष्ठुर नहीं पर जब कोई लाभ लेने के बाद भी उस लाभ लेने को को न माने, बातें बनाये, तो वों नक्सली नज़र आता है… भगवन का शुक्र करो हर समय एक सा नहीं रेता पता नहीं ये आरक्षण की बहार कब तक है… और मेरे अंधेर नगरी के चौपट राजा…

  8. यहां पश्चिममें खास तौर पर स्पर्धा Competition का आधार ग्यान को और क्षमता को ही माना जाता है। कंपनियां भी इसी आधार पर तरक्की करती है। इसी कारण कुछ भारतीय भी तरक्की कर पाते हैं, और उसीके कारण कंपनियां भी। {क्षमता बिना गोरों को} आरक्षण से तो हम, कब के बेकार हो जाते, और कंपनियां भी बंद पड जाती। एक्ज़ाम की तैय्यारी में, विषय को समझने में आप आरक्षण दे सकते हैं। पर कम नंबरों को ऊपर की नौकरी और ज्यादा नंबर वाले को नीचा ग्रेड नहीं दिया जाता।
    अक्षमता को बढावा देना भी भ्रष्टाचार ही है। ऐसे छोटे छोटे भ्रष्टाचार अंतमें देश को ही भ्रष्ट कर डालेंगे। यदि अक्षमता को प्रोत्साहित करते रहें, तो क्या भारत विश्व शक्ति बन पाएगा? ===> सारे नागरिकों की उपलब्धियोंका जोड (योग, Sum Total ) भारत की कुल उन्नति कही जाएगी।वह कैसे होगी? <==
    शिव लिंग पर दूध के अभिषेक के बदले क्या आप पानी का अभिषेक करना चाहेंगे? और फिर भ्रष्टाचार के विरोध में क्यों आवाज़ उठाते हो? आरक्षण भी तो मौलिक भ्रष्टाचार ही है। हां आर्थिक आधार पर सहायता की जाए। पुस्तकें, स्कॉलरशिप, साधन इत्यादि की सहायता दी जाए। पर अक्षमता को प्रोत्साहित ना करें। यदि मेरी कहीं भूल हो रही हो, तो आप दिखाइए, मैं अपना मत बदलने के लिए बाध्य हूं। देशको डुबोनेका यह आरक्षण एक षड यंत्र है। तरक्की काबिलियत पर हो, "किसी के द्वेष" पर नहीं।कल मुझे कोई कहेगा, कि सारे A ग्रेड वालों को B ग्रेड दे दो। और B को A, तो फिर सभी को A ही दे दीजिए ना! फिर ग्रेड की क्या कीमत रहेगी? मानता हूं, कि फिर हमारी डिग्री की कीमत इसी लिए घट गई है। एक पूछूं? फिर कालेज, स्कूल की भी क्या ज़रूरत? जिनको डिगी चाहिए, उन्हें बुलाकर डिग्रियां बांट दो। बजट बचाओ।
    इसका भी उपयोग एक "वोट बॅन्क" की भांति, करो। वोट पाओ, कुरसी पाओ, स्विस बॅन्क भरो।देश जाए (क्ष) में। {"(क्ष)"=कटु शब्द, क्षमा कीजिए}

    • आपने हम सभी उच्च वर्ग के जुबान की बात कही है लेकिन हमारा सरकारी तंत्र अपने वोट बैंक के लिए ना तो योग्यता की परवाह करता है ना ही देश के भविष्य की
      सत्तासीन अपने सत्ता के मोह में जाति और धर्म के नाजायज मुद्दों पर अपनी राजनेतिक रोटिया सेकती रहती है अब देश की नहिया है राम के भरोसे, अपनी ही नहिया तू पर तू लगा जा !!!!!

  9. बंधु मीणा जी, आप कहते हैं, कि ===>”आज के समय में अनेक लोगों को ज्ञात ही नहीं है कि दलित, आदिवासी, पिछडों द्वारा भी अलग राष्ट्र की मांग की गयी थी, जिसे डॉ. भीमराव अम्बेडकर के नेतृत्व में ब्रिटिश प्रधानमन्त्री, मोहनदास कर्मचन्द गाँधी एवं मोहम्मद अली जिन्ना के समक्ष विचारार्थ प्रस्तुत करने के बाद यह तय हुआ कि डॉ. अम्बेडकर अलग राष्ट्र की मांग छोड देंगे|”
    < ===
    (१)
    क्या मैं आपसे पूछ सकता हूं, कि दलित स्थान के लिए "विचारार्थ प्रस्तुत किए गए" कौनसे प्रदेश थे?
    (२)
    पाकीस्तान में भी तो दलित थे ही ना? वहां के "दलित स्थान" के बारे में भी आप चिंतित होंगे ना? मोहम्मद अली जिन्ना ने क्या उत्तर दिया था। यह तो उन्हींके क्षेत्र में आता है।
    (३)
    यही प्रश्न "बंगला देश" के बारे में भी पूछा जा सकता है।मोहम्मद अली जिन्ना ने क्या उत्तर दिया था। यह तो उन्हींके क्षेत्र में आता है।
    विशेष बिनती: अन्य बिंदुओं को बीच में लाना न मैं चाहता हूं, न आप से अपेक्षा है।इतने ही उत्तर चाहता हूं। कुछ संदर्भ दे पाए तो अच्छा होगा।

  10. डा. मीना जी अनेक बार दुहाई दे चुके हैं कि प्रवक्ता पर कटु व असभ्य भाषा का प्रयोग नहीं किया जाना कहिये. हमारे इन मित्र को यह समझ नहीं आता कि इतनी कटु , विषभरी व देश-समाज को तोड़ने वाली भाषा का प्रयोग शायद आज तक किसी ने प्रवक्ता पर नहीं किया होगा जितना यह करते हैं.. इन बेचारों का वश चले तो अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की दुहाई देते-देते अपने सभी विरोधी टिप्पणीकारों को दरकिनार कर दें, जैसे कि वर्तमान ईसाई मीडिया ने किया हुआ है …. प्रवक्ता जैसी पत्रिकाओं का गला घोंटने की तैयारी सोनिया जी की एन.ए.सी. ने कर ली है. विरोध को सहने की इनकी परम्परा है ही नहीं. स्वतंत्र संवाद का तो ये केवल नाटक करते हैं. ….डा.मीना जी भारत को समाप्त करने वाली नीतियों के अनुसरण कर्ता व प्रचारक अनजाने में हैं या जानबूझकर : इसका निर्णय पाठक स्व विवेक से करें.

  11. पुरुषोत्तम मीना ने राष्ट्रपिता गांधीजी का और हिन्दू धर्म का अपमान किया है…यह व्यक्ति सजा का पात्र है …कानूनन जुर्म है यह …कोई freedom fighters का और किसी भी धर्म का इस तरह अपमान नहीं कर सकता

  12. ऐसे लेखक को समाज से बहिष्कृत करैं यह ____समाज को दूषित करने का असफल प्रयास है यह ….शर्म आनी चाहिए इस लेखक को______

  13. गांधी जी के निधन के बाद वे यूरोपीय ताकतों के लिए पहले से भी कहीं बड़ा खतरा बन चुके हैं. बाजारवादी यूरोपीय ताकतें वैचारिक रूप से चौराहे पर खड़ी हैं. उनके सारे के सारे मॉडल व व्यवस्थाएं लगातार धराशाई होती जा रही हैं. मानवता व प्रकृति विरोधी उनके सिद्धांत लगातार असफल हो रहे हैं. वे केवल षड्यंरों के बल पर अभी तक अपने अस्तित्व को बचाए हुए हैं. ऐसी विकट स्थिति में गांधी द्वारा दिए मॉडल व व्यवस्थाएं भारतीयों का प्रेरणा स्रोत न बन जाएँ, भारत के लोग वर्तमान की निराशाजनक स्थिति से ऊब कर गांधी जी के सिधान्तों पर आधारित रचना के लियी प्रेरित न हो जाए; यही वह सबसे बड़ा खतरा हैं जिस से घबरा कर गांधी विरोधी अभियान कुटिल शक्तियों द्वारा छेड़ा गया है. .. उनके चरित्र हनन के ये अनेकों प्रयास अकारण नहीं. अन्यथा कोई कारण नहीं था की नेहरू जी की रंगीन, रोचक प्रणय कथाओं को दरकिनार करके गांधी जी को कामुक और दलील विरोधी दर्शाने वाले लेख एक के बाद एक लिखे जाते….. गांधी ईसाईयों के चुंगल में नहीं फंसे और उन्हों ने इन पर कठोर टिप्पणियाँ की हैं. धर्मांतरण पर तुरंत प्रतिबन्ध लगाने की घोषणा भी इन शक्तियों को चौकाने, घबराने वाली थी. … गांधी जी कितने कामुक थे यह बात प्रेरक नहीं, प्रेरक बात तो यह है, वे महान इस लिए हैं की उन्हों ने अपनी अदम्य वासना को कठोर तप व सयं से जीत लिया था. यह प्रेरक जानकारी तो ये बेईमान देते नहीं. .. हिंद स्वराज नामक उनकी छोटी सी पर ऐसी अद्भुत पुस्तक है जो वर्तमान व्यवस्थाओं के सृष्टी, प्रकृति व मानव जाती के अनुकूल मार्ग व व्यवस्थाएं सुझाती है. विश्व के अनेक विद्वान इस पुस्तक की मुक्त कंठ से प्रशंसा करते है. बस यही ऐसा ख़तरा है जिसे ये गांधी विरोधी समाप्त करना चाहते हैं कि कहीं गांधी के विचार और गांधी भारतीयों के प्रेरणा स्रोत, आदर्श न बन जाए. ज़रा ठीक से याद करें कि आप के साथ क्या हो रहा है ? आपके सारे आदर्शों, प्रेरणा के स्रोतों को धीरे-धीरे, बड़ी चालाकी से समाप्त किया गया हैकी नहीं ? . विश्व के हर देश के पास कोई आदर्श हैं, प्रेरणा पुरुष हैं. आपके पास, आपके साहित्य व पाठ्य पुस्तकों में है कोई बचा हुआ जिससे आप और आपकी संताने प्रेरणा प्राप्त कर सकें ? सब मिटा दिए गए, हटा दियी गए. गांधी विरोध भी उसी की एक कड़ी है… यदि इमानदारी से आलोचना करनी ही है तो उनके चरित्र की एकांगी नहीं, सर्वांगी चर्चा हो. एकांगी चर्चा का अर्थ है की नीयत में खोट है, पूर्वाग्रह काम कर रहे हैं. अतः इन गांधी विरोधी कथनों व लेखों से हम एक ही प्रेरणा ले सकते हैं कि गांधी जी के लेखन को स्वयं पढ़ कर अपना मत बनाएं. और उनसके जीवन के उस आयाम को जानें, उन विचारों को भी पढ़ें जिनके कारण विश्व आज भी उनका दीवाना है. टुच्चे लेखकों के कथनों से गांधी या भारत को नहीं समझा जा सकता. ***************
    # आदरणीय प्रो. मधुसुदन जी से मिले प्रोत्साहन हेतु आभार.

  14. वही विष वमन, वही भारत के समाज व भारत को टुकड़ों में बांटने वाली भारत के शत्रुओं द्वारा बोली जाने वाली भाषा, वे ही तर्क जो भारत के शत्रु यूरोपीय ईसाईयों द्वारा दिए गए, वही कुटिल देश व समाज तोड़क प्रयास जो की हमारे मित्र डा. मीना जी के व्यक्तित्व व कृतित्व की पक्की पहचान बन चुके हैं. समाधान के नाम पर देश में आग लगाने वाले इनके प्रयासों और भाषा से अब अधिकाँश पाठक परिचित हो चुके हैं. थोड़ी सी भी नैतिकता शेष हो तो डा. कुसुम लता केडिया जी के ”ईसाईयों में महिलाओं की स्थिति” पर लिखे लेख का प्रतिउत्तर देकर दिखाएँ. ………….
    संसार के अनेकों देशों की एक ही कहानी है कि यूरोपीय ईसाईयों जहां भी गए, इन्हों ने उन देशों की सभ्यता संस्कृति का समूल नाश कर दिया. भारत के उत्तर-पूर्व में भी यही चल रहा है. विदेशी चर्चों की लगाई आग से वह सारा भाग जल रहा है. भारत की मुख्य धारा से भारतीयों को काटने का काम इन षड्यंत्र कारियों द्वारा सारे देश में चल रहा है…………..लाखों साल से सभी सम्प्रदायों की पहचान सुरक्षित रही है तो केवल हिन्दू या वैदिक संस्कृति में. उसे नष्ट करने का काम जो भारत की शत्रु ताकतें अनेक दशकों से कर रही हैं, उसी की एक बानगी डा. मीना जी के इस लेख में देखी जा सकती है. तभी तो लगता है की ये महानुभाव उन्ही विदेशी ताकतों के हस्तक बने हुए हैं. इश्वर इन्हें सदबुधि दे और ये अपने हाथों अपने देश की जड़ें खोदने के पाप कर्म से बच जाएँ.

  15. कोई इस तरेह महात्मा गाँधी की आलोचना नहीं कर सकता .. लेखक साहब जरा अपने हाथो पर काबू रखें और कटु भाषा का प्रयोग न करें तो अच्छा होगा ..और मैं इस वेबसाइट के संचालक से अनुरोध करता हूँ की इस तरेह के लेखो को अपनी वेबसाइट से हटा डैन वेरना अच्छा नहीं होगा ..जरा मान मरयादा का ख्याल रखें ..

  16. निरंकुश जी धन्यवाद इस तरह का लेख लिखने के लिए .
    आरक्षण, धर्मनिरपेक्षता एवं अल्पसंख्यक बनाम

    गाँधी नेहरु भ्रस्टाचार

    मेरे ख्याल से ये तीनो आज के समाज को दूषित करने वाले प्रमुख तत्व है

    उस समय के समाज और आज के समाज में बहुत अंतर है.
    दुर्भाग्य से आज शोषित और शासक का जमाना आ गया है
    शासक तो सुधरने वाले नही क्योकि वो खून चूस रहे है.
    क्यों न शोषित ही भीख
    (शासन से मिलने वाला अनुदान हक देने जैसा कदापि नही लगता ) में मिलने वाले टुकडो को नकार दे

    मेरे ख्याल से जब तक ये मदद मदद का खेल चलेगा शासको की बल्ले बल्ले रहेगी ,
    इस देश में कितने लोगो को आरक्षण का लाभ मिला आज तक अन्यथा अपनी मेहनत लगन से लोग कहा से कहा पहुच गये .

  17. १९५० में जब सविधान लागु किया गया तब धर्म निरपेछ सब्द सविधान में नहीं था /१९७५ में जब सारा विपछ जेल में बंद था देस में आपातकाल लागु था उस समय सविधान में धर्म निर्पेच सब्द डाला गया था /मुस्लिम तुस्टीकरण की वजह से बाद में किसीकी हिम्मत नहीं हुई धर्म निरपेछ सब्द हटा दे /कोई सांसद मंत्री या कोई भी लोक सेवक इस्वर की सपथ लेकर अपने कम की सुरुआत करता है अब आप क्या चाहते है की सपथ किसके नाम की ली जाये ? धर्म निर्पेचता का मतलब किसी भी धर्म के प्रति तत्सत रहना न की अपना धरम छोड़ कर विधर्मी होना /वैसे भी भारत एक हिन्दू रास्त्र था है और रहेगा /और जब तक हिन्दू बहु संख्यक है तब तक भारत एक धरम निर्पेच रास्त्र है जिस दिन हिन्दू अल्प संख्यक हुआ उसदिन बारात एक इस्लामिक देस बन जायेगा यदि नहीं तो दुनिया का एक भी ऐसा देश बता दे जहा हिन्दू अल्प संक्यक है और वहां धरम निर्पेछ्ता है /ब्रिटेन और अमेरिका भी इसाई रास्त्र है/

  18. लेखक साहब लगता है आप इस बात से बिलकुल भी अनभीगे है की आरक्षण से हमारे समाज को कोई भी फायदा नहीं है आप एक भी ऐसा उद्धरण बता दे.

  19. ———–!! प्रवक्ता.कॉम के पाठकों से पाठकों से विनम्र अपील !!———–

    आदरणीय सम्पादक जी,

    आपके माध्यम से प्रवक्ता.कॉम के सभी पाठकों से विनम्रतापूर्वक अनुरोध/अपील करना चाहता हूँ कि-

    1- इस मंच पर हम में से अनेक मित्र अपनी टिप्पणियों में कटु, अप्रिय, व्यक्तिगत आक्षेपकारी और चुभने वाली भाषा का उपयोग करके, एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगा रहे हैं।

    2- केवल इतना ही नहीं, बल्कि हम में से कुछ ने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सम्पादक की नीयत पर भी सन्देह किया है। लेकिन जैसा कि मैंने पूर्व में भी लिखा है, फिर से दौहरा रहा हूँ कि प्रवक्ता. कॉम पर, स्वयं सम्पादक के विपरीत भी टिप्पणियाँ प्रकाशित हो रही हैं, जबकि अन्य अनेक पोर्टल पर ऐसा कम ही होता है। जो सम्पादक की नीयत पर सन्देह करने वालों के लिये करार जवाब है।

    3- सम्पादक जी ने बीच में हस्तक्षेप भी किया है, लेकिन अब ऐसा लगने लगा है कि हम में से कुछ मित्र चर्चा के इस प्रतिष्ठित मंच को खाप पंचायतों जैसा बनाने का प्रयास कर रहे हैं। मैं उनके नाम लेकर मामले को बढाना/तूल नहीं देना चाहता, क्योंकि पहले से ही बहुत कुछ मामला बढाया जा चुका है। हर आलेख पर गैर-जरूरी टिप्पणियाँ करना शौभा नहीं देता है।

    4- कितना अच्छा हो कि हम आदरणीय डॉ. प्रो. मधुसूदन जी, श्री आर सिंह जी, श्री श्रीराम जिवारी जी आदि की भांति सारगर्भित और शालीन टिप्पणियाँ करें, और व्यक्तिगत टिप्पणी करने से बचें, इससे कुछ भी हासिल नहीं हो सकता। कम से कम हम लेखन से जुडे लोगों का उद्देश्य तो पूरा नहीं हो सकता है। हमें इस बात को समझना होगा कि कोई हमसे सहमत या असहमत हो सकता है, यह उसका अपना मौलिक अधिकार है।

    5- समाज एवं व्यवस्था पर उठाये गये सवालों में सच्चाई प्रतीत नहीं हो या सवाल पूर्वाग्रह से उठाये गये प्रतीत हों तो भी हम संयमित भाषा में जवाब दे सकते हैं। मंच की मर्यादा एवं पत्रकारिता की गरिमा को बनाये रखने के लिये एकदम से लठ्ठमार भाषा का उपयोग करने से बचें तो ठीक रहेगा।

    6- मैं माननीय सम्पादक जी के विश्वास पर इस टिप्पणी को उन सभी लेखों पर डाल रहा हूँ, जहाँ पर मेरी जानकारी के अनुसार असंयमित भाषा का उपयोग हो रहा है। आशा है, इसे प्रदर्शित किया जायेगा।

  20. ye kesa manch hai jaha??khule aam ek lekhak jativad ko poshit kar raha hai our baba sahab ka nam le le kar bar bar kaha ja raha hai ki unhone kabhi desh todane ki bat kahi thi.yah akatay saty hai ki baba sahab ambedakar asamanta v chhuachhut par adharit samaj rachana ke khilaf the lekin kabhi bhi desh todane ki bat nahi ki,ye to unka nam lekar jhola chhap lekhak hi kar sakate hai.
    koe jati ka ya koe bhi panth ka agar desh todane ki damaki deta hai to vo deshdrohi hi ki shreni me hi ata hai our mujhe nahi lagata yaha par koe bhi deshdrohi banana chahata ho,fir kahe ko apane lekhe huve ka arth nahi samajhate???

  21. निरंकुश जी यहाँ यदि हम मुख्या मुद्दे में ही चर्चा करें तो बेहतर होगा. मेरा आशय है आरक्षण पर. आपने सभी समीक्षाओं का जवाब दिया है. मुझको लगता है कि आप कभी कभी अपने विचारों में बह जाते हैं और विरोधी स्वरों को उचित सम्मान नहीं दे पते. हो सकता है मैं गलत होऊं. लेकिन आप यहाँ पर केवल एक समीक्षक ही नहीं अपितु एक लेखक भी हैं और इससे आपका सम्मान बढ़ता है भले ही इस लेख के विरोध में ही क्यों न लिखा हो. निस्संदेह आप अप्रतिम प्रतिभा के धनी हैं लेकिन यदि आप विरोधियों का भी दिल जीत सकें तो यह आपके रचना को सार्थक बना सकेगा.
    आपने कई विवादस्पद मुद्दों को छूने कि कोशिश कि है. इसके लिए आप बधाई के पात्र हैं. लेकिन क्या आपने इमानदार प्रयास किया है? आपने गांधीजी पर टिपण्णी की है. आपने जाति आधारित आरक्षण को सही ठहराने की कोशिश की है. क्या हम सिर्फ भारतीय नहीं हो सकते?
    क्या एक वर्ग और जाति विहीन देश की कल्पना सिर्फ कल्पना है? क्या जाति आधारित आरक्षण इस मार्ग में सहायक सिद्ध होगा?
    क्या आंबेडकरजी का कद इतना बड़ा था की वो स्वतंत्र राष्ट्र की मांग मनवा सके? मुझे लगता है की अतिरंजित है, जहाँ लेखक भावनाओं में बह गए हैं? यदि आंबेडकर इतने शक्तिशाली थे तो एक अदद लोकसभा सीट संसद में पहुँचने के लिए अवश्य खोज लेते.
    क्या गाँधी जी सिर्फ ब्राह्मणवाद के पोषक थे? मुझे विश्वास नहीं होता. मुझे गांधीजी से कोई आत्मीय लगाव तो नहीं है, लेकिन मैं पूर्णतया इस बात से असहमत हूँ की वो सिर्फ शोषक थे.
    संविधान को बाइबल की तरह पवित्र बताया गया है सिर्फ इसलिए की इसमें बाबा साहेब का योगदान था? क्या संविधान इन्होने अकेले लिखी? क्या तत्कालीन कांग्रेस के समर्थन के बिना संविधान की एक धरा भी जोड़ी जा सकती थी?
    आपको ऐसा नहीं लगता की तत्कालीन समय में दलितों के सबसे बड़े नेता गाँधी जी थे?
    गाँधी जी ने यदि एक अलग इलेक्टोरल के खिलाफ व्रत रखा तो शायद वो अपनी जगह सही थे?
    निरंकुश जी क्या ऐसा नहीं लगता की आरक्षण एक hathiyar ban गया है? यदि आप sangthit हैं तो आरक्षण की suvidha का laabh uthaya जा सकता है?
    आरक्षण सिर्फ और सिर्फ vote bank के kaaran jeevit है?
    क्या यह सही नहीं है की araskshan के विरोध में कोई भी sansad saamne नहीं aaya kyonki unhe bhaya है की uski party को aarakshit वर्ग के log kahin chhod न दे? क्या यह blackmailing नहीं है? वो manuvadiyon को khub kosen लेकिन unhen कोई नहीं? क्या आरक्षण samarthak aalochna bardasht नहीं kar सकते?
    क्या unki har soch पर sabko haami bharni chahie?

    • महोदय नमस्कार ,
      १- गाँधी जी पर टिपण्णी – 8 अगस्त, 1930 को एक शोषित वर्ग के सम्मेलन के दौरान अम्बेडकर ने अपनी राजनीतिक दृष्टि को दुनिया के सामने रखा, जिसके अनुसार शोषित वर्ग की सुरक्षा उसके सरकार और कांग्रेस दोनों से स्वतंत्र होने मे है। यहाँ कांग्रेस के नेता गाँधी जी ही थे
      इस भाषण में अम्बेडकर ने कांग्रेस और गांधी द्वारा चलाये गये नमक सत्याग्रह की शुरूआत की आलोचना की। अम्बेडकर की आलोचनाओं और उनके राजनीतिक काम ने उसको रूढ़िवादी हिंदुओं के साथ ही कांग्रेस के कई नेताओं मे भी बहुत अलोकप्रिय बना दिया, यह वही नेता थे जो पहले छुआछूत की निंदा करते थे और इसके उन्मूलन के लिये जिन्होने देश भर में काम किया था। इसका मुख्य कारण था कि ये उदार राजनेता आमतौर पर अछूतों को पूर्ण समानता देने का मुद्दा पूरी तरह नहीं उठाते थे। अम्बेडकर की अस्पृश्य समुदाय मे बढ़ती लोकप्रियता और जन समर्थन के चलते उनको 1931 मे लंदन में दूसरे गोलमेज सम्मेलन में, भाग लेने के लिए आमंत्रित किया गया। यहाँ उनकी अछूतों को पृथक निर्वाचिका देने के मुद्दे पर तीखी बहस हुई। धर्म और जाति के आधार पर पृथक निर्वाचिका देने के प्रबल विरोधी गांधी ने आशंका जताई, कि अछूतों को दी गयी पृथक निर्वाचिका, हिंदू समाज की भावी पीढी़ को हमेशा के लिये विभाजित कर देगी।
      जिन्होंने 1932 मे जब ब्रिटिशों ने अम्बेडकर के साथ सहमति व्यक्त करते हुये अछूतों को पृथक निर्वाचिका देने की घोषणा की, तब गांधी ने इसके विरोध मे पुणे की यरवदा सेंट्रल जेल में आमरण अनशन शुरु कर दिया।
      गाँधी जी के इस अनशन ( नाटकबाजी मेरे अनुसार) को रूढ़िवादी हिंदू नेताओं, कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं जैसे पवलंकर बालू और मदन मोहन मालवीय का खूब समर्थन मिला और आंबेडकर जी ने ये सोचकर की यदि गाँधी की मृत्यु होने की स्थिति मे जो सामाजिक प्रतिशोध होगा उसकी परिणिति अछूतों की हत्या और बर्बादी होगी, और गाँधी जी के समर्थकों के भारी दवाब के चलते अंबेडकर ने अपनी पृथक निर्वाचिका की माँग वापस ले ली। इसके एवज मे अछूतों को सीटों के आरक्षण की बात स्वीकार कर ली
      ये एक इसी सत्यता है जिससे की सारा समाज परिचित है और इस सम्बन्ध में पहले भी काफी कुछ लिखा गया है बल्कि मीणा जी ने अपनी तीसरी टिपण्णी में इसको बता दिया था पर आप कहाँ मानेगे जी ,
      ये आरक्षण देना भी गाँधी और रूढ़िवादी हिंदुओं की चाल थी इसके द्वारा भी काफी शोषण किया गया है , यदि कोई अछा दलित उमीदवार हुआ भी तो उसके खिलाफ रूढ़िवादी हिंदुओं ने इसे उम्मेदवार खड़े किये की उनके जीत जाने पर वो रूढ़िवादी हिंदुओं की सदन में भी जी हुजूरी ही करते रहे, १०% का लोलीपोप देकर ९० % सीटे रूढ़िवादी हिंदुओं ने अपने लिए बचा ली,
      इसके आगे का जवाब भी दूंगी लेकिन आपका पेजे नहीं khulta यदि जवाब लम्बा हो जाता है तो……………..
      शुभ रात्रि ………… दीपा शर्मा

    • आदरणीय शिशिर चन्द्र जी,

      मुझे न तो सम्मान की भूख है और न हीं आलोचनाओं की परवाह। मैं केवल न्याय के पक्ष में और संविधान के दायरे में अपनी अन्तरात्मा की आवाज को लिखने का प्रयास करता हूँ और किसी कारणवश मुझसे भूल हो जाने पर, मैं उसे सुधारने में एक क्षण भी नहीं लगाता। गलति या भूल मुझसे भी हो सकती है। आखिर मैं भी तो इंसान हूँ। मैं अपने आपको सर्वज्ञ भी नहीं मानता।

      लेखन के माध्यम से मैं सतत आप सबसे बहुत कुछ सीखता रहता हूँ। जिसके लिये मैं प्रवक्ता सहित आप सभी का ॠणी भी हूँ।

      लेकिन मुझे सबसे बुरा तब लगता है, जबकि कोई मेरे नाम से किसी बात को तोड-मरोड कर पेश करने की कौशिश करता है। जिसे मैं गाली एवं अनैतिकता से कम नहीं मानता, बल्कि मेरा स्पष्ट मत है कि ऐसा करना लेखकीय अपराध है। यदि मैं अपनी बात पर सही हूँ तो प्रत्येक न्यायप्रिय इंसान को इस बात से सहमत होना चाहिये। अन्यथा मुझे जानने का हक होना चाहिये कि ऐसा करना, क्यों मान्य है?

      आदरणीय शिशिर चन्द्र जी सबसे पहले तो मैं निवेदन कर दूँ कि यदि आपने इस आलेख की समस्त चर्चा और पक्ष-विपक्ष की सभी टिप्पणियों को पढकर अपनी टिप्पणी की होती तो इस प्रकार की बातें नहीं लिखी जाती, जिन पर पहले ही चर्चा हो चुकी है।

      आदरणीय शिशिर चन्द्र जी आपसे आग्रह है कि यदि आपने संविधान को नहीं पढा हो तो कृपया पढने का कष्ट करें। और यदि पढा हो तो कृपया पढने के बाद भी आप संविधान को तोड-मरोड कर पेश करने में आनन्दित होते हैं, तो यह शोभनीय नहीं है!

      आदरणीय शिशिर चन्द्र जी व्यक्तिगत रूप से मुझे इससे कोई विशेष फर्क नहीं पडता, लेकिन इससे सम्पूर्ण पीढी को आप संविधान के बारे में गलत और भ्रामक जानकारी परोसकर अपराध लेखकीय कर रहे हैं!

      आदरणीय शिशिर चन्द्र जी मेरे नाम से आप वे बातें क्यों लिख रहे हैं, जो मैंने अपने आलेख या किसी भी टिप्पणी में न तो लिखा हैं और न हीं कहीं पर भी मैंने उन बातों का प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थन या प्रतिपादन किया है?

      आदरणीय शिशिर चन्द्र जी आप अपनी जैसी सोच के लोगों द्वारा प्रतिपादित असंवैधानिक बातों को मेरे मुख में डालकर पाठकों के सामने परोसकर क्या सिद्ध करना चाहते हैं, ये तो आप जाने? लेकिन मुझे इस पर गम्भीर आपत्ती है?

      यह जानते हुए कि ऐसा करना आसान नहीं है, लेकिन असम्भव भी नहीं है। मेरा माननीय सम्पादक, प्रवक्ता.डॉट कॉम से भी अनुरोध है कि जब भी कोई पाठक अपनी टिप्पणी में लेखक को उधृति करे तो टिप्पणी को प्रदर्शित करने से पूर्व देखा जाना चाहिये कि वास्तव में लेखक ने वह बात कही भी है या नहीं?

      अकेले श्री शिशिर जी ही नहीं, बल्कि बहुतेरे पाठकों द्वारा यह बौद्धिक व्यभिचार सौद्दश्य किया जा रहा लगता है। ऊपर से ये उन बातों पर स्पष्टीकरण की भी अपेक्षा करते हैं? यह किस प्रकार की परम्परा विकसित की जा रही है?

      माननीय सम्पादक जी सहित इस आलेख पर पक्ष एवं विपक्ष में टिप्पणी करने वाले सभी माननीय पाठकों से मैं विनम्र निवेदन करना चाहता हूँ कि कृपया लेखकीय स्वतन्त्रता को अपना संरक्षण प्रदान करते हुए ढूँढने का प्रयास करें कि श्री शिशिर जी द्वारा लिखी गयी निम्न बातें मेरे आलेख या मेरी किसी भी टिप्पणी में कहाँ पर लिखी गयी हैं:-

      “आपने जाति आधारित आरक्षण को सही ठहराने की कोशिश की है. क्या हम सिर्फ भारतीय नहीं हो सकते?”
      ———————————-> जबकि मैंने कहीं पर भी नहीं लिखा है कि मैं जाति आधारित आरक्षण के पक्ष में हूँ। आखिर मैं ऐसा लिख भी कैसे सकता हूँ, जबकि हमारे देश के संविधान में जाति आधारित आरक्षण का प्रावधान ही नहीं, बल्कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने अनेक बार साफ शब्दों में कहा है कि जाति आधारित आरक्षण किसी को भी नहीं दिया जा सकता, क्योंकि ऐसा करना असंवैधानिक है।

      “संविधान को बाइबल की तरह पवित्र बताया गया है सिर्फ इसलिए की इसमें बाबा साहेब का योगदान था? ”
      ———————————-> मैंने कहाँ पर लिखा है कि डॉ. अम्बेडकर द्वारा लिखे जाने के कारण संविधान बाइबल की तरह से पवित्र है? जो बात सच है ही नहीं, उसे मैं सच कैसे कह सकता हूँ? मुझे ठीक से पता है कि डॉ. अम्बेडकर ने संविधान का केवल सम्पादन किया था, जिसे स्वयं डॉ. अम्बेडकर ने अपने एक उदबोधन में दलितों के दृष्टिकोण से घटिया संविधान तक कहा है। इसके अलावा मैंने कभी भी, कहीं भी यह दावा नहीं किया है कि मैं अम्बेडकरवादी हूँ। बल्कि मैं डॉ. अम्बेडकर की धर्म-बदलो नीति का कटु आलोचक माना जाता रहा हूँ। आप में से बहुत कम लोग जानते होंगे कि दिल्ली के रामलीला मैदान में लार्ड बुद्धा क्लब द्वारा आयोजित लाखों लोगों की रैली को सम्बोधित करते हुए मैंने हिन्दू धर्म को छोड कर अन्य धर्म को अपनाने की नीति का कडा विरोध करने का खतरा उठाया है।

      प्रत्येक इंसाफ पसन्द व्यक्ति के निष्पक्ष संरक्षण की अपेक्षा की उम्मीद के साथ सभी को स्वस्थ जीवन की शुभकामनाओं सहित!

      आपका

      डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

      आशावादी हूँ सो आशा करता हूँ कि सम्पादक के साथ-साथ सभी पाठकों और विशेषकर आदरणीय श्री शिशिर जी की ओर से मुझे अपने विचार व्यक्त करने की आजादी को अक्षुण्य बनाये रखने में संरक्षण प्राप्त होता रहेगा और श्री शिशिर जी मेरी इस टिप्पणी को व्यक्तिगत आक्षेप नहीं मानकर दूसरों से मुख से अपने विचारों को कहलवाने की नीति पर आत्ममंथन करेंगे!

      • अकेले श्री शिशिर जी ही नहीं, बल्कि बहुतेरे पाठकों द्वारा यह बौद्धिक व्यभिचार सौद्दश्य किया जा रहा लगता है। ऊपर से ये उन बातों पर स्पष्टीकरण की भी अपेक्षा करते हैं? यह किस प्रकार की परम्परा विकसित की जा रही है?
        आदरणीय शिशिर चन्द्र जी आप अपनी जैसी सोच के लोगों द्वारा प्रतिपादित असंवैधानिक बातों को मेरे मुख में डालकर पाठकों के सामने परोसकर क्या सिद्ध करना चाहते हैं, ये तो आप जाने? लेकिन मुझे इस पर गम्भीर आपत्ती है?
        आदरणीय शिशिर चन्द्र जी व्यक्तिगत रूप से मुझे इससे कोई विशेष फर्क नहीं पडता, लेकिन इससे सम्पूर्ण पीढी को आप संविधान के बारे में गलत और भ्रामक जानकारी परोसकर अपराध लेखकीय कर रहे हैं!
        आदरणीय निरंकुश जी आप ने मुझ पर बहुत सारे आरोप लगाये हैं और संपादक को भी इन आरोपों में पक्ष बनाया है. यदि मेरे कोई लेख से आपको ठेस पहुंची है तो मैं माफी चाहूँगा और मैं आपसे और प्रवक्ता से अनुरोध करूँगा की मेरे लेखों को डिलीट कर दिया जाये. मैं अब अपना कमेंट्स देने के लिए निरंकुश्जी के किसी लेख में उपलब्ध नहीं रहूँगा. मैं आपके आरोपों से सहमत नहीं हूँ. लेकिन जो भी लेख से मैं सहमत नहीं होता उसके खिलाफ लिखता हूँ और मैं लेखक के उसी लेख को देखकर टिपण्णी करता हूँ लेखक के संपूर्ण लेखन(पूर्व के लेखों) को नहीं. लेखक द्वारा सुझाये गए किसी अन्य लेख या पुस्तक या लिंक को सामान्यतः नहीं देखता. चूँकि लेखक द्वारा लिखे गए लेख को अक्षर्श्ह याद करना संभव नहीं होता तो उसके भावों को अपने शब्दों में दर्शा कर टिपण्णी करनी पड़ती है. मैं जो भी टिपण्णी लिखता हूँ वो मेरे खुद के विचार होते हैं कहीं और से लिए गए नहीं. जहाँ तक संविधान की बात है तो मैं उसका कड़ा विरोधी हूँ और मैं हर बात के लिए संविधान का मुहं नहीं ताकता. बगैर संविधान को पढ़े भी किसी भी लेख में टिपण्णी की जा सकती है ऐसा मेरा मानना है. मेरा इरादा कतई आपको ठेस पहुँचाने या नीचा दिखने का नहीं था.
        बहरहाल मैं अपने आप को यहीं पर रोकता हूँ.
        निरंकुश जी आशा है आप पूर्ववत अपना स्वंत्र और निर्भीक विचार प्रस्तुत करते रहेंगे.
        मेरे द्वारा लिखे गए किसी भी बात के लिए हुए कष्ट के लिए मैं पुनः खेद व्यक्त करता हूँ.

        • “जहाँ तक संविधान की बात है तो मैं उसका कड़ा विरोधी हूँ और मैं हर बात के लिए संविधान का मुहं नहीं ताकता. बगैर संविधान को पढ़े भी किसी भी लेख में टिपण्णी की जा सकती है ऐसा मेरा मानना है.”

          वाह शिशिर चन्द्र जी वाह! आपने तो कमाल ही कर दिया।

          एक व्यक्ति संविधान पढने और संविधान से सम्बन्धित प्रावधानों पर न्यायिक निर्णयों को पढकर समझने और लिखने में अपनी अथाह ऊर्जा एवं समय खर्च करता है, तब कहीं कोई लेख लिख पाता है और आप कहते हैं कि आप संविधान के ही कडे विरोधी हैं।

          फिर तो संविधान से जुडे मसलों पर टिप्पणी करने से पूर्व यह जरूर लिखा दिया करें कि मैं भारत के संविधान का विरोधी संविधान द्वारा प्रदत्त बोलने और लिखने के अधिकार का उपयोग नहीं करके, अपनी हिन्दू धर्म की नीति एवं संस्कृति द्वारा प्रदत्त जन्मजात अधिकारों का उपयोग करके लिख रहा हूँ, जिनका संविधान की अवमानना या गरिमा से कोई वास्ता नहीं है।

          साथ ही आप यह भी लिख दिया करें कि इसीलिये आप संविधान द्वारा अन्य लोगों को प्रदान किये गये मौलिक अधिकारों का सम्मान करना जरूरी नहीं समझते हैं और अनाप-शनाप व निराधार आरोप लगाने से भी नहीं हिचकते हैं!

          यही नहीं आपने फिर से अपने निम्न शब्दों में डॉ. निरंकुश जी के नाम से सम्पादक को भी पक्षकारों की सूची में जबरन शामिल कर दिया है,

          “आदरणीय निरंकुश जी आप ने मुझ पर बहुत सारे आरोप लगाये हैं और संपादक को भी इन आरोपों में पक्ष बनाया है.”

          जबकि डॉ. निरंकुशजी ने कहीं भी सम्पादक को पक्षकार नहीं बनाया है। बल्कि सम्पादक जी से निम्न शब्दों में केवल एक अनुरोध किया है :-

          “यह जानते हुए कि ऐसा करना आसान नहीं है, लेकिन असम्भव भी नहीं है। मेरा माननीय सम्पादक, प्रवक्ता.डॉट कॉम से भी अनुरोध है कि जब भी कोई पाठक अपनी टिप्पणी में लेखक को उधृति करे तो टिप्पणी को प्रदर्शित करने से पूर्व देखा जाना चाहिये कि वास्तव में लेखक ने वह बात कही भी है या नहीं?”

          अन्त में आपका माफी मांगने का अन्दाज भी कैसा है, जैसे कि लेखक के लेख पर टिप्पणी करके आप कोई अहसान कर रहे हैं।

          “यदि मेरे कोई लेख से आपको ठेस पहुंची है तो मैं माफी चाहूँगा और मैं आपसे और प्रवक्ता से अनुरोध करूँगा की मेरे लेखों को डिलीट कर दिया जाये. मैं अब अपना कमेंट्स देने के लिए निरंकुश्जी के किसी लेख में उपलब्ध नहीं रहूँगा. मैं आपके आरोपों से सहमत नहीं हूँ.”
          जीतू गोयल
          एडवोकेट हाई कोर्ट

    • माननिये शिशिर चन्द्र जी ,
      मुझे दिन में समय नहीं होता है और प्रवक्ता पर इसलिए रात में जवाब देना पड़ता है कल अधिक रात्री हो जाने के कारन जवाब पूरा नहीं हुआ था, इसके आगे भी आपसे काफी कुछ कहना है आपने लिखा है की —
      क्या गाँधी जी सिर्फ ब्राह्मणवाद के पोषक थे? मुझे विश्वास नहीं होता. मुझे गांधीजी से कोई आत्मीय लगाव तो नहीं है, लेकिन मैं पूर्णतया इस बात से असहमत हूँ की वो सिर्फ शोषक थे.
      आपको ऐसा नहीं लगता की तत्कालीन समय में दलितों के सबसे बड़े नेता गाँधी जी थे?
      मेरा जवाब है –
      ये सब जानते हैं की गाँधी जी वर्ण व्यवस्था के सबसे बड़े हिमायती थे इसके पीछे उनका तर्क था की ये दुनिया के उन्नत समाजो में पायी जाती है हाँ वे मनु की तरह इसको छोटा या बड़ा करके नहीं मानते थे …..
      गाँधी जी ने जो दलितों के लिए प्यार बरसाया है उसको निम्न चार मामलो में बड़ा बाधा चढ़कर बताया जाता रहा है!
      १- पुना पैक्ट जिसमें उन्होंने यरवदा जेल में अनशन किया था।
      २-अपनी पत्रिका का नाम हरिजन रख दिया था ( और समाज को हरीजन और दुर्जन के बीच बाँट दिया था)
      ३-sabarmati aashram में अछुत को सम्मिलित करवा दिया था
      4- दिल्ली की एक भंगी बस्ती में कुछ दिन रहे थे
      महोदय,
      व्यवहार में गाँधी जी क्या थे और उनके विचार क्या थे ज़रा इस पर ध्यान देना आवश्यक है
      वैसे गांधी के बारे में दलित के विषय बात करना एक ग़ैर ज़रूरी पहलू जान पड़ता है। क्योकि दलितों का एक बड़ा समूह गांधी के हरिजन उत्थान पर किये गये कार्यो को संदेह कि निगाह से देखता है। इसका महत्वपूर्ण कारण यह है कि जाति-भेद वर्ण-भेद तथा अस्पृश्यता भेद के उनमूलन सम्बधी ज़्यादातर उनके विचार केवल उपदेशात्मक थे व्यवहारिक नहीं थे।
      एक ओर वे वर्ण व्यवस्था के बारे में कहते है-वर्ण व्यवस्था का सिध्दांत ही जीवन निर्वाह तथा लोक-मर्यादा की रक्षा के लिए बनाया गया है। यदि कोई ऐसे काम के योग्य है जो उसे उसके जन्म से नहीं मिला तो व्यक्ति उस काम को कर सकता है। बशर्ते कि वह उस कार्य से जीविका निर्वाह न करे, उसे वह सेवा भाव से करे लेकिन जीविका निर्वाह के लिए अपना वर्णागत जन्म से प्राप्त कर्म ही करे।
      यानी जिसका व्यवसाय शिक्षा देना है वो मैला उठाने का काम सेवा के लिए करें व्यवसाय के लिए नहीं, इसी प्रकार मैला उठाने वाला चाहे तो पूजा कराने का काम कर सकते हैं, लेकिन पूजा से लाभ नहीं प्राप्त कर सकते । ज़ाहिर है उच्च व्यवसाय वाला व्यक्ति निम्न व्यवसाय को पेशा के रूप में कभी भी अपनाना नहीं चाहेगा। किन्तु निम्न व्यवसाय वाला व्यक्ति उच्च व्यवसाय को अपनाने की चेष्टा करेगा। अतः यहाँ गांधी जी के उक्त कथन से आशय निकलता है कि यह प्रतिबन्ध केवल निम्न जातियों के लिए तय था, ताकी वे उच्च पेशा अपना न सके और उच्च आय वाले पेशे पर उच्च जातियों का ही एकाधिकार रहे। यहाँ स्पष्ट है गांधी जातिगत पेशा के आरक्षण के पक्षधर थे।
      गांधीजी ये मानते थे कि गँवार का बेटा गँवार और कुलीन का बेटा जन्म से ही कुलीन पैदा होता है । उनका कहना था की जैसे मनुष्य अपने पूर्वजों की आकृति लेकर पैदा होता है वैसे ही वह ख़ास गुण लेकर ही पैदा होता है।
      गांधीजी अछूतपन या अस्पृश्यता का तो विरोध करते हैं। लेकिन एक मैला उठाने वाले को अपना व्यवसाय बदलने की अनुमति भी नहीं देते है। वे एक मैला उठाने वाले के कार्य-कलापों को पवित्र कर्म के रूप में देखते है। गांधी जी पेशेगत आनुवंशिक व्यवस्था का समर्थन करते थे
      वे कहते थे कि ब्रह्मण का पुत्र ब्रह्मण ही होगा, किन्तु बड़े होने पर उससे ब्रह्मण जैसे गुण नहीं है तो उसे ब्रह्मण नहीं कहा जा सकेगा। दूसरी ओर ब्रह्मण के रूप में उत्पन्न न होने वाला भी ब्रह्मण माना जायेगा लेकिन वह स्वयं अपने लिए उस उपाधि का दावा नहीं कर सकेगा । यानी कोई भी ग़ैर ब्रह्मण प्रकाण्ड विद्वान होने पर भी पण्डितजी की उपाधि का दावा न करे। ( महोदय , बताइए ये नाटकबाजी है की नहीं है )
      गांधीजी के इन सिद्धांतों के विपक्ष में अम्बेडकर ने कहा था कि जाति-पाँति ने हिन्दू धर्म को नष्ट कर दिया है। चार वर्णो के आधार पर समाज को मान्यता देना असंभव है क्योकि वर्ण व्यवस्था छेदों से भरे बर्तन के समान है। अपने गुणो के आधार पर क़ायम रखने मे यह असमर्थ है। और जाति प्रथा के रूप में विकृत हो जाने की इसकी आंतरिक प्रवृत्ति है।]
      अधिकतर यह माना जाता है कि 1932 के बाद ही गांधीजी के अंदर हरिजन प्रेम उमड़ा। इसके पहले वे निहायत ही परंपरा-पोषी एवं संस्कृतिवादी थे। भारत में दलितों के काले इतिहास के रूप में दर्ज़ यह घटना पूना पैक्ट के नाम से प्रसिध्द है। इसके बारे में मेने एवम अन्य ने लिखा है इसपर जो समझौता हुआ वही आगे चलकर आरक्षण व अन्य सुविधाओं के रूप में साकार हुआ। इसे पूरा दलित समाज काले इतिहास के रूप में आज भी याद करता है।
      कहा जाता है की महात्मा गांधी भंगी जाति से बहुत प्रेम करते थे और उन्होंने‘हरिजन शब्द केवल भंगियों को ध्यान में रखते हुए ही इस्तेमाल करना शुरू किया था। गांधी जी ने कहा था कि यदि मेरा जन्म हो तो मै भंगी के घर पैदा होना चाहूँगा। अक्सर हरिजन नेता इन वाक्यों को गांधीजी के भंगियों के प्रति प्रेम को साबित करने के लिए कहते हैं
      ये भी कहा जाता है कि गांधी जी भंगियों से प्रेम तथा उनकी हालत सुधारने के लिए ही दिल्ली की भंगी बस्ती में कुछ दिन रहे। पर वास्तव में जो सुविधाएँ उन्हे बिरला भवन या साबरमती आश्रम में उपलब्ध थी वही यहाँ उपलब्ध करायी गयी थी। गांधीजी न किसी के हाथ का छुआ पानी पीते थे और न उसके घर मे पका खाना खाते थे। अगर कोई व्यक्ति फल आदि उन्हे भेट करने के लिए लाता था तो वे कहते थे कि मेरी बकरी को खिला दो इसका दूध मै पी लूँगा।

      यानी गांधीजी ख़ुद दलितों से एक आवश्यक दूरी बना कर रहे। पत्रिका हरिजन 12 जनवरी सन 1934 में वे लिखते है-‘एक भंगी जो अपने कार्य इच्छा तथा पूर्ण वफ़ादारी के साथ करता है वह भगवान का प्यारा होता है।यानी गांधीजी एक भंगी को भंगी बनाये रखने की वक़ालत करते नज़र आते है।
      गांधीजी जो सिविल नाफ़रमानी, हड़तालों और भूख हड़ताल का अपने राजनीतिक कार्य तथा अछूतों के अधिकारों के विरूध्द इस्तेमाल करते रहे थे, भंगियों की हड़ताल के बड़े विरोधी थे। क्यों थे ?
      1945 में बंबई लखनउ आदि कई बड़े शहरों में एक बहुत बड़ी हड़ताल सफाई कामगारों ने की। यदि गांधीजी चाहते तो इन कामगारों का समर्थन कर हड़ताल ज़ल्द समाप्त करवाकर इस अमानवीय कार्य में भंगियों को कुछ सुविधा दिलवा सकते थे किन्तु उन्होंने उल्टे अँगरेज़ सरकार का समर्थन करते हुए हड़ताल की निन्दा की । इस संबंध में एक लेख में वे लिखते है- सफाई कर्मचारियों की हड़ताल के ख़िलाफ़ मेरी राय वही है जो 1897 में थी जब मै डरबन (द-अफ्रीका) में था। वहाँ एक आम हड़ताल की घोषणा की गयी थी। और सवाल उठा कि क्या सफाई कर्मचारियों को इसमें शामिल होना चाहिए, मैंने अपना वोट इस प्रस्ताव के विरोध में दिया।

      इसी लेख में वे बंबई में हुए हड़ताल के बारे में लिखते है- विवादों के समाधान के लिए हमेशा एक मध्यस्थ को स्वीकार कर लेना चाहिए। इसे अस्वीकार करना कमज़ोरी की निषानी है। एक भंगी को एक दिन के लिए भी अपना काम नहीं छोड़ना चाहिए। न्याय प्राप्त करने के और भी कई तरीक़े उपलब्ध है। यानी भंगियों को न्याय प्राप्त करने के लिए हड़ताल करना महात्मा गांधी की नज़र में अवैध है।
      गांधीजी मानते है कि भारत में रहने वाला व्यक्ति हिन्दू या मुसलमान, ब्राम्हण या शूद्र नहीं होगा, बल्कि उसकी पहचान केवल भारतीय के रूप में होगी। लेकिन वास्तविकता यह है कि वर्ण व्यवस्था की जड़ पर कुठाराघात किये बिना अस्पृश्यता को दूर करने का प्रयत्न रोग के केवल बाहरी लक्षणों की चिकित्सा करने के समान है। छुआछूत या अस्पृष्यता और जातिभेद को मिटाने के लिए शास्त्रों की सहायता ढूँढना ज़रूर कहा जाएगा कि जब जक हिन्दू समाज में वर्ण विभाजन विद्यमान रहेगी तब तक अस्पृश्यता के निराकरण की आशा नहीं की जा सकती। अतः वर्ण व्यवस्था में नई पीढ़ी की आस्था एवं श्रध्दा समाप्त करना हिन्दू समाज की मौलिक आवश्यकता है।
      महोदय ,
      जब गाँधी सरीखे महात्मा इस वर्ण व्यवस्था में आस्था रखकर दलितों का शोषण करते रहे और इस व्यवस्था के मोह को नहीं छोड़ पाए तो आप, हम अन्य तो साधारण लोग हैं , वेसे आप अभी भी अपनी आदत के अनुसार नहीं मानेगे के दलितों का शोषण नाम की कोइ चीज़ भारत में थी बहुत अच्छा होता यदि महात्मा गांधी अन्य मामले की तरह दलित समस्याओं को भी प्राकृतिक न्याय की कसौटी में तोल कर देखते, समाज में उच्च कोटि तथा निम्न कोटि के व्यवसाय दोनों की ज़रूरत समान रूप से है। फिर इनके पुश्तैनी स्वरूप को बदलने की आज़ादी गांधी क्यों नहीं देतें, क्यों उच्च जातियों के पेशे आरक्षित करने का पक्ष लेते हैं, आख़िर श्रेष्ठता का सीधा संबंध संलग्न व्यवसाय से ही है । इसकी स्वतंत्रता के बिना समाज में समानता की कल्पना करना हास्यास्पद प्रतीत होता है।
      महोदय आज आवश्यकता है की हिन्दू समाज को ऐसे धार्मिक आधार चाहिए जो स्वतंत्रता, समता और बन्धुता के सिद्धांत को स्वीकार करता हो. इस उद्देश्य की प्राप्ति को लिए जाति भेद और वर्ण की व्यवस्था तभी नष्ट की जा सकती है, जब शास्त्रों को भगवद मानना छोड़ दिया जाय।
      …………………… शुभ कामनाओं के साथ दीपा शर्मा

      • दीपा जी मैं अब कुछ कहना नहीं चाहता हूँ. आप लगातार लिखते रही यही आशा करता हूँ.

      • दीपा जी नमस्कार!
        आपके श्रेष्ठ लेख के लिए बहुत बधाई व अगर आपके पास कुछ खाली समय हो ओर भी लिखने का कष्ट करें ,
        धन्यवाद!

  22. आदरणीय मीना जी,
    मुझे नहीं लगता है की प्रवक्ता पर संविधान या समन्वय के लिए कोई जगह है ………….. शुभ्कानो के साथ दीपा शर्मा

    • आदरणीय दीपा जी,

      आपका कहना है कि प्रवक्ता डॉट कॉम के मंच पर संविधान या समन्वय के लिये कोई जगह नहीं है। लेकिन मैं विनम्रता पूर्वक कहना जरूरी समझता हूँ कि प्रवक्ता डॉट कॉम को इसके लिये जिम्मेदार ठहराना, यदि आपका आशय है तो मैं इसे उचित नहीं पाता। क्योंकि मैंने प्रवक्ता डॉट कॉम पर एक स्थान पर ऐसी टिप्पणी भी प्रदर्शित होती हुई देखी हैं, जिसे पढकर पृथमदृष्टया एक निष्पक्ष व्यक्ति को भी ऐसा लगने लगता है कि प्रवक्ता डॉट कॉम केवल आरएसएस, हिन्दुवाद, भाजपा, विश्वहिन्दू परिषद और पुरातनपंथी सोच का ही समर्थक और प्रचारक है। हो सकता है कि उस टिप्पणीकार के विचारों में सच्चाई भी रही हो, लेकिन प्रवक्ता डॉट काम की तीखी आलोचना और प्रवक्ता डॉट काम की सत्यनिष्ठा एवं प्रवक्ता डॉट काम द्वारा पाठकों के प्रति निष्पक्ष दृष्टिकोण नहीं अपनाये जाने के आरापों को अपनी ही साइट पर प्रदर्शित करके प्रवक्ता डॉट काम किस बात का परिचय दे रहा है? यह बात गम्भीरतापूर्वक विचारणीय है?

      यदि प्रवक्ता डॉट कॉम पर टिप्पणी करने वाले कुछ पाठकों को संविधान की परिधि में रहकर, न्यायसंगत और बिना पूर्वाग्रह के निष्पक्षतापूर्वक विचार व्यक्त करने की समझ नहीं है! ऐसे में प्रत्येक व्यक्ति के पास दो विकल्प खुले हुए हैं या तो यह सबकुछ सहने की आदत डाली जाये या फिर प्रवक्ता डॉट काम पर से स्वयं को अलग कर लिया जाये। मैं नहीं समझता कि प्रवक्ता डॉट कॉम से किसी भी व्यक्ति को ऐसी उम्मीद करनी चाहिये कि वह (प्रवक्ता डॉट कॉम) अपनी निर्धारित नीति के विरुद्ध टिप्पणियों को सम्पादित करने के लिये आबद्ध है!

      आशा है कि आप मेरी बात को समझने का प्रयास करेंगी और अपना स्नेह बनाये रखेंगी। मार्गदर्शन की अपेक्षा के साथ, शुभकामनाओं सहित।

    • दीपाजी,
      नमस्‍कार।
      ‘प्रवक्‍ता’ पर संविधान या समन्‍वय के लिए कोई जगह नहीं है,यह कहकर आपने ‘प्रवक्‍ता’ की कड़ी आलोचना कर दी। यह मन को व्‍यथित कर गया।

      हर व्‍यक्ति और संस्‍था की एक विचारधारा होती है। ‘प्रवक्‍ता’ लोकतांत्रिक विमर्शों का मंच है, जो राष्‍ट्रवाद और लोकतंत्र में विश्‍वास करता है। ‘प्रवक्‍ता’ के पाठक भलीभांति जानते हैं कि प्रवक्‍ता ने कभी किसी लेखक और लेख के साथ पक्षपात नहीं किया। हमने सभी विचारधारा के लेखकों की रचनाएं प्रकाशित की हैं। हमने सनसनी फैलाने के लिए कभी संविधानविरोधी और असंसदीय शब्‍दों का प्रयोग नहीं किया और हमारी कोशिश रही कि ऐसा नहीं होने दिया जाए। यही कारण है कि प्रवक्‍ता निरंतर ऊंचाई की ओर अग्रसर होता रहा। हमने कभी इस बात को प्रचारित नहीं किया लेकिन पाठकों को यह जानकारी होगी कि महज डेढ़ वर्ष की अल्‍पायु में ही प्रवक्‍ता ने सैकड़ों स्‍थापित वेबसाइटों को पीछे छोड़ दिया और आज हिंदी में इसका स्‍थान उल्‍लेखनीय है। प्रवक्‍ता पर प्रकाशित लेख और टिप्‍पणियों की संख्‍या, स्‍तर देखकर यह सहज अंदाजा लगाया जा सकता है।

      प्रवक्‍ता ने यह साबित किया कि सही सामग्री देकर अच्‍छी टीआरपी हासिल की जा सकती है। प्रवक्‍ता से 200 लेखक जुड़ चुके हैं और 2500 लेख हम प्रकाशित कर चुके हैं। प्रवक्‍ता को हर महीने 4 लाख हिट्स मिलती है।

      प्रवक्‍ता को चलाने में हमारा प्रतिदिन पांच घंटा समय व्‍यतीत होता है और इससे हमारी रोजी-रोटी नहीं चलती है। आप यह अच्‍छी तरह जानती होगी कि प्रवक्‍ता डॉट कॉम किसी बड़े पूंजीपति घराने का उपक्रम नहीं है। य‍ह कुछ युवा पत्रकारों के सामाजिक सरोकारों का प्रतिफलन है। करोड़ों लोगों की मातृभाषा हिंदी इंटरनेट पर समृद्ध हो और हिंदी में गंभीर विमर्श हो, यही प्रवक्‍ता का उद्देश्‍य है।

      आपकी टिप्‍पणी को हमने प्रकाशित किया क्‍योंकि सहमति-असहमति ही लोकतांत्रिक विमर्शों का तकाजा है और यदि कहीं हमसे चूक हो रही हो तो इसे सुधार सकें। सधन्‍यवाद।

      • महोदय
        mujhe khed hai ki aapne is tippani ko pravakta.com se liya jabki mera aasahy is par tippani karne walo se tha fir bhi ye meri chuk ka parinaam hai mujhe is baat ko behtar tarike se likhna chaihye tha mujhe afsos hai, hamara bhi pryas yahi hai ki pravakta nirantar uchainyon ko chue………
        aasha hai aap is baat ko alag drishtikon se dekhenge….
        shubhkamnao ke sath ….
        deepa sharma

      • संजीव जी,
        स्नेह अभिनन्दन.
        क्या आपने कभी ध्यान दिया कि ऐसे बहुत से लेखक और आलोचक ,जिन्हे प्रवक्ता ने कभी सम्मानित किया था,आज प्रवक्ता के पृष्ठों से गायब हो चुके हैं? क्या आपलोगों ने कभी कारण जानने का प्रयत्न किया? हो सकता है कि आप कहें कि उनमें परिवर्तन आ गया है. पर ऐसा नहीं है. परिवर्तन प्रवक्ता में आया है. एक समय आप मेरी विवादस्पद कहानी और कठोर आलोचनाएं भी प्रवक्ता में प्रकाशित कर चुके हैं.उन पर बहुत कटू समीक्षाएं भी हुई है,पर मैं उसका बुरा नहीं मानता,पर जब मेरी टिप्पणियां अप्रकाशित रहने लगी और कुछ लोगों को आलोचना से परे माना जाने लगा,तो मुझे सोचना पड़ा कि क्या मैं सचमुच इस वी. आई. पी कल्चर को सह सकता हूँ? जब मैंने देखा कि इस उम्र में समझौता कठिन है,तो मैंने प्रवक्ता में सक्रियता से किनारा कर लिया. प्रवक्ता का पाठक मैं आज भी हूँ,पर इससे अधिक कुछ नहीं.
        शुभांकाक्षाओं के साथ,
        आर. सिंह.

        • कुछ समय से मैं केवल उन्हीं ऑनलाइन पत्रिकाओं में प्रस्तुत लेख पर टिप्पणी करता आया हूँ जो वूकल अथवा अन्य विदेशी सॉफ्टवेयर अनुप्रयोगों द्वारा नहीं बल्कि प्रवक्ता.कॉम की तरह स्वयं अपने पाठकों की टिप्पणियों को प्रबंधित करते हैं| अवश्य ही टिप्पणियों की विषय-वस्तु में नीतिपरक संतुलन बनाए उन्हें लेख के साथ संलग्न करना एक कठिन लेकिन आवश्यक कार्य है जिसे प्रकाशक बहुधा टिप्पणियों व पाठक-सम्बन्धी सूचनाओं को मुद्रीकरण कर रहे टिप्पणी-प्रबंधकों पर छोड़ देते हैं|

          प्रवक्ता.कॉम में “आपने कहा…” पटल पर सूचीबद्ध टिप्पणियां कई दिन पड़ी रहने के बाद नई टिप्पणियों की बाढ़ में कुछ एक टिप्पणियां पटल पर देखी ही नहीं जातीं| ऐसी स्थिति में भले ही कोई गंभीर टिप्पणीकार फिर से लेख पर जा अपनी टिप्पणी को देख संतुष्ट हो जाए तिस पर अन्य पाठक व स्वयं टिप्पणीकार उनकी प्रतिक्रिया से वंचित रह जाते हैं| वैसे भी मुख पृष्ठ के दाहिनी ओर प्रवक्ता.कॉम – हिन्दी समाचार, ताज़ा समाचार गूगल से…, Latest Legal News, Top Legal Articles की अपेक्षा में “आपने कहा…” पटल को बहुत कम स्थान दिया गया है| श्री संजय कुमार सिन्हा जी से, जिनका नाम किन्हीं कारणवश प्रवक्ता मंडली में सम्मिलित नहीं है, मेरा अनुरोध है कि “आपने कहा…” पटल को आधुनिकतम बनाए रखने में अधिक ध्यान दें|

  23. meena ji aapne sc/st ki aabadi bar -bar 30 % kaha hai main aapko batana chahunga ki yah 25% se jyada nahi hai.aur arakshan ke samay vakai unki aabadi 22.5% thi. tej jansankhya vriddhi ke karan unki jansankhya arakshan se jyada hai. yah mukhyatah unka hi dosh hai. mere yahan se loksabha aur vidhan sabha me lagatar sc candidate represent karta hai hamne to kabhi aah nahi bhari. kya yah mere maulik adhikaron ka ullanghan nahi hai. aap baar baar sanvidhan ka duhai dete hain kya kisi ko us ke kshetra se election me khade hone se roka jana loktantrik hai? 15 saal ke liye diya gaya arakshan hamesha ke liye rakhna kahan ka nyay hai? aap ko nahi lagta ki sansadhno par dusron ka hak sc/st/obc/ladies/freedomfighter ko aarakshan dene se maara ja raha hai. dusron ki sambhawnaon par kaphi vipreet asar padta hai. aap sirf ekpakshiya vivechna karenge to aap ko kamiyan hi dikhengi. lekin aap jab bahuaayami soch se sekhenge to payenge ki yah itna aasan nahi hai. dusron ki takleefon ko samjhne ki koshish karen nirankushji.

    • “aap sirf ekpakshiya vivechna karenge to aap ko kamiyan hi dikhengi. lekin aap jab bahuaayami soch se sekhenge (dekhenge) to payenge ki yah itna aasan nahi hai. dusron ki takleefon ko samjhne ki koshish karen nirankushji.”

      आपकी उक्त टिप्पणी को पढ़कर केवल यही निवेदन है कि कृपया दिनांक : 20.05.2010 को निम्न साइट पर प्रदर्शित मेरा लेख “विपन्न-सवर्ण बच्चों का संरक्षण” पढें और हो सके तो अवगत कराने की कृपा कि मेरी सोच कितनी एकपक्षीय है ? और आपका सवाल- “dusron ki takleefon ko samjhne ki koshish karen nirankushji.” कितना जायज है?

      “विपन्न-सवर्ण बच्चों का संरक्षण”

      निम्न साइट पर दिनांक : 20.05.2010 को प्रदर्शित पढें।
      https://www.merikhabar.com/news_details.php?nid=28168

      शुभकामनाओं सहित

  24. निस्संदेह इस समाज और देश में बहुत सारी समस्याएं हैं. लेकिन उनको हल करने के लिए हमें सकारात्मक तरीके से सोचना चाहिए. गरीबी सिर्फ दलितों और आदिवासियों में ही नहीं बल्कि सभी जातियों में है. घोर दरिद्रता में सभी जातियों के लोग जीते हैं. मेरे यहाँ obc की बहुत सारी जातियां की हालत शोचनीय है. ब्राह्मण में भी काफी गरीबी है. और इस व्यवस्था के लिए आज के किसी जाती को दोष देना उचित नहीं होगा. इस व्यवस्थ का विकास शनै शनैः हुआ और आज इस रूप में है. तत्कालीन समय के असरदार जातियों या लोगों ने स्वार्थ वश जाति व्यवस्था को पल्लवित किया हो. लेकिन उसका दोष वर्तमान के लोगों पर डालना अन्याय होगा. हम इस व्यवस्था को सुधारने के लिए क्या कर सकते हैं देखने की जरुरत है.
    गरीबी की मार जब सब जगह है तो आरक्षण सिर्फ दलितों और आदिवासियों को क्यों?
    सभी गरीबों को क्यों नहीं?
    मैं आप को बोलूं की मेरे यहाँ reverse जातिवाद चलता है तो आप क्या कहेंगे? दलित और आदिवासी अपने आप को मूल निवासी समझते हैं और वैसा ही व्य व्हार करते हैं. शिक्षण संस्थानों में यदि आप दलित या आदिवासी नहीं हैं तो प्रक्टिकल और sessional कम मिलने की सम्भावना रहती है. क्योंकि बहुसंख्य शिक्षक इन्हीं समुदायों से हैं.
    आरक्षण से अयोग्य शिक्षक मिलने से विद्यार्थियों पर विपरीत प्रभाव पड़ता है. मेरे स्कूल में अधिकाँश शिक्षक reserve category से हैं जिनका ज्ञान निश्चय से शोचनीय है. शिक्षण का मुख्या उद्देश्य ज्ञान देना या रोजगार देना है?
    यदि आज सरकारी क्षेत्र में रोजगार का सृजन नहीं हो रहा है तो इसका फायदा या नुकसान सभी को होता है सिर्फ sc /st को नहीं. इस लिए ये सोचना घटक है की sc /st का हक़ छिना जा रहा है.
    इन जातियों के साथ भेदभाव वाकई चिंता की बात है. और इसे तत्काल ख़त्म करने की आवश्यकता है.लेकिन इसके लिए सकारात्मक पहल की जरुरत होगी. निराकुश जी मैं आपके इस पुण्य काम में भागीदार बनना चाहता हूँ. आवश्यकता है ऐसे समाज सुधारक की जो सबका दिल जीत सके या ऐसे आन्दोलन की जो सब इन्सान को सामान समझे. दुर्भाग्य से ऐसा हो नहीं प् रहा है. पहली बात तो ये ऐसे किसी पर label laga diye jaane का dar rahta है की wo ek vishesh soch का pratibimb है. इसके alava sc / st act भी samajik sauhrdrata के marg में badhak है. isme jhute aarop laga कर dusron को phansaya jaana aam बात है.

  25. माफ़ करियेगा निरंकुश जी मैं आप के विचारों से सहमत नहीं हूँ. निरंकुश जी आप के मन में क्रोध और क्षोभ कूट कूट कर भरी हुई है. और शायद इस लिए आप काफी कठोर शब्दों के प्रयोग से अपने आप को नहीं रोक पाए.
    मैं इस बात से सहमत हूँ की देश में काफी कुछ सुधर की जरुरत है, वर्तमान व्यवस्था में कई loophole है. लेकिन आप ने कुछ हल नहीं सुझाया है, जैसे कोई जादू की छड़ी आकर समस्याओं को चुटकियों में हल कर जाये.
    आप किन उच्चा जातियों की बात कर रहे हैं क्या वे जो दिल्ली में रिक्शा चलते हैं? क्या वे जो भीख मांगते हैं? उच्च जाती की ज्यादातर हिस्सा गरीबी में जीवन जीता है. उच्च जाती का बड़ा तबका गरीब है और आरक्षण की असरदार मांग कर रहा है. मैं नहीं सोचता की सभी उच्च जातियों की मिलीभगत है. ज्यादा से ज्यादा ऊपर का २ % लोग ऐसे कार्यों में शामिल होगा.
    अलग देश मांगने का सबको लोकतान्त्रिक हक़ होना चाहिए. लेकिन दलितों और आदिवासियों के अलग देश ले लेने से बाकी लोग refugee नहीं हो जायेंगे. मैं तो इसी जमीन में पैदा हुआ हूँ और मुझे मेरी जमीन से कोई बेदखल नहीं कर सकता.
    मैं न तो सवर्ण हूँ और न दलित. मेरी अपनी समस्या कोई कम नहीं है. मेरी अपनी समस्या कहीं इन उलझनों के बीच खो न जाए.
    मेरे यहाँ इन तथाकथित दलितों ने हमारे खिलाफ जंग छेदी हुई है.

    • “मैं न तो सवर्ण हूँ और न दलित. मेरी अपनी समस्या कोई कम नहीं है. मेरी अपनी समस्या कहीं इन उलझनों के बीच खो न जाए.
      मेरे यहाँ इन तथाकथित दलितों ने हमारे खिलाफ जंग छेदी हुई है”

      उक्त पंक्ति में आपका दर्द झलकता है। हो सकता है कि आपकी समस्या इस प्रकार की हो कि आप सार्वजनिक करना उचित समझें या नहीं, लेकिन आपको विश्वास दिलाना चाहता हूँ कि मैं बिना वर्ग भेद के हर प्रकार की नाइंसाफी के खिलाफ हूँ।

      दूसरी बात यह कि इस मंच पर मेरे हिसाब से तो केवल कानूनी तथा सैद्धान्ति प्रावधानों पर चर्चा होनी चाहिये। हर क्षेत्र में कोई न कोई, किसी न किसी वर्ग या जाति से पेरशान है।

      मैं स्वयं भी दलित नेतृत्व की सम्पूर्ण आदिवासियों के विरुद्ध जारी कुटिल चालों एवं भेदभावों के खिलाफ हूँ, जिसके लिये हम संविधान के दायरे में पिछले एक दशक से संघर्ष कर रहे हैं। जिसमें हमें अभी तक सफलता नहीं मिली है, लेकिन हम निराश नहीं हैं।

      जब तक नाकारा एवं भ्रष्ट हो चुकी प्रशासनिक व्यवस्था को संविधान एवं कानूनी प्रावधानों का सही एवं निष्पक्षता से क्रियान्वयन करने के लिये जिम्मेदार ठहराकर भारतीय दण्ड व्यवस्था के तहत दण्डित करने की शुरुआत नहीं होगी, तब तक देश का विकास तो दूर, कोई भी मानव सुखी एवं सम्पन्न नहीं हो सकता।

      शुभकामनाओं सहित।

  26. आदरणीय डॉ. राजेश कपूर साहब।
    सादर प्रणाम।

    आपकी ओर से प्रदान किये गये सम्मान के लिये हृदय से आभार प्रकट करते हुए विनम्रता पूर्वक निवेदन करना चाहूँगा कि-

    1. मैंने मानव व्यवहारशास्त्र, मनोविज्ञान, न्यायशास्त्र, अपराध एवं अपराधियों का मनोविज्ञान आदि के अध्ययन और समाजशास्त्रीय परिस्थितियों के प्रत्यक्ष अध्ययन तथा शोध के दौरान जो कुछ सीखा है या आत्मसात किया है, उसके प्रकाश में मेरा विनम्र मत है कि किसी भी मनुष्य का जिस प्रकार के समाज एवं सांस्कृतिक परिवेश में लालन-पालन एवं समाजीकरण होता है, उसका उस व्यक्ति के अवचेतन मन पर गहरा एवं स्थायी प्रभाव ताउम्र रहता है। अलग-अलग देशों के, अलग-अलग उम्र एवं अलग-अलग भाषा के जानकार, अनेक मनोवैज्ञानिकों ने, अनेकों अध्ययनों में बार-बार इस बात को प्रमाणित किया है कि किसी भी व्यक्ति के अधिकतर दैनिक क्रियाकलाप, जीवन जीने के तरीके, स्वयं के जीवन के साथ-साथ अन्य लोगों के जीवन तथा सामाजिक और सांस्कृतिक परिवेश के प्रति उसका सकारात्मक, नकारात्मक या आलोचनात्मक या सृजनात्मक नजरिया आदि सब कुछ उसके लालन-पालन एवं उसके समाजीकरण की आधारशिला पर आधारित होकर होता है। मेरा विनम्र मत है कि इसमें किसी भी व्यक्ति का न तो कोई योगदान होता है और न हीं उसका कोई दोष होता और न हीं इसे किसी व्यक्ति विशेष की उपलब्धि या उसकी कमी ही माना जाना चाहिये। यह बात समान रूप से प्रत्येक मानव पर लागू होनी चाहिये।

    मेरा ऐसा विनम्र मत है कि उपरोक्तानुसार संक्षेप में दर्शायी गयी मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि में करोडों लोगों का जीवन हर पल संचालित, सृजित या विसर्जित होता रहता है। जिसे हम लोग नम्र, उग्र, आक्रामक, संवेदनशील, क्रूर, अहंकारी, हीन, पूर्वाग्रही, अतिवादी आदि किसी भी प्रकार का नाम देकर आदर, सम्मान, घृणा, अपमान, धुत्कार आदि से नवाजते रहते हैं। इस सबके उपरान्त भी हम किन्हीं अपवादों को छोडकर मानव की मौलिक प्रवृत्ति एवं प्रकृति को नहीं बदल पाते हैं।

    २. मैं भारत में जन्मा हूँ, इसलिये मुझे भारत को महान कहने में गर्व की अनुभूति होती है। यह मेरी स्वाभाविक अनुभूति है। यदि मैं मालदीव या भूटान या और भी किसी छोटे से छोटे देश में जन्मा होता तो भी मैं अपने देश को महान ही मानता। सभी देशों के नागरिक अपने-अपने देश को महान ही मानते हैं। इसमें उनका कोई विशेष योगदान नहीं है, वे वही कर रहे हैं, जो उन्होंने सीखा है या जो उन्हें सिखाया गया है। इसलिये हर व्यक्ति को अपने अवचेतन में स्थापित धारणाओं और आस्थाओं से जाने-अनजाने ही अपनत्व और ऐसा मोह हो जाता है, जिससे मरणोपरान्त ही मुक्ति मिल पाती है। बेशक उनकी आस्था या धारणा अन्य लोगों की दृष्टि में गलत ही क्यों न हों। मैं समझता हूँ कि मुझे उदाहरण देकर इस बात को प्रमाणित करने की जरूरत नहीं होनी चाहिये।

    मैं प्रस्तुत लेख पर पर अपनी अल्पबुद्धि अनुसार स्पष्टीकरण प्रस्तुत करके अपना दायित्व निर्वाह कर चुका हूँ। अतः अन्त में, मैं आपको और सभी पाठक-पाठिकाओं को प्रणाम करते हुए, ऐसी बहस से स्वयं को अलग करने की अनुमति चाहता हूँ, जिसका परिणाम व्यक्तियों को कमतर या घटिया या श्रेष्ठ सिद्ध करना हो! जिसका लक्ष्य व्यक्तियों पर व्यक्तिगत आक्षेप एवं उनकी निष्ठा और आस्थाओं पर यह जानते हुए भी कि हर व्यक्ति का सत्य को देखने एवं समझने का नजरिया भिन्न हो सकता है, फिर भी शब्दवाणों के जरिये आक्रमण करना ही ध्येय हो! जो बौद्धिक चर्चा हमें दलों, टीमों और प्रायोजित प्रतिक्रिया व्यक्त करने वालों में बांटेने का काम करे, मैं मानता हूँ कि इस सबसे हम सद्‌भावी समाज का निर्माण तो नहीं हीं कर सकते हैं। अतः इस प्रकार के आक्रमण का कारण या हेतु मैं बनूं, अब यह मुझे अपनी ही नजरों में अपने आपको गिराने के सदृश्य प्रतीत हो रहा है।

    हाँ आपकी टिप्पणी पर विद्वान पाठक चर्चा करना चाहें तो वह उनका अपना निर्णय होगा।

    आपके स्वस्थ जीवन की शुभकामनाओं सहित।

    सेवासुत डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

  27. प्रिय भाषी, विद्वान अध्येता व लेखक डा. मीना जी! लाख प्रयास करने पर भी हम पूर्वाग्रहों का शिकार होजाते हैं. आखिर हम कोई मशीन तो हैं नहीं. संवेदनशीलता के कारन कभी-कभी एकांगी, पूर्वाग्रही सोच आपके लेखन में झलक जाती है जिसमें सुधार की गुंजाईश रखकर चलने की उदारता और बड़प्पन भी नज़र आता है. हम कितने भी विद्वान हों पर सम्पूर्ण तो हैं नहीं. अतः संवाद ज़रूरी है ; इस बात पर आपकी आस्था आपको स्वस्थ संवाद का सुपात्र ही नहीं, स्वस्थ समाज के निर्माण का एक महत्वपूर्ण अंग भी बनाती है. आपके इतने सद्गुणों की चर्चा के बाद कहूँगा कि आपकी और मेरी पृष्ठ भूमी, अध्ययन की सामग्री/स्रोत भिन्न होने के कारण कुछ मतभेदों की गुजाईश है.
    १. आप मनु और मनुवाद ( जिसका प्रयोग एक गाली के रूप में किया जाने लगा है), धर्म, हिन्दू के प्रति जितने कडवे भाव प्रकट करते हैं ; क्या यह सही है ? क्या आपने अपने स्वभाव के अनुसार इसपर कोई अध्ययन किया है ?आपकी इस अपमानजनक, करोड़ों की भावनाओं को आहात करने वाली भाषा का कोई तार्किक आधार है ? कहीं आप अनजाने में समाज को तोड़ने का, विद्वेष जगाने, बढाने का माध्यम तो नहीं बन रहे ? किसी समाज, धर्म के प्रती इतनी कठोर भाषा का प्रयोग करने का ठोस कारण बतलाया जाना चाहिए. जहां तक मेरी जानकारी है वह यह है कि सन १८०० तक हिदू या सनातन समाज में जातिवाद था ही नहीं. जबकि तबतक मज़हब के नाम पर अरब से अफ्रीका, यूरोप तक करोड़ों लोगों को यानाएं देकर मारा जाचुका था. फिर भी आर्य देश भारत के हिदू समाज के प्रती इतना कटु कथन ? ये तो आपकी जानकारी में आ ही गया होगा कि आर्यों के आक्रमण का झूठ भी भारत को टुकड़ों में बांटने की एक कुटिल चाल है जिसका भेद ठोस प्रमाण देकर खोला जा चुका है (देखें Aryan Invision A myth,Dr. varad Pandey)
    . उसी देश और समाज तोड़क योजना का एक अंग है ” भारत को जातियों, भाषाओं, सम्प्रदायों, की आधार पर तोड़ना, टुकड़ों में बांटना, कमज़ोर बनाना.” आपकी जानकारी में कुछ तथ्य लाने में मुझे प्रसन्नता होगी————————-
    ## बदनाम मैकाले द्वारा सन १८३५ में भारत का सर्वेक्षण करवाया गया था. उससे पहले एडम स्मिथ द्वारा सर्वेक्षण किया गया जिसकी १०१७ पृष्ठों की रपट तैयार हुई.
    इन रपटों के अनुसार ——
    *भारत के विद्यालयों में २६% ऊंची जातियों के तथा ६४% अन्य जातियों के छात्र साथ पढ़ते थे. ( तो फिर छुआ-छूट कहाँ थी ?)
    * १००० शिक्षकों में २०० द्विज तथा ८०० डोम जाती तक के शिक्षक थे. स्वर्ण जाती के छात्र भी उनसे बिना भेद-भाव के पढ़ते थे. ( अस्पृश्यता व जातिगत घृणा कहाँ थी ? )
    * इसके इलावा ये भी दर्ज है कि मद्रास प्रेसीडैन्सी में १५०० मेडिकल कालेज थे जिनमें एम्.एस. के बराबर शिक्षा दी जाती थी. आप जानकार हैरान होंगे कि अधिकाँश सर्जन नाई जाती के थे.
    * दक्षिण में २२०० इंजिनयरिंग कालेज थे जिनमें एम्.ई.स्तर की शिक्षा दी जाती थी. इंजीनियरिंग कालेजों के अधिकाँश शिक्षक पेरियार जाती के थे. इन्हीं पेरियार वास्तुकारों ने मदुरई के अद्भुत कौशल वाले मंदिर बनाए हैं.
    मद्रास के जिला कलेक्टर ए.ओ.ह्युम ने पेरियारों पर प्रतिबन्ध लगा दिया था कि वे मंदिर निर्माण नहीं कर सकते. हम सब जानते हैं कि इसी अन्यायी और अत्याचारी ह्युम ने १८८० में कांग्रेस की स्थापना की थी.
    डा. मीना जी ! में स्वयं हैरान हूँ कि जातियों कि व्यवस्था में छुआ-छूत की कुरीति कब और कैसे आई. अंग्रेजों की ऐसी क्या दुराभिसंधी थी जिससे इसकी शुरुआत हुई ?
    ८ अभी तक एक जानकारी मिली है कि हमारे निर्वस्त्र, निर्धन बनवासी तब दुनिया के सर्वोत्तम लोह निर्माता इजीनियर थे. विश्व बाज़ार में डेनमार्क का लोहा तबतक नहीं बिकता था जबतक भारत का इस्पात उपलब्ध रहता था. इस्पात के ४०% विश्व बाज़ार पर भारत का कब्जा था. तब इंग्लॅण्ड के सांसदों की एक टीम भारत आई और आज के झारखंड के सर्वेक्षण में एक हज़ार लोहे के कारखाने लगे देखकर हैरान हो गये. उन सांसदों जाने के बाद आज का फोरेस्ट एक्ट बनाया गया. तब इसमें प्रावधान था कि जो जंगल से लकड़ी, घास, कोयला, अयस्क ( कच्चा लोहा) लाएगा उसे ४० कोड़े मारे जायेंगे.यदि वह इतने पर न मरे तो उसे गोली मार दी जाए.
    तब संसार के सबसे अमीर हमारे ये बनवासी संसार के सबसे गरीब लोगों कि श्रेणी में आगये. बाद में अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष से चिढ कर इन्हें शेड्यूल कास्ट,शेड्यूल ट्राईब नामांकित किया गया. इसप्रकार ये छोटी जाती बना दिए गए. खोजने पर और भी ऐसे अनेक प्रमाण मिल सकते है.
    * किसी मित्र ने जानकारी दी है कि दिल्ली के किसी विद्वान ने एक पुस्तक लिख कर प्रमाणों से सिद्ध किया है कि जिन राजपूतों ने इस्लाम पंथ स्वीकार करने के स्थान पर ‘मैला’ (मल-मूत्र) सर पर उठाना स्वीकार किया, वे बाद में भंगी कहलाये. इन बातों की गहन जांच की जानी चाहिए. पर इतना तो है कि बाल्मिकियों का राजपूतों जैसा योद्धा, कड़क स्वभाव तो है.
    ** तो डा. मीना जी मेरा विनम्र निवेदन है कि अस्पृश्यता की जड़ को देखा जाना चाहिए और फिर उसके समाधान के ऐसे प्रयास होने चाहिए जिन से समाज में टूटन, घृणा, विद्वेष को बढ़ावा न मिले. ये अहसान की, परायेपन की भाषा तो उचित नहीं जिससे ऐसा लगे कि अलग देश की मांग करके कृपा कर रहे हैं. क्या हम चुपके से एक और विभाजन के बीज लोगों के मनों में बोना चाहते हैं ? कृपया भाषा से जा रहे सन्देश पर ध्यान दें.
    ** आप तो सविधान के अछे अध्येता हैं. ज़रा देखकर बतलाये कि ‘सेक्युलर’ अंग्रेजी शब्द का हिन्दी अनुवाद पंथ निरपेक्ष है या धर्म निरपेक्ष ? धर्म-निरपेक्ष का अर्थ हुआ सत्य के विरोध में. आशा की जाती है कि आपका अध्ययन प्रमाणिक हो. अगली एक बात यह है कि संविधान का पंथ निरपेक्ष शब्द भी सही प्रयोग नहीं है. सर्व पंथ सम भाव होना चाहिए. भातीय मूल के अनेकों सम भाव की सोच वाले उत्तम सम्प्रदाय हैं. उनसे निरपेक्षता तो नकारात्मक विचार है. उनके प्रति समभाव की दृष्टी ही एक सही सोच है.
    * अनेकों बार संशोधित हो चुके संविधान को पूरा प्रमाणिक मान लेना कैसे उचित है ? बार-बार आरोप लग रहे हैं कि इस संविधान में सारे कानून वे ही हैं जो अत्याचारी अंग्रेजों ने हमें लूटने, बर्बाद करने, अन्याय करने के लिए बनाये थे. जब हम हर विषय पर खुली चर्चा, स्वस्थ संवाद के पक्षधर होने का दावा करते हैं तो फिर संविधान पर बहस से परहेज़ क्यों ? शायद अनेकों बरबादियों की जड़ वहीँ हो ; बढ़ते जातिवाद और विद्वेष के सहित.
    ** १. विस्तार की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए कि धर्म का विरोध या धर्म के सिद्धांतों से असहमति का अर्थ है इस विषय की अज्ञानता या फिर पूर्वाग्रह .
    २. साधू-संतों के प्रति इतनी कटुता का क्या अर्थ है? क्या सन्देश देना चाहते हैं आप ? स्वामी विवेकानंद, स्वामी राम तीर्थ, महर्षी अरविन्द, स्वामी दयानंद, श्री-श्री रविशंकर संत ही हैं न ? ऐसे महान पुरुषों के सम्मान से किसी को क्यों कष्ट होना चाहिए ? जो लोग समाज को सही दिशा देने में आप हम से हज़ारों गुना अधिक सफल हैं, जिनके कारण भारत -भारत है ; उनके प्रती विद्वेष भाव ? आखिर बात क्या है ?????
    आशा करता हूँ कि आप ऐसा कुछ नहीं कहेंगे कि मुझे कहना पड़े, कि अगर कुछ कपूर या कुछ मीना चोरी, बलात्कार करते हुए पाए जाएँ तो क्या हम सारे कपूरों, मीणाओं को अपराधी घोषित कर देंगे?
    ** आपकी विनम्रता सबको मेरी तरह अच्छी लगती होगी. पर आपकी भाषा भातीय प्रतीकों को लेकर इतनी कटु क्यों होजाती है ? मैं आपकी नीयत पर प्रश्न चिन्ह नहीं लगाना चाहता पर इसके लिए कुछ प्रयास आपकी ओर से भी अपेक्षित है. रही-सही कसर आपके प्रशंसक पूरी कर देते हैं कि मामला प्रायोजित , पूर्वाग्रही बदनीयती का होने का संदेह बलवती होने लगता है. फिर भी मान लिया जा सकता है कि टिप्पणीकारों पर आपका क्या नियंत्रण.
    फिर इस पत्रिका में आप जितनी तर्कशील ढंग से बात कहने वाले कम लोग हैं. अतः मैं ह्रदय से चाहता हूँ कि आपकी सादआशयता के प्रति मेरी तरह औरों का भी विश्वास बना रहे.
    मेरी किसी बात को अन्यथा न लें. इससे अधिक नम्र भाषा में अपनी बात स्पष्ट करना मेरेलिए बड़ा मुश्किल है. आप सरीखे विद्वान सज्जन से आशा करता हूँ कि हर बात को सही परिप्रेक्ष्य में लेंगे.
    सादर,सप्रेम आपका !

    • आदरणीय डॉ. राजेश कपूर जी—-शतशः धन्यवाद। बहुत अच्छी जानकारी दी आपने। मैने भी कुछ इसी प्रकार की जानकारी, धर्मपाल जी की पुस्तकों से, और श्री बजाज (? नाम ठीक याद नहीं ) की, और कुछ अन्य पुस्तकों से, प्राप्त की है। पर आपकी जानकारी आंकडों सहित होनेसे अधिक उपयुक्त हैं। हमें शिविरो में बहुत ही काम आएगी। आपका आभार कैसे व्यक्त करें? भारतके बाहर भी मति भ्रमित पालक -माता- पिता है ही। अगली पीढी–>हमारे बच्चे, युवा इस Brain Washing बहुत कुछ बच पाए हैं।
      अंतमें, मीणा जी समय निकाल के प्रश्नों के उत्तर तो देते हैं। अन्य लेखक ऐसा नहीं करते, इसमें मीणाजी की महानता ही झलकती है।

  28. निरंकुशजी सप्रेम निवेदन: क्षमा चाहता हूं, प्रवास पर था, अतः विलंब हुआ। आप इस लेखके लेखक हैं, बंधुभाव बना रहे, इस लिए, इस लिए इस लेख पर आगे, मेरी टिप्पणी, कम ही संभव है।
    (१) मुझे हमारे पीछडे बंधुओं के प्रति अन्याय के विषयमें शंका न थी, न है। इस लिए मैंने केवल जानकारी हेतु ही, प्रश्न किया था। इस बिंदुपर आप और मुझमें कोई असहमति नहीं है। पर, विचार समग्र रूपसे होना चाहिए, एक अंगका विचार चिरस्थायी सुलझाव नहीं दे सकता।
    (२) आपने एक राजके विभाजनकी कथा लिखी, वह मेरी दृष्टि में, सादृश्य-तुल्य (analogous) नहीं है। एक राजका विभाजन, जो किसी बहुमति/लघुमति पर आधारित नहीं है, उसे विभाजित करना, और जातिकी बहुलतापर आधारित विभाजन (जैसा पाकीस्तानके मूलमें माना गया था, वैसे) करना समान नहीं है।– और जिन्ना के पाकीस्तानमें किस प्रकारका आरक्षण हमे(सारे हिंदुसमाजको) प्राप्त हुआ? आप इससे अनजान तो नहीं है। छोटे देश World Power और समृद्ध बनने की संभावनाए भी कम ही समझी जाती है।
    (३) मैं फिर भी मानता हूं, कि देश आगे बढानेमें योगदान हर कोई तभी दे पाएगा, जब वह सक्षम होगा। और क्षमता प्राप्त करानेमें सहायता( इस प्रकारका आरक्षण सही है) हो, इस में भी, मुझे संदेह नहीं है। यह मेरी भी दृढ धारणा है।
    (४) बिना क्षमता ही, उत्तेजन दिया जाए, तो, एक अलग प्रकारका भ्रष्टाचार ही समझा जाएगा। (देश आगे नहीं बढ पाएगा)- जिससे न उनका आत्म विश्वास जगेगा, न लघुता ग्रंथी सुलझेगी ,जो हम सुलझाना चाहते हैं। दान पर जीना कोई पसंद कैसे कर सकता है?
    (५) मानवी मन ही कुछ ऐसा है, मानस शास्त्र भी कुछ ऐसा है, (जो आप जानते ही होंगे) कि, बिना सामर्थ्य, बिना ग्यान, बिना मेहनत किस वस्तुका मिल जाना व्यक्तिको आत्म सम्मान देनेमें अक्षम सिद्ध होता है।
    जिस वस्तुको व्यक्ति परिश्रम के बाद प्राप्त करता है, वह वस्तु उसे वास्तविक संतोष देती है।
    (६) इसके एक अतिरिक्त(side effect) परिणामसे भी आप अनजान तो नहीं है, कि इसके कारण, भारतकी कुछ सक्षम प्रतिभाएं भारतके बाहर जाकर दूसरे देशोंकी उन्नतिमें ( उनकी अपनी उन्नति भी उसीसे जुडी है) योगदान दे रही है।
    (७) मैं ऐसे कुछ एन. आर. आय. बंधुओंको को जानता हूं, जो पी.एच. डी. प्राप्त किए हैं, सक्षम हैं, भारत के लिए वे १५-२५ % वेतनपर काम करने तैय्यार थे, (कुछ जीनेका आनंदभी इसका कारण था) पर कोशीश करके भी, फिर वापस लौट गए। बिसियों वर्ष तक, “भारतीय नागरिकता” का भी त्याग नहीं कर पाए थे।
    (८) दूसरा संघर्ष-जनित न्याय द्वेष-(और बदले की भावना)- भी पैदा कर सकता है। । संघर्षसे, क्रांतिसे पुनः प्रतिक्रांति और रक्त पात की संभावना तो रहती ही है। मेरी यही मान्यता है।
    (९) लेकिन हर मानवमें सत का वास मैं मानता हूं। सत से सत जगता है। असत से असत। असतसे सत को जगानेका प्रयास पश्चिम में चलकर, किसी भांति पूरब में पहुंच जाएंगे, ऐसी अपेक्षा करना है।
    सारांश: आरक्षण के अंतर्गत, हमारे अपने पिछडे बंधुओंको सक्षम होकर खुली प्रतिस्पर्धा करने में हर प्रकार की सहायता दी जानी चाहिए। धन ना बांटा जाए, (जो भ्रष्टाचार का कारण है)।
    आप के विचार व्यक्त करें।
    सच्चायी को उजागर करने का आपका यह उपक्रम सफल हो। यही कामना।
    ॥जय भारत, जय विश्व गुरू॥

    • आपने प्रथम पैरा में ही साफ़ कर दिया है कि-
      “आप इस लेखके लेखक हैं, बंधुभाव बना रहे, इस लिए, इस लिए इस लेख पर आगे, मेरी टिप्पणी, कम ही संभव है।”
      ऐसे में मेरी और से कुछ भी कहना कम से कम आपके लिया तो अर्थहीन है, सो फ़िलहाल कहने को बहुतकुछ होते हुए भी मैं अपनी कलम को विराम देता हूँ!
      धन्यवाद!

  29. -डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’जी, आपके लेख के दूसरे परिच्च्छेदके प्रारंभ में आपने कहा, कि, (आपके शब्दोमें ) ————
    “आज के समय में अनेक लोगों को ज्ञात ही नहीं है कि दलित, आदिवासी, पिछडों द्वारा भी अलग राष्ट्र की मांग की गयी थी, ……………………………”
    (१) मैं जानकारी चाहता हूं, कि इस मांगमें कौनसा भूप्रदेश, मांगा गया था?

    • आदरणीय डॉ. मधुसूदन जी, आपने सीधा सवाल पूछा है। जिसका उत्तर जरूर दिया जाना चाहिये। लेकिन मैं विनम्रता पूर्वक कहना चाहूँगा कि हर सवाल का उत्तर वही नहीं होता है, जो प्रश्नकर्ता द्वारा इच्छित/अपेक्षित हो। यदि पूछने वाले की इच्छानुसार ही लोग उत्तर देने लगें तो अदालतों में सारे वकील अपने सभी मुकदमों को चुटकी बजाते ही जीत जायें।

      इसीलिये आपके सवाल का सीधा जवाब देने के बजाय मैं आपसे ही प्रतिप्रश्न करना चाहूँगा। आशा है आप इसे अन्यथा नहीं लेंगे।

      मैं अपनी बात एक लघु कथा के जरिये प्रस्तुत करना चाहूँगा।

      एक देश में एक राजा था। जिसके पांच रानियाँ और दस राजकुमार थे। राजा मद में आकर प्रजा पर तो अत्याचार करता ही था, साथ ही साथ वह अपनी चहेती रानी से जन्मे दो राजकुमारों और चहेती रानी को ही सर्वाधिक महत्व देता था, जिसके परिणामस्वरूप आठ राजकुमारों एवं चार रानियों को कम महत्व मिलता था। इसका स्वाभाविक परिणाम ये हुआ कि राज्य के उत्पीडित एवं उपेक्षित प्रजाजनों के साथ-साथ राजघराने में भी राजा के प्रति असन्तोष पनपने लगा और राजा के विरुद्ध अनेक ओर से आवाजें उठने लगी।

      आठ में से एक राजकुमार जो अत्यन्त बलशाली और युद्धकला में पारंगत था, ने अवसर का लाभ उठाकर राजा पर दबाव बनाया और राजा को साफ शब्दों में बतला दिया कि वह भेदभाव और अपमान नहीं सहेगा। उसे राज्य में अपना हिस्सा चाहिये। उसने साफ कर दिया कि उसे विभेदकारी व्यवहार किसी भी कीमत पर स्वीकार नहीं। राजा ने उसकी बात नहीं मानी और उसके विरोध को अधिक महत्व भी नहीं दिया। बल्कि उसे अधिक अपमानित करने का प्रयास किया। इस पर राजकुमार ने कूटनीतिक तरीके से ऐसे हालात पैदा कर दिये कि राजा को इस बात के लिये विवश होना पडा कि वह राजकुमार के बढते प्रभाव एवं राज्य में विद्रोह की आशंका को हमेशा के लिये समाप्त करने के लिये राजीखुशी राजकुमार को राज्य का छोटा सा हिस्सा दे दे और शेष बचे राज्य में आराम से निशंक होकर राज करता रहे।

      लेकिन कुछ ही दिनों बाद शेष उपेक्षित राजकुमारों ने भी एकजुट होकर राजा से साफ शब्दों में कह दिया कि उनको भी राज्य में हिस्सेदारी देकर राज्य का समान रूप से विभाजन कर दिया जावे, जिससे कि उनको राजा के चहेते राजकुमारों और स्वयं राजा के विभेद तथा अपमान का सामना नहीं करना पडे। राजा ने असन्तोष प्रकट करके राज्य में हिस्सेदारी मांगने वाले सभी सातों राजकुमारों और अपने दोनों चहेते राजकुमारों को एक साथ बिठाकर सभी की बातें सुनी और आत्मीयता से तथा भावनात्मक तरीके से सभी को समझाया कि अलग-अलग होने में राज्य की ताकत कमजोर हो जायेगी। कोई भी राज्य पर आक्रमण करके तुम्हारे राज्य को छीन लेगा। अतः बेहतर होगा कि सभी साथ में रहकर के राज्य को एकजुट एवं मजबूत बनाओ। राजा ने सभी को विश्वास भी दिलाया कि आगे से किसी के भी साथ में किसी प्रकार का विभेद नहीं होगा। सभी को समान रूप से सम्मान मिलेगा। राजा की बात पर राजकुमारों ने अपनी मांग छोड दी और संयुक्त रूप से ही राज करने को सहमत हो गये।

      अब इस कहानी में सातों राजकुमारों ने मिलकर राजा से राज्य का कौनसा भू-भाग मांगा था? इसका कहीं भी कोई उल्लेख नहीं है, लेकिन भू-भाग का उल्लेख नहीं होने के कारण इस बात को नकारा तो नहीं जा सकता कि सातों राजुकमारों ने राजा से राज्य में हिस्सेदारी मांगी थी? राज्य का विभाजन करने की बात कही थी। जिसके परिणामस्वरूप सातों राजकुमारों को भी राजकाज में भागीदारी एवं समान प्रतिनिधित्व प्राप्त हुआ। सौभाग्य से राजा बेईमान और धोखेबाज नहीं था। इसलिये आगे चलकर भी इस निर्णय के लिये सात में से एक भी राजकुमार को इस बात के लिये पछतावा नहीं हुआ कि वे राजा की आत्मीय एवं भावनात्मक बातों में आकर साथ रहने को क्यों राजी हुए।

      आदरणीय डॉ. मधुसूदन जी प्रश्नों के समाधान बिना उत्तर जाने भी हो सकते हैं, बशर्ते हमारा सोच ऋजु एवं न्याय पर आधारित हो।
      आशा है आपका मार्गदर्शन मिलता रहेगा।

      आपने टिप्पणी दी, इसके लिये आपका आभार एवं धन्यवाद।

      • धन्यवाद मीना जी आपने एक बार फिर से सिद्ध कर दिया की आप विलक्षण प्रतिभा के धनि है. शुभकामनाए.

  30. आरक्षण पर जिज्ञासाओं के समाधान का प्रयास

    आदरणीय पाठको मैं विनम्रतापूर्वक कहना जरूरी समझता हँू कि आरक्षण के बारे में सबसे बडी समस्या ये ही है कि बहुत सारे, बल्कि अधिकतर लोगों को ये पता ही नहीं है, कि आरक्षण किस चिडिया का नाम है। अभी तक की चर्चा से जो बातें सामने आयी हैं, उनमें से कुछेक को छोडकर अधिकतर को आरक्षण के बारे में केवल कही, सुनी बातों पर आधारित जानकारी है।

    कृपया शान्त दिमांग एवं स्वस्थ मन से समझने का प्रयास करें कि सरकारी सेवाओं एवं शिक्षण संस्थानों में अजा एवं अजजा वर्गों के लोगों को प्रदान किया गया आरक्षण न तो गरीबी मिटाने के लिये है और न हीं इन वर्गों का उत्थान करने के लिये दिया गया है।

    आप कल्पना करके तो देखें, देशभर में कितनी सी सरकारी नौकरी होती हैं और उनमें से भी अजा एवं अजजा दोनों वर्गों को (जिनकी आबादी करीब तीस प्रतिशत है, जो ३० करोड से ऊपर ही होंगे) को २२.५ प्रतिशत आरक्षण दिया गया है। इनमें से कितने लोगों को नौकरी देंगे। भारत के सबसे बडे सार्वजनिक उपक्रम भरतीय रेलवे में कुल मिलकर करीब १३ लाख रेलकर्मी हैं।

    यदि कुछ आरक्षिण विरोधी लोगों की मांग को सरकार मान भी ले कि (जिसकी कहीं कोई सम्भावना नहीं फिर भी) अजा एवं अजजा वर्गों के एक व्यक्ति को एक बार ही आरक्षण मिले, उसको पदोन्नति में आरक्षण नहीं मिले और उसकी अगली पीढी को भी आरक्षण नहीं मिले तो भी मैं समझता हँू कि आज की इन वर्गों की ३० करोड से अधिक आबादी को नौकरियाँ मिलते-मिलते और आरक्षण को समाप्त होते-होते कई सदियाँ बीत जायेंगी।

    इसलिये मित्रो ऐसी भ्रान्तिपूर्ण, अव्यवहारिक, तथ्यों से परे एवं असंवैधानिक सोच को तिलांजलि देकर बिना पूर्वाग्रह के वास्तविकता को जानने का प्रयास करें। इसीलिये यहाँ पर चर्चा में बार-बार कहा जा रहा है कि संविधान को पढा जावे, संविधान के प्रावधानों पर माननीय उच्चतम न्यायालय के विद्वान न्यायाधीशों के निर्णयों में आरक्षण पर की गयी व्याख्याओं को पढा एवं समझा जावे तो बहुत कुछ समझ में आ जायेगा।
    संक्षेप में इतना ही कहना चाहँूगा कि अजा एवं अजजा को सरकारी सेवाओं में प्रदान किये गये आरक्षण के मूल रूप से दो संवैधानिक मकसद है : –

    प्रथम इन वर्गों का सरकारी सेवाओं में इनकी जनसंख्या के अनुपात में पर्याप्त एवं सशक्त प्रतिनिधित्व स्थापित करना, जो आज तक नहीं हो पाया है। भारतीय प्रशासनिक सेवाओं में अभी भी अजा एवं अजजा दोनों वर्गों के केवल ६ प्रतिशत लोगों को ही आरक्षण मिल सका है, जबकि इनके लिये २२.५ प्रतिशत पद आरक्षित होते हैं। इसीलिये और सशक्त प्रतिनिधित्व स्थापित करने के लिये पीढीदर पीढी आरक्षण प्रदान करते रहने की संविधान में व्यवस्था की गयी है।

    दूसरा अनुच्छेद १४ को सही अर्थों में देश के सभी लोगों के लिये क्रियान्वित करना। अनुच्छेद १४ कहता है कि इस देश में सभी लोगों को कानून के समक्ष समान समझा जायेगा एवं सभी को कानून का समान रूप से संरक्षण भी प्रदान किया जायेगा।

    मौटे तौर पर देखने और पढने में यह सरल सी बात लगती है, लेकिन इसके भाव बडे गहरे हैं। जिनकी विवेचना अनेकों बार माननीय उच्चतम न्यायालय के अनेकों न्यायाधीशों ने की है और हर बार एक ही निष्कर्ष निकला है, जो बहुत ही महत्वपूर्ण है। कृपा करके इसे समझ लें, यदि समझ में बात आ गयी तो किसी को भी आरक्षण या आरक्षितों से किसी भी प्रकार की शिकायत नहीं होनी चाहिये।

    अनुच्छेद १४ में प्रदत्त समानता को सभी लोगों के बीच स्थापित करने के लिये दो बातें जरूरी हैं-

    १.सभी लोगों को कानून के समक्ष समान समझा जाना एवं

    २. सभी लोगों को कानून का समान रूप से संरक्षण प्रदान किया जाना।
    सरल सी दिखने वाली उक्त दोनों बातें आसान नहीं हैं। कोर्ट का कहना है कि-

    जब तक लोग समान नहीं होंगे उनको कानून के समक्ष समान नहीं समझा जा सकता और जब तक एक जैसे काूनन रहेंगे तो लोगों को कानून का समान संरक्षण प्रदान नहीं किया जा सकता।

    इसलिये माननीय उच्चतम न्यायालय का कहना है कि संविधान निर्माताओं ने दूरगामी सोच एवं विद्वता का परिचय देते हुए संविधान में साफ व्यवस्था कर दी है कि देश में समानता लाने के लिये देश के असमान एवं भिन्न-भिनन पृष्ठीूमि के लोगों को पृथक-पृथक रूप से वर्गीकृत करना अत्यन्त जरूरी है, जिसके तहत एक जैसी सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक एवं आर्थिक (यहाँ ध्यान रहे कि उच्चतम न्यायाल का कहना है कि केवल आर्थिक आधार पर आरक्षण नहीं दिया जा सकता है) पृष्ठभूमि के लोगों को समूहों में परिभाषित करके एक जैसे कानूनों के द्वारा समान संरक्षण प्रदान किया जावे और दूसरे भिन्न वर्ग के लोगों के लिये उनके हालातों के अनुरूप कानूनों के तहत समान संरक्षण प्रदान किया जावे। अर्थात्‌ असमान लोगों के लिये एक समान कानून लागू नहीं हों, असमान लोगों को समान रूप से संरक्षण प्राप्त नहीं हो, बल्कि समान लोगों के लिये समान कानून लागू हों और ऐसे कानूनों के तहत सभी वर्गों के लोगों को समान रूप से कानून का समान संरक्षण प्रदान किया जावे। तब भी इस देश में सच्ची समानता की स्थापना की जा सकेगी।

    संविधान निर्माताओं को साफ मानना था कि इस देश में धर्म-आधारित प्रचलित अमानवीय कानूनों के चलते अजा एवं अजजा वर्गों में शामिल लोगों को सदियों तक इतना दबाया और कुचला गया कि यदि सरकारी सेवाओं में उनके प्रतिनिधित्व की अलग से संवैधानिक व्यवस्थाएँ नहीं की गयी तो हजारों सालों तक इन लोगों को समान नागरिक बनाना तो दूर मानवीय गरिमा मिलना भी सम्भव नहीं होगा।

    इसलिये संविधान में सरकारी नौकरियों में अजा एवं अजजा वर्गों के लिये आरक्षण का स्थायी प्रावधान किया गया है, इसे आज तक कभी भी बढाया नहीं गया है, न बढाये जाने की जरूरत है। अनेक लोगों को भ्रान्ति है कि अजा एवं अजजा वर्गों के लोगों को सरकारी सेवाओं में दिया जाने वाला आरक्षण हर दस वर्ष बाद बढाया जाता रहा है। यहाँ तक कि अजा एवं अजजा वर्गों के लोगों को भी इस बारे में भ्रान्ति है। इसलिये यह कहना गलत है कि सरकारी सेवाओं में अजा एवं अजजा वर्गों को आरक्षण बढाने के लिये संविधान में अनेक बार संशोधन किये गये हैं।

    हर दस वर्ष बाद जो आरक्षण बढाया जाता रहा है, वह संसद एवं विधानमण्डलों में जनप्रतिनिधियों के लिये आरक्षित संसदीय एवं विधानसभा क्षेत्रों के आरक्षण का मामला है।

    अतः मित्रो यह सोचना गलत है कि यदि आरक्षण के खिलाफ बेसुरा शौर किया गया या मनमाना विरोध किया गया तो अगले दस वर्ष बाद सरकारी सेवाओं एवं शिक्षण संस्थाओं में प्रदत्त आरक्षण को बढाया नहीं जायेगा। आरक्षण को समाप्त करने के लिये संविधान में संशोधन करना होगा, जो असम्भव है, क्योंकि ऐसा करना संविधान के मूल स्वरूप के साथ खिलवाड करना माने जाने के कारण असंवैधानिक होगा।

    इसके अलावा अन्त में यह और स्पष्ट कर दँू कि भारतीय संविधान के भाग तीन में अनुच्छेद १२ से ३५ तक मौलिक अधिकारों का विस्तार से वर्णन किया गया है। इन्हीं मौलिक अधिकारों में आरक्षण का प्रावधान किया गया है। जिसे कम करने या जिसका उल्लंघन करने वाला कोई भी नियम या प्रावधान बनाना, अनुच्छेद १३ (२) के प्रावधान के विपरीत होने के कारण उल्लंघन की सीमा तक शून्य होकर असंवैधानिक होगा, जिसे किसी भी उच्च न्यायालय में अनुच्छेद २२६ के तहत एवं उच्चतम न्यायालय में अनुच्छेद ३२ के तहत याचिका दायर करके चुनौती दी जा सकती है और ऐसे किसी भी कानून को असंवैधानिक घोषित करवाया जा सकता है। ऐसा करने के लिये न्यायपालिका पर संविधान द्वारा बाध्यकारी दायित्व डाले गये हैं।

    मुझे नहीं पता कि कितने मित्रों को मेरी बात समझ में आयी एवं कितनों को नहीं आयी, लेकिन फिर भी यदि कोई बात अस्पष्ट हो तो सद्‌भावनापूर्वक जिज्ञासा प्रकट करने पर समाधान करने का प्रयास किया जायेगा।

    • श्री मीना जी,
      सदा आगे बढते रहो।

      धन्यवाद मीना जी वास्तव में शानदार, ज्ञानवर्धक एवं निष्पक्ष विवेचना की है। श्री मीना जी के ज्ञान लिये मैंने पूर्व में भी लिखा है। एक बार फिर से कहना चाहूंगा कि इतना निष्पक्ष एवं विधि के जानकार विरले ही लोग होते हैं। मीना जी आपने अनुच्छेद 14 में वर्णित समानता के अधिकार को आरक्षण के साथ जोडकर जो विवेचना सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों के प्रकाश में की है, वह संक्षेप में होते हुए भी सारगर्भित और आम लोगों को समझ में आ सकने वाली ऐसी व्याख्या है, जिससे कानून नहीं पढने वाले अनारक्षित वर्ग के लोगों की समझ का तो विस्तार होगा ही, साथ ही साथ आरक्षण के नाम पर भ्रम फैलाने वाली ताकतों की बातों में आकर आम अनारक्षित युवा भ्रमित भी नहीं होगा और आरक्षण के बारे में नयी एवं निष्पक्ष सोच के साथ चर्चा करने में सक्षम हो सकेगा।

      उक्त विवेचन को पढने के बाद हमारे ज्ञानी साथियों की लगभग सभी आपत्तियाँ स्पष्ट एवं साफ हो जानी चाहिये।

      अन्त में श्री मीना जी से कहना चाहूंगा कि इस प्रकार के विषयों पर आगे भी लिखते रहें, लोगों की आलोचनाओं को दरकिनार करके आगे बढते रहें। आलोचनाएँ कुछ न कुछ सिखाती ही हैं। आप आदिवासी परिवार से आते हैं, इसलिये आपके ज्ञान को सम्मान देने में उन लोगों को थोडी तकलीफ होना स्वाभाविक है, जिन्हें लगता है कि दलित-आदिवासी तो विद्वान होते ही नहीं तथा केवल आरक्षण के बल पर भी आगे बढते हैं। ऐसे लोगों को बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर को नहीं भूलना चाहिये और आज की पीढी को डॉ. मीना को एवं इनके ज्ञान को केवल इसलिये इगनोर (अनदेखा) नहीं करना चाहिये कि ये सवर्ण नहीं हैं। ज्ञान किसी के भी पास हो सकता है। जो परिश्रम करते हैं, उनके ऊपर सरस्वती की कृपा होती है। श्री मीना जी को माँ सरस्वती का आशीर्वाद मिला हुआ है। जिसका हम सबको सम्मान करना चाहिये।

      एक बार फिर से श्री मीना जी को धन्यवाद एवं आशीर्वाद।

      जीतू गोयल
      एडवोकेट, हाई कोर्ट

      • Kabhi jangal me aao dekho aadivasi kaise rahte hai kya khate hai meraa lekh samj nhi aayega mai 8 padha hu
        Mera sawal ye hai ki ham jangal me rahte hai sher bhalu garmi ke din aate hai yek din bhalu ne do aadmi ko jakhmi kar diya lekin sarkar ne koi madat nhi ki aur hamaare gav me rashn kard bhi nhi mile kuch madat karo hamaari
        ….. Vinod surante shahapur ta Akot jila Akola mharasht up

    • आपकी नीमन टिप्पणी काबिये तारीफ है, वैसे ओकील साहब जीतू जी बहुत कुछ लिख चुके है, में उनकी बात का समर्थन करती हु ओर मीना जी के जवाब से बहुत खुस हु, मीना जी की नोलेज बहुत गहरी है, मेरे पास मीना जी की प्रसंसा के लिए शब्द नही हे!

      “असमान लोगों के लिये एक समान कानून लागू नहीं हों, असमान लोगों को समान रूप से संरक्षण प्राप्त नहीं हो, बल्कि समान लोगों के लिये समान कानून लागू हों और ऐसे कानूनों के तहत सभी वर्गों के लोगों को समान रूप से कानून का समान संरक्षण प्रदान किया जावे। तब भी इस देश में सच्ची समानता की स्थापना की जा सकेगी।”

      तर्क और कुतर्क ओर वितर्क करने वाले सबी भाईयो से विनंती हे की सारी कडवाहट को छोड़ कर मीना जी को बहुत अच्छा लेख लिखने की बधाई देवे!

    • “सरकारी सेवाओं एवं शिक्षण संस्थानों में अजा एवं अजजा वर्गों के लोगों को प्रदान किया गया आरक्षण न तो गरीबी मिटाने के लिये है और न हीं इन वर्गों का उत्थान करने के लिये दिया गया है” ?

      • आदरणीय सिन्हा जी तीन परा नीचे निम्न लाइन के बाद से पढने का कष्ट करें आपको आपके सवाल का उत्तर मिल जायेगा!

        “संक्षेप में इतना ही कहना चाहँूगा कि अजा एवं अजजा को सरकारी सेवाओं में प्रदान किये गये आरक्षण के मूल रूप से दो संवैधानिक मकसद है : –

      • आधी अधूरी जानकारी को खतरनाक माना जाता है, लेकिन यदि आप पूरी जानकारी में से भी आधी अधूरी जानकारी ही पढ़ना चाहेंगे तो इसमें भी क्या लेखक का दोष है. भाई ऐसा तो ठीक नहीं है. जो लिखा गया है, उसे सम्पूर्णता से पढ़ें और अपने निजी विचारों को एक ओर करके समझने का कष्ट करे. आरक्षण पर बहुत उपयोगी जानकारी है!

  31. ‘प्रवक्‍ता डॉट कॉम‘ पर तमाम विषयों पर हुए विचार-विमर्शों में हमने हमेशा पाठकों से निवेदन किया है कि अश्लील, असंसदीय और व्‍यक्तिगत आक्षेप करने वाली अपमानजनक टिप्‍पणी नहीं लिखें। अन्‍यथा ऐसा करने से बहस सही दिशा में आगे नहीं बढ़ पाता है। कई पाठकों ने अनुरोध किया है कि विश्‍वास रंजन जी ने मीणा जी के लेख पर अमर्यादित टिप्‍पणी की है और इसे डिलीट करना आवश्‍यक है। ‘प्रवक्‍ता’ लोकतांत्रिक विमर्शों का मंच है। लिहाजा, हम पाठकों की भावनाओं का ख्‍याल रखते हुए यह टिप्‍पणी डिलीट कर रहे हैं।

    • संपादक महोदय
      आपसे भी एक अनुरोध है की किसी पोस्ट को प्रकाशित करने से पहले उसमें क्या कहा जा रहा है उसकी जाँच कर लें .
      मुझे नहीं पता की प्रवक्ता में कमेंट माडरेशन कौन करता है . अगर यह लेखक करता है तो उसे बाद में उसकी रिपोर्ट नहीं करनी चाहिए हाँ अगर प्रवक्ता यह कार्य करता है तो उसे उचित सावधानी बरतनी चाहिए .
      इस पोस्ट के सारे कमेंट पर एक बार नजर डालने का कष्ट करें .
      Dr. Purushottam Meena says:
      July 28, 2010 at 4:09 pm
      ……………सरकार ने शिक्षा का अधिकार बना दिया, भोजन का बनाने जा रही है, घर भी मुहैया कराये जा रहे हैं. अब आरक्षण की क्या आवश्यकता है.धर्मनिरपेक्षता और आरक्षण एक साथ नहीं चल सकते ……………..
      आपकी उक्त टिपपणी को पढकर तो लगता है कि आप इस स्तर पर चर्चा करने के योग्य हो ही नहीं। आपको स्वयं तो कुछ पता है नहीं और अपने ज्ञान को आप सही मान बैठे हो, यह आपकी समस्या है। जिसका इलाज कम से कम मेरे पास तो है नहीं।
      बेहतर तो ये है कि आप जैसे लोगों को उतना सम्मान ही दिया जाये, जितने के लिये आप पात्र हैं।
      आपसे फिर भी निवेदन है कि जिन विषयों का ज्ञान नहीं हो, उन विषयों पर चर्चा नहीं किया करें और चर्चा करनी जरूरी हो तो पहले होमवर्क किया करें।
      आपको सलाह है कि पहले संविधान के भाग तीन का अध्ययन करें। फिर चर्चा करने आना ताकि आपको ज्ञात हो सके कि आप क्या की जगह पर लिख रहे हैं।
      सम्भवतः आप जैसों के कारण ही इस देश में समरसता नहीं आ रही है।

      • सर आपकी बात बराबर है आरक्षण की कोई जरूरत नही लेकिन आपने पूरी दुनिया नही देखी न मैने आप कभी अकोला जिला ता अकोट गांव शाहपुर पोस्ट पिम्प्रि आके देखे फिर आदिवासी क्या है कैसे रहते है क्या खाते है अपना जीवन कैसे गुजारते है हम आदिवासी st kyategari में आते है हमे टाइम पर सरकारी राशन भी नही मिलता और होस्टल आश्रम में पढ़ाई करके ग्रजेवेशन होकर चप्राशिकी नोकरी नही मिलती तो क्या फायदा ऐसे आरक्षण का हमारी खेती टाइगर खाते में गई सरकारने 40 हजार प्रति एक्कर से पैसे दिए वोहभी टप्पे टप्पे से सब खर्च हो गए अब क्या है हमारे पास आरक्षण के सिवाय वो भी शिन लेना चाहते हो तो कैसे जियेंगे हम
        आरक्षण तो कम न करो हमारा आरक्षण के भरोसे पे तो हम स्कूल पढ़ पा रहे हम नोकरी नही सही साक्षरता ही सही दूसरे स्कूल में दाखिला करने की हैसियत नहि हमारी आदिवाशी और अन्ने लोगोंमें बहोत फर्क है
        अगर आपके घर बर्थडे हो तो आप कितना खर्च करते हो हमारी शादिवोमे 30 या 50 हजार रुपये में ही हो जाती है वोह भी खेतवाला जिसके पास नहि वो मंदिर में करवाते है बहोत है शब्द लिखने को पर क्या करूँ डर लगता है कहि मैं गलत तो नही लिख रहा मैं सिर्फ आठवी पढ़ा हु बाकी उम्र जंगल मे लकड़िया तोड़ने में गई ,,,✍️✍️✍️??? मेरी उम्र 34 साल है मैं अहमदनगर पोल्ट्री पे काम करता हु 13000 रुपये महीना मेरा गांव शाहपुर ता अकोट जी अकोला पोस्ट पिम्प्रि मेरा नाम विनोद सुरत्ने है जात भील आदिवासी

        • सर आपकी बात बराबर है आरक्षण की कोई जरूरत नही लेकिन आपने पूरी दुनिया नही देखी न मैने आप कभी अकोला जिला ता अकोट गांव शाहपुर पोस्ट पिम्प्रि आके देखे फिर आदिवासी क्या है कैसे रहते है क्या खाते है अपना जीवन कैसे गुजारते है हम आदिवासी st kyategari में आते है हमे टाइम पर सरकारी राशन भी नही मिलता और होस्टल आश्रम में पढ़ाई करके ग्रजेवेशन होकर चप्राशिकी नोकरी नही मिलती तो क्या फायदा ऐसे आरक्षण का हमारी खेती टाइगर खाते में गई सरकारने 40 हजार प्रति एक्कर से पैसे दिए वोहभी टप्पे टप्पे से सब खर्च हो गए अब क्या है हमारे पास आरक्षण के सिवाय वो भी शिन लेना चाहते हो तो कैसे जियेंगे हम
          आरक्षण तो कम न करो हमारा आरक्षण के भरोसे पे तो हम स्कूल पढ़ पा रहे हम नोकरी नही सही साक्षरता ही सही दूसरे स्कूल में दाखिला करने की हैसियत नहि हमारी आदिवाशी और अन्ने लोगोंमें बहोत फर्क है
          अगर आपके घर बर्थडे हो तो आप कितना खर्च करते हो हमारी शादिवोमे 30 या 50 हजार रुपये में ही हो जाती है वोह भी खेतवाला जिसके पास नहि वो मंदिर में करवाते है बहोत है शब्द लिखने को पर क्या करूँ डर लगता है कहि मैं गलत तो नही लिख रहा मैं सिर्फ आठवी पढ़ा हु बाकी उम्र जंगल मे लकड़िया तोड़ने में गई ,,,✍️✍️✍️??? मेरी उम्र 34 साल है मैं अहमदनगर पोल्ट्री पे काम करता हु 13000 रुपये महीना मेरा गांव शाहपुर ता अकोट जी अकोला पोस्ट पिम्प्रि मेरा नाम विनोद सुरत्ने है जात भील आदिवासी मो, 8830510707,9145774980 कुछ गलती हुई तो माफ करना वैसे हम जानवर ही कहलाते है कुछ लोग कहते है

    • माननीय सम्पाकद जी,
      प्रवक्ता डॉट कॉम

      पाठकों के आग्रह पर समुचित निर्णय लेने के लिये आभार एवं धन्यवाद। लेकिन जिन लोगों को न्यायपूर्ण बातें अच्छी नहीं लगती हैं, वे अब आपके न्याय पर सवाल उठाने का प्रयास करेंगे, बल्कि शुरुआत करदी है। अब वे छोटे बच्चे की तरह से जिद करेंगे कि मुझसे यह चीज छीनी है तो इससे भी छीनो। वैसे ऐसे लोगों के पास बहुत बडा दल है। ये अपने समर्थन में टिप्पणियों की बौछार करवाने में माहिर हैं। जैसे पुलिस में प्रतिपक्ष द्वारा क्रास केस दर्ज किया जाता है, कुछ-कुछ वैसा ही यहाँ पर होता प्रतीत हो रहा है।

      देखना होगा कि न्याय के साथ-साथ अन्याय के तराजू में कितना वजन बढता है। कम से कम आपके इस निर्णय से शिष्ट टिप्पणी करने पर तो जोर दिया ही जायेगा। इससे विचार प्रवाह में ताजगी का अहसास होगा। मेरा मानना है कि कडवी बात को यदि शिष्टता से कहा जाये तो उसमें बुरा नहीं लगता, लेकिन यदि अच्छी बात को भी बुरे ढंग से कहा जाये तो निसन्देह निन्दनीय है।
      एक बार फिर से आभार एवं धन्यवाद।
      शुभकामनाओं सहित
      आपका
      डॉ. पुरुषोत्तम मीणा निरंकुश

      • सम्पादक महोदय

        “वैसे ऐसे लोगों के पास बहुत बडा दल है। ये अपने समर्थन में टिप्पणियों की बौछार करवाने में माहिर हैं।”
        इस पोस्ट की टिपण्णी पढ़ कर कोई भी जान सकता है कौन एक दल बना कर चल रहा है .

        • Mahes ji. Namasjar
          vinti hai is topic ko yahi band kar dein. Qki ye bevajh ki behas me aa chuka he. Nisandeh vishwas ji ne dhamki di thi jo shayad gusse me post ho gaee hogi. Ye koi pirtistha ka pirshn nahee he. Aap bhi isko bhulkar aage ki baat karen.
          Koi galti hamse hue ho to usko bhulkar hamara margdarshan karen. Yahan koi kisi ka dil nahi dukhana chahta he

  32. माननीय सम्पादक
    प्रवक्ता डॉट काम

    यहाँ पर अनेक ऐसे लोग चर्चा में शामिल हो गये हैं, जिनको संविधान के बारे में और इस देश के सर्वधर्म समभाव के साथ-साथ भाषा की शिष्टता में भी कोई आस्था नहीं है। ऐसे में सम्पाक के रूप में आपकी जिम्मेदारी बढ गयी है, कि इस प्रकार के लोगों के विचारों को किस प्रकार से प्रदर्शित होने दिया जावे?

    आशा है कि आप इसे अन्यथा नहीं लेंगे और जरूरी कदम उठायेंगे साथ ही सम्पादन की जिम्मेदारी किसी संविधान के जानकार के हाथों में देंगे, जिससे असंवैधानिक कार्यकलापों पर नजर रखकर सही समय पर समुचित कदम उठाये जा सकें।

    शुभकामनाओं सहित।
    डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

  33. मीना जी आपकी डॉक्टर की उपाधि व्यर्थ है…………………………………………………………………………………………………………………

    • प्रवक्ता . कॉम को श्री विश्वास रंजन की उक्त धमकी भरी टिप्पणी को प्रदर्शित करने से पहले विचार करना चाहिए! अन्यथा साफ कर देना चाहिए कि निष्पक्ष लेखन करना मना है!

    • उपरोक्त टिप्पणी गरिमा की सारी सीमाओं का उलघन है. जो ऐसे व्यक्ति द्वारा कि गयी है जिसके विचार संविधान विरोधी हैं! इसलिए संपादक को अपने अधिकार का उपयोग करना चाहिए.
      जीतू गोयल
      एडवोकेट

    • संपादक जी ये व्यक्ति क्या लिख रहा है, घोर आपत्तिजनक है, आप इस तरह कि भाषा को अनुमति देकर अपने न्यूज पोर्ट पर निष्पक्ष पाठकों और लेखकों को क्या सन्देश दे रहे हैं?

    • Ranjan ji,
      ye dukh ki baat he. Aap aisa likh rahe hein. Sampadak ji ko dhyan dena chaiye. Esi tippaniyo ko pirkashit na karen. Ye bilkul talibani tippani he. Me iski ninda karti hun.

    • घटिया सोच और विचार प्रकट करने का तालिबानी तरीका! ऐसे लोगों के विचार प्रकाशित कैसे हो रहे है?

  34. धर्मनिरपेक्षता जब तक ही ठीक है तब तक हर धर्मं की संख्या मैं अनुपात स्थिर रहे. लेकिन कोई एक धर्म अनावश्यक रूप से धर्मान्तरण करे और अपनी संख्या बढ़ाये तो धर्मनिरपेक्षता का कोई औचित्य नहीं है.

    धर्मनिरपेक्षता के नाम पर जो मुस्लिमों का तुष्टिकरन चल रहा है, उसने देश के हिन्दुओं मैं जबरदस्त क्रोध का उबाल ला दिया है. तुष्टिकरन मतलब अपने सुरक्षित वोट बैंक के लिए उसकी अतिशय खुशामद करना.

    अगर आप गौर से देखे तो तुष्टिकरन किस हद तक हो रहा है आपको समझ आ जायेगा. अतुल्य भारत के विज्ञापन मैं आमिरखान को लेना जबकि और भी कई बड़े अभिनेता उनसे बेहतर हैं जिनको ये मौका नहीं दिया गया.
    सीबीआई का दुरूपयोग करके सोह्राब्बुद्दीन मामले को फर्जी एन्कोउन्टर बताना. जबकि ऐसे कई मामले कांग्रेस शाशित प्रदेशों मैं लंबित हैं.

    • Yahan is kathan ki zarurat nahe thi. Aap topic se alag jakar vichardhara ko byan kar rahen hein. Har jagah ye geet na gaya karen.

    • आदरणीय श्री विश्वास रंजन जी,
      अकेले आप ही हिन्दू या सवर्ण नहीं हैं और अकेले आपने ही लोगों को सुधारने का ठेका नहीं ले रखा है। आप जैसों के कारण बिहार एवं उत्तर प्रदेश में अनेक निर्दोष सवर्णों को दलितों की प्रतिहिंसा का शिकार होना पडता है। देश में साम्प्रदायिक दंगे होते हैं। मुसलमानों को आप उकसा रहे हैं। आप जिन लोगों की भाषा बोल रहे हैं, उनके चलते इस देश का विकास पूरी तरह से अवरुद्ध हो चुका है।

      जहाँ तक डॉ. मीना जी के इस लेख का सवाल है, इसमें एक-एक शब्द कडवी सच्चाई है, जिसे पचाने के लिये आपको न्यायपूर्ण दृष्टिकोंण अपनाना होगा। आपको समझना होगा कि इंसाफ क्या है। क्यों आप अपने पूर्वजों के नामों को डुबो रहे हो। हम सवर्णों को आप क्यों कट्टरवादी बनाने पर तुले हुए हैं। मैं पिछले लम्बे समय से वकालत के पेशे में होने के साथ-साथ लेखन और पठन-पाठन से भी जुडा रहा हँू। मैंने अपने जीवन में किसी आरक्षित वर्ग के व्यक्ति को सवर्णों के प्रति इतना ईमानदार नहीं देखा जितना कि श्री मीना जी हैं। जिसका सबूत है मीना जी का वह लेख जो अनेक न्यूज पोर्ट एवं समाचार-पत्रों में प्रकाशित हो चुका है। जिसका शीर्षक है- गरीब सवर्ण छातों को मिले संरक्षण
      मैं इसका लिंक आपको दे रहा हँू, आप इसे एक बार पढें और फिर ईमानदारी से अपनी आत्मा की आवाज सुनकर के टिप्पणी लिखें :
      https://www.janokti.com/2010/05/22/%E0%A4%97%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%AC-%E0%A4%B8%E0%A4%B5%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%A3-%E0%A4%9B%E0%A4%BE%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%8B%E0%A4%82-%E0%A4%95%E0%A5%8B-%E0%A4%AE%E0%A4%BF%E0%A4%B2/

      जीतू गोयल
      एडवोकट, हाई कोर्ट

    • Ranjanji,
      Kabhi aapne sarwekshan karne ki koshish ki hai,ki aapke iss vichaar se kitne Hindu sahmat hain.Apne niji vichaaron ko niji hi rahne dijiye to jyada achhaa ho, sampurna hindu samaaj kaa binaa soche samajhe leader to mat ban jaiye.Aise bhi hindu samaaj jaati bhed bhao mein itne tukdo mein bat gayaa hai ki aap agar ek group ki baat karenge to doosre kitne hi group aapkae virodh mein khade najar aayenge,aur honge ve sab ke sab hindu hi.Agar hindu aur hindutva ki baat karni hi hai to kamsekam aapas mein to mat bhidiye,anyathaa aap kisi natije par nahi phuchenge.

  35. यहाँ पर श्री पुरोहित जी और श्री सिन्हा जी की टिप्पणी पढकर पता चल गया कि हम उच्च जाति (सवर्णों) के लोगों से दलित-आदिवासी क्यों नफरत करते हैं। मुझे तो लगता है कि सच में हमारे भाई-बन्धु दलित-आदिवासी बन्धुओं के प्रति घृणा से भरे हुए हैं। श्री मीना जी ने इतना अच्छा लेख लिखा है, लेकिन मैं इसे इस कारण समझ सका हँू, क्योंकि मुझे संविधान का ज्ञान है। श्री पुरोहित जी आपने जो संविधान के बारे में लिखा है, उससे पता चलता है कि आपको श्री मीना जी की तुलना में संविधान का एक प्रतिशत भी ज्ञान नहीं है। और तो ओर आपको संविधान किस चिडिया का नाम है, ये भी ज्ञात नहीं है। आप उन लोगों के बहकावे में आ रहे हैं, जो देश के माहौल को खराब करने के लिये लोगों को गुमराह करते रहते हैं। जिनमें सवर्ण मीडिया भी शामिल है, जिसे हम अपना हितैसी समझते है, जो बहुत बड़ी भूल है !

    मैं इस बात को खुले मन से स्वीकार करता हँू कि हमारे इसी बीमार मन के कारण दलित-आदिवासियों के स्टूडेंट को प्रेक्टिकल में सवर्ण टीचर/लेक्चरर कम अंक देते हैं, जबकि रिटिन में उनके हम सवर्णों से अधिक अंक होते हैं। यह बीमारी वास्तव में तेजी से फैल रही है। आज सारा देश नक्सलवाद के कारण जल रहा है, जिसके पीछे बडा कारण है, हम सवर्णों द्वारा आदिवासियों के साथ किया गया छल।

    अब समय आ गया है कि हमें स्वीकार लेना चाहिये कि हमारे पूर्वजों ने धर्म के नाम पर हजारों सालों तक दलित आदिवासियों का शोषण किया है। अब आने वाले कम से कम ५०० साल में तो ये लोग हम से बराबरी करने में सक्षम होंगे और यदि इसके बाद इनकी कौमें हमारे पूर्वजों की ही तरह से शोषक रही तो फिर हमारे साथ भी वही व्यवहार किया जायेगा, जो हजारों साल तक हमारे पूर्वजों ने विशेषकर ब्राह्मणों ने इनके साथ किया था। उसके बाद हमें कुछ कहने का हक होगा। अभी तो चुप रहने में ही लाभ है, क्योंकि हम कुछ नहीं कर सकते।

    संविधान, विधायिक, कार्यपालिका, न्यायपालिका सब आरक्षण को सही एवं कानूनी घोषित कर चुके हैं। केंवल मीडिया ही चिल्लाता है, जिस पर हमारे लोगों का कब्जा है, इसलिये। अन्यथा तो सच यही है कि अभी भी आरक्षण का लाभ हमारे लोगों द्वारा आरक्षित वर्ग को उठाने ही कहाँ दिया जा रहा है।

    मेरी इस टिप्पणी से अनेक सवर्ण खफा हो सकते हैं, लेकिन सच्चाई तो यही है।

    आदरणीय डॉ. मीना जी इन नासमझों को क्षमा करो और किसी नये विषय पर लिखकर समाज का मार्गदर्शन करो। इस देश के समझदार लोग आपके साथ हैं। नासमझों के लिये क्यों समय बर्बाद करते हो, इनको पहली बात तो जवाब देने की जरूरत ही नहीं है और यदि कुछ लिखना होगा तो हम हैं। अभी भी इस देश में सच को स्वीकार करने कहने वाले, निष्पक्ष लोग जिन्दा हैं।

    • एक समूह है आप लोगों का जो नेताओं के फैलाये जाल का समर्थक है . आपने ये कैसे समझ लिया की मैं आरक्षण का विरोधी हूँ . इसके वर्तमान स्वरूप का जरूर विरोध करता हूँ क्योंकि जैसा सब जान रहे हैं की इतने सालो बाद भी यह कितना लाभ उन वर्गों को पहुँचा पाया .
      अगर वास्तव में आप लोग आरक्षण के समर्थक हैं तो गरीब और लाचार लोगों का समर्थन करेंगे न की धर्म और जाति आधारित आरक्षण का
      अगर समरसता लानी है तो लोगों को धर्म, जाति, समूह से मुक्ति दिलवाई जाए .

    • सामाजिक समरसता की बात लिखना चाहते है और अपने आपको “सवर्ण,उच्च जाती” मान रहे है???ये उच्च-नीच का भाव सम्विधान देता है,१२ वी कक्षा तक पता ही नही होता है की अपने साथ पढने वाला कौन जाती का है??जेसे ही कोलेज मे गुसते है भयन्कर जातीवाद दिखता है,क्यो???क्योकी ये सम्विधान लोगो को भुलने नही देता कि उसकी जाति क्या है,उसकी केतेगरी क्या है?रही बात नम्बरो की तो साहब आप बहुत ही भर्म मे है,अगर बिना बेक आये पास भी हो गये तो ये ही बहुत बडी बात है……………………..जरा बतयेन्गे ब्राहमणो ने क्या अत्याचार किया??पेदा होते ही सभी को नोकरी मिल जाती थी चाहे वो कोन जाती का हो,और आज???अक्ल को बन्द मत करिये??सम्रसता का मलब होता है निस्वर्थ प्रेम ना कि धोस पट्टि जो ईस लेख मे दिखय़ी देती है……………….

  36. मिस्टर अभिषेक पुरोहित मुझे लगता है कि आपको इस देश की सर्वसमभाव की सोच का ज्ञान नहीं है। आपको मैं तो यही कहूंगी कि अपना इलाज कराओ।

    • अगर घ्यान नही होता है तो ईलाज नही बल्कि ग्यान दिया जाता है,जब आरक्षण की असलियत पता चलेगी तब बताना,अभी देखा नही है आपने………………

    • gyan nahi hona ya hona dusari baat hai….lekin apne iska ilaj bhi karane ki salah de daali….mahila ki tarah pesh aaiye….Deepa Madam.

  37. माननीय मीणा जी
    सविधान की मूल धारणा को किनारे करके नेता जनता के साथ खिल्वाड़ कर रहे हैं. सविधान का सिद्धांत अगर धर्म निरप्र्क्ष्ता है तो शासन को धर्म , जाती, समूह को कोई तरजीह नहीं देनी चाहिए. धर्म, जाती एक व्यक्तिगत सोच है . सरकार को जहाँ एक ओर धर्मनिरपेक्ष होना चाहिए वहीं पिछड़े, कमजोर, अशक्त लोगों की सहायता करनी चाहिए बिना किसी जाती , धर्म या समूह भेद के . उन्हे सुविधायें दी जानी चाहिए जिससे उनका भी जीवन स्तर ऊपर उठे और उनका सर्वांगीण विकास हो, लेकिन सही तरीके से .
    सरकार ने शिक्षा का अधिकार बना दिया, भोजन का बनाने जा रही है, घर भी मुहैया कराये जा रहे हैं. अब आरक्षण की क्या आवश्यकता है.
    धर्मनिरपेक्षता और आरक्षण एक साथ नहीं चल सकते .
    आज गरीब और अमीर लोग हर धर्म औए समुदाय में में मिलेंगे. 60 वर्षों से जारी आरक्षण पर जिस तरह से मुट्ठी भर लोगों ने कब्जा किया है उससे यह साबित हो चुका है की यह व्यवस्था असफल रही है . क्या आप लोग उसी असफल ढांचे का और विस्तार करना चाहते हैं ?
    गांधी के बारे में आपके विचार पूर्णतः व्यक्तिगत हैं कितने लोग इससे सहमत हैं.
    आपको विनम्रतापूर्वक कहना विवशता क्यों लग रहा है ! कहीं आप जो कुछ कह रहे हैं किसी दबाव में कह रहे हैं. विवश तो वही होता है जिसपर कोई अनर्थक दबाव हो.
    चर्चा, बहस और समीक्षा में क्या भेद है इसपर भी प्रकाश डालने का कष्ट करें
    मैं अपने आप को विद्वान होने का भ्रम नहीं पालता .
    @ Deepa Sharma ji & Meena जी
    दीपा जी कह रही हैं विभाजन की माँग पाकिस्तान ने की थी और मीणा जी आपने इसका समर्थन किया है . आपलोग इतिहास के अच्छे जानकार हैं. 1947 के पहले पाकिस्तान का अस्तित्व कहाँ था ?
    आपने यह भी कहा की सेपरेट एलेक्टोरल की माँग की थी डॉ आंबेडकर ने तो अगर यह सही था तो क्यों वे पीछे हात गए इससे उनकी क्या मजबूरी थी ? और ये जितनी भी बातें हैं(आरक्षण, जाति, अल्पसंख्यक) जिनका नेता भरपूर उपयोग करते हैं लड़ाओ और राज करो उसी का आप समर्थन कर रहे हैं !!

    • ……………सरकार ने शिक्षा का अधिकार बना दिया, भोजन का बनाने जा रही है, घर भी मुहैया कराये जा रहे हैं. अब आरक्षण की क्या आवश्यकता है.धर्मनिरपेक्षता और आरक्षण एक साथ नहीं चल सकते ……………..

      आपकी उक्त टिपपणी को पढकर तो लगता है कि आप इस स्तर पर चर्चा करने के योग्य हो ही नहीं। आपको स्वयं तो कुछ पता है नहीं और अपने ज्ञान को आप सही मान बैठे हो, यह आपकी समस्या है। जिसका इलाज कम से कम मेरे पास तो है नहीं।

      बेहतर तो ये है कि आप जैसे लोगों को उतना सम्मान ही दिया जाये, जितने के लिये आप पात्र हैं।

      आपसे फिर भी निवेदन है कि जिन विषयों का ज्ञान नहीं हो, उन विषयों पर चर्चा नहीं किया करें और चर्चा करनी जरूरी हो तो पहले होमवर्क किया करें।

      आपको सलाह है कि पहले संविधान के भाग तीन का अध्ययन करें। फिर चर्चा करने आना ताकि आपको ज्ञात हो सके कि आप क्या की जगह पर लिख रहे हैं।

      सम्भवतः आप जैसों के कारण ही इस देश में समरसता नहीं आ रही है।

    • Apko roman hindi samaj ni aati varna me yahen savnidhan part 3 likh deti- aap savindhan ki bnane ki prishtbhumi bhee dekh lein

      • आपको जब हिन्दी आती है तो देवनागरी में लिखने में क्या दिक्कत है . रोमन में कई बार अर्थ का अनर्थ हो जाता है .

        • Ab to koee baat buri nahi lagegi aapki, mera dr. meena ji se bhi nivedan he ki sinha ji ki kisi baat ka bura na mane. Qki sinha ji ke lye constitution itna he hai. Islye unki we sabhi baten samjhna aasan ho gaya. Sinha ji aapne sirf RIGHT OF EQUILTY likha he. Ye koi small concept nahi he. Lekin aap ne sirf 14 likha.
          14 ke clause read karna. Aur case study karna. Agar kahen to me apko mail kar dungi.
          Aur plz part 3 me article 25-28 bhi dekhna.
          Part 3 article 35 tak he. Jab aap dhyan se constitution padenge. To sb clear ho jayga.
          Indian constitution is best in the world. I promise.

      • PART III
        FUNDAMENTAL RIGHTS

        15

        धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध.
        16
        सार्वजनिक रोजगार के मामलों में अवसर की समानता.
        17
        अस्पृश्यता का अंत.
        18
        खिताब का अंत.

        • अच्छा हुआ ये तो ज्ञात हुआ कि आप संविधान का कितना ज्ञान रखते है और संविधान के द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों के बारे में कितना जानते है? यदि नहीं आता तो मीना जी से पूछ लो कि संविधान में मौलिक अधिकार किसे कहा जाता है? आपने आपके हिसाब से सारे मूल अधिकार लिख दिए, लेकिन आरक्षण का कहीं हवाला नहीं आया फिर ये आरक्षण मिल कैसे रहा है?

        • App article 14 bhool gaye hein right to equality me. Iske alawa 5 aur fundamental right hein. Kaash aap unko padhkar behas karte to aapke concept clear hote.

    • “…………पिछड़े, कमजोर, अशक्त लोगों की सहायता करनी चाहिए बिना किसी जाती , धर्म या समूह भेद के . उन्हे सुविधायें दी जानी चाहिए जिससे उनका भी जीवन स्तर ऊपर उठे और उनका सर्वांगीण विकास हो, लेकिन सही तरीके से . सरकार ने शिक्षा का अधिकार बना दिया, भोजन का बनाने जा रही है, घर भी मुहैया कराये जा रहे हैं. अब आरक्षण की क्या आवश्यकता है…..”

      आपकी उक्त टिप्पणी को पढ़ने से ज्ञात होता है की आपको आरक्षण एवं सामाजिक न्याय के बारे में कोई ज्ञान नहीं है, इसलिए आप जैसे लोगों को इन विषयों पर चर्चा करने का केवल पूर्वाग्रही सोच है, ऐसे में अब आपके साथ सार्थक चर्चा संभव नहीं! यदि चर्चा करनी है तो संविधान का भाग ३ पढो और पूर्वाग्रहों को छोडो!
      ———————-

      “……………सरकार ने शिक्षा का अधिकार बना दिया, भोजन का बनाने जा रही है, घर भी मुहैया कराये जा रहे हैं. अब आरक्षण की क्या आवश्यकता है.धर्मनिरपेक्षता और आरक्षण एक साथ नहीं चल सकते ……………..”

      आपकी उक्त टिपपणी को पढकर तो लगता है कि आप इस स्तर पर चर्चा करने के योग्य हो ही नहीं। आपको स्वयं तो कुछ पता है नहीं और अपने ज्ञान को आप सही मान बैठे हो, यह आपकी समस्या है। जिसका इलाज कम से कम मेरे पास तो है नहीं।

      बेहतर तो ये है कि आप जैसे लोगों को उतना सम्मान ही दिया जाये, जितने के लिये आप पात्र हैं।

      आपसे फिर भी निवेदन है कि जिन विषयों का ज्ञान नहीं हो, उन विषयों पर चर्चा नहीं किया करें और चर्चा करनी जरूरी हो तो पहले होमवर्क किया करें।

      आपको सलाह है कि पहले संविधान के भाग तीन का अध्ययन करें। फिर चर्चा करने आना ताकि आपको ज्ञात हो सके कि आप क्या की जगह पर लिख रहे हैं।

      सम्भवतः आप जैसों के कारण ही इस देश में समरसता नहीं आ रही है।

      • समरसता की भी कोई सविधानपूर्वक व्याख्या हो उसे भी बतायें .
        जब व्यक्ति किसी चर्चा में टिक नहीं पाता तो उसे सामने वाला सक्षम नहीं दिखाई देता . किसने आपको अधिकार दिया दूसरों के स्तर की व्याख्या करें ? इतनी जल्दी सयम खो देना क्या साबित करता है ?

        • Aap plz mujse baat karen. Constitution ke bare me mene upar likh diya he. Thoda pareshani hoge padhne me. Lekin mene easy language use ke he.

      • 15

        धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध.
        16
        सार्वजनिक रोजगार के मामलों में अवसर की समानता.
        17
        अस्पृश्यता का अंत.
        18
        खिताब का अंत.

      • रश्मि जी…(अगर आप महिला हैं तो, क्योंकि इन्टरनेट पर फर्जी चैटिंग की लत के चलते आजकल पुरुष, नारी और नारी, पुरुष बनकर बात कर रहे हैं ) आपको नारियोचित भाषा का उपयोग करना चाहिए. अगर आप ये सोच रही है/ रहे हैं की आप महिला बनकर यंहा कुछ भी बोलेंगी/बोलेंगे तो लोग आपकी असहनीय भाषा को सुनते रहेंगे तो ये संभव नहीं है….
        संपादक आपको ब्लाक कर सकता है यदि ५ पाठक भी आपकी शिकायत कर दे…मुझे पता है अगर आप (हालाँकि ये संबोधन मजबूरी मैं प्रयुक्त करना पड़ रहा है) चैटिंग कर रही/रहे होते तो अभी तक तो गली गलौज पर उतर आते. आप हिन्दू तो क्या भारतीय महिला भी प्रतीत नहीं होती. सिन्हा साब इतने सम्मान से आपसे बात कररहे हैं यू नॉट डिजर्व इट.

    • महेश जि आप व्यर्थ ही बहस कर रहे है,ये लोग आरक्षण को अपना मौलिक अधीकार मान बेठे है और काम-धाम कुछ करना चाहते नही और आरक्षण की मलायी अन्नत काल तक खाना चाहते है और अगर गरिब गुर्जर आना चाहे तो उनको अपनि सख्या बल से धोश जमा कर चुप करा देते है पर ्गरिब सहरिया या गरासिया भुखे तदफ़ते रहे सरकार को ही दोष देते है………………………..१० साल तक ही था सम्विधान मे आर्क्षण पर वोतो के खातिर हर बार बढा दिया जाता है…………………..

      • Abhishek ji.
        Mujhe afsos he ki aapko ye bhi nahe malum nahi ki aap kis 10 saal vale arakshan ki baat kar rahe he. Aap pehle uska pata karo! Wo arakshan tha loksabha me seat reserve karne ka. Jisme bhi gandhi and company ne dhoka kiya. 90 % seat apne lye safe kar li. Aap samajh bhi nahe sakte hain. Aapko pehle reservation ka concept samjhna chaiye. Plz agressive na hua karen

  38. सत्य बात तो ये है कि अजजा के रेसेर्वेतिओन पर मीणाओं का कब्जा है ये लोग पहले से ही सम्मपन्न थे और इक सवेधानिक खामि का फ़ायदा उठा कर आरक्षण मे आ गये,गुज्ररो को ये बात ही हजम नही हुई इस लिये वो भी एसटि का रेसेर्वेश्तिओन मान्गने लगे,आज स्थिति ये है कि मिणा जाती के अलावा कॊई दुसरी जाती एस टि मे आ ही नही सकती,बेचारे “सहरिया,गरासिया,भिल आधि” लोग आज भी गरिबी की हालत मे है क्योकी एक तो वो सन्ख्या मे कम है और गरीब भी है,मीणाओ मे भी जिनके पुर्वजो ने आरक्षण का लाभ उठाया है वो ही वापस उथा रहे है गरीब तो वहा भी वन्चीत है इसी तर्ह हर प्रकार के आरक्षण की हालत है,और ये जनाब अलगाववाद को पोषित कर रहे है आरक्षण को गाली निकाल रहे है और उसी की मलाई खा रहे है………………….

    • मै जब कोलेज मे पढता था तो मेरे से ज्यादा मार्क्स किसी रेसेर्व्ड व्य्क्ती के नही आये थे जबकी उनमे से अधिकान्श सम्पन्न थे और मैं कोई अपने बैच का बहुत ज्यादा होशियार विध्यार्थि भी नही था पर वो सारे नौकरी{सरकरी} कर रहे है,मै प्राएवेट,इसको क्या कहेन्गे??ये असमानता नही है??ये अत्याचार नही है??
      तुम्हरी उपिरोक्त टिपण्णी से पता चलता हे की तूम हिन् भावना के शिकार हो अपना इलाज कराओ डॉ. मीना जी इतना शानदार लेख लिखा है, जिसका हर देस भक्त भारतीय को स्वागत और समर्थन करना चाहिए! आप जैसे गन्दी सोच के लोगों के कारण सवर्ण लोगों को दलित आदीवासी लोग नफरत से देखते हे, हमें दुश्मन मानते है, आप जैसे ही इस देश को शांती से नहीं रहने देना कहते! मीन जी कितनी नम्रता से जवाब दिया है, जिसका आदर करना आपको नही आता! आपको आप कहते हुए भी शर्म आती है. शर्म करो!

      • जहा दिमाग नही चले ना वहा बोलना नही चाहीये,ये लेखक महोदय किस प्रकार अलगाव वाद को पुश्त कर रहे है ये आप की सम्झ मे नही आयेगा,अलगाववादी के लिये मेरी डिस्कनरी मे सम्मान सुचक शब्द नही है.हीन भावना के शिकार तो ये महोदय है आरक्षण एसा विष है जो भारत को खोखला कर रहा है,आर्क्षित वर्ग के विध्यार्थी मेहनत करने के बजाय कोलेजो मे गुन्डागर्दी करते गुमते है एसा नही है कि वो ही मेहनत नही करते बल्कि वो अनारक्षित विध्यार्थि भी माहोल खराब करते है जिनके पुर्वजो ने हराम की कमयी की है और पेसो का मद उनके बच्चो पर चढा हुवा है,मेने प्रथम वर्ष से लेकर अन्तीम वर्ष तक अनेको आरक्षित वर्ग के बहुत ही सन्सकारी और अच्छे विध्यार्थीयो को इस घटिया सोच और गलत सन्गत से बिगडते और मेहनत से भागते देखा है,ये लोग ही आगे चल कर अफ़सर बनेगे,तब ईस देश का क्या होगा??भगवान ही मालिक है.
        रही बात नफ़रत की तो ज्यदा वेदान्त झाडने की जरुरत नही है मेने एक बार भी नफ़रत की बात नही की अलबत्ता एस लेख से जरुर नफ़रत की बु आती है………….

  39. इस लेखक को ये पता नही है कि सन्तो कि चरन वन्दना करना अगर “धर्म निर्पेक्शता” कि धज्जिया उडाना है तो द्र.राजेन्द्रा बाबु जो सन्तो को बहुत आदर देते थे और बाला सती माता को अपने निवास पर टहराया भी था,वल्ल्भ भाई पटेल ने सोमनाथ को वैभव पुर्न निर्माण का वचन किया था और राजेन्द्र बाबु ने वहा जा कर उसे पुरा किया,इन्दिरा गान्धी,मोरारजी देसायी,लाल बहादुर शाश्त्रि,चन्द्रशेखर,अटल बिहारि वाज्पेयी,गुज्राल,वेन्काट रमण जेसे महानुभाव भी सन्तो की सेवा व सम्मान मे पिछे नही थे.इस व्य्क्ती को ये भी नही पता कि “धर्म” कहते है??मुझे यह कोई कनर्वतेट ईसायी लगता है……………………….

  40. १.केवल ब्राह्मणवादी एवं मुनवादी धर्म को ही हिन्दू धर्म का दर्जा दिया गया है, जबकि गहराई में जाकर देखें तो इस देश में ब्राह्मणों सहित आर्य उद्‌गत वाली कोई भी नस्ल हिन्दू है ही नहीं, लेकिन इन्हीं के द्वारा कथित हिन्दू धर्म पर जबरिया कब्जा किया हुआ है।

    सिधा सिधा लिखो कि तुम कुन्ठित हो,तुम “धर्म” शब्द का मतलब भी समझते हो??कोन सी नस्ल की बात कर रहे हो??कभी कोई ढ्न्ग की कोई किताब या नविन जानकारी भी एक्त्र कर लिया करो??जो यह कहती है कि पिछले ५०००० साल से भारत एक समाज के रुप मे रह रहा है.
    २.ऐसे में हिन्दूवाद को बढावा देने वाले दलित-आदिवासियों से अपने पक्ष में खडे रहने की उम्मीद किस नैतिकता के आधार पर कर सकते हैं।

    तुमको किसने बनाया उन सब हिन्दुओ का नेता??या तुम एक प्रच्चन ईसायी हो??

    ३.यदि कोई भी व्यक्ति वास्तव में निष्पक्ष और न्यायप्रिय है तो यह जानकर आश्चर्य होना चाहिये कि हाई कोर्ट में सडसठ प्रतिशत पदों पर जजों की सीधी नियुक्ति की जाती है, लेकिन राजस्थान में आजादी के बाद से आज तक एक भी अजा एवं अजजा वर्ग में ऐसा व्यक्ति (वकील) नियुक्ति करने वाले सवर्ण हिन्दुओं को योग्य नहीं मिला, जिसे हाई कोर्ट का जज नियुक्त किया जा सकता।

    बिल्कुल जब योग्य ही नहीं है तो केसे मिलेन्गे??हर साल आईआईटी जेसे परीक्शाओ मे काफ़ी सिटे खाली रह जाती है जो रेसेर्व होती है और जो पहुचते है वो पास ही नही हो पाते है.न्याय पालिका मे भी रेसर्वेशन चाहिये??्फ़िर सेना मे भी चाहिये होगा??फ़िर प्राईवेत मे भी चाहीये होगा??मै जब कोलेज मे पढता था तो मेरे से ज्यादा मार्क्स किसी रेसेर्व्ड व्य्क्ती के नही आये थे जबकी उनमे से अधिकान्श सम्पन्न थे और मैं कोई अपने बैच का बहुत ज्यादा होशियार विध्यार्थि भी नही था पर वो सारे नौकरी{सरकरी} कर रहे है,मै प्राएवेट,इसको क्या कहेन्गे??ये असमानता नही है??ये अत्याचार नही है??योग्य व्य्क्तीयो को नौकरी नहि और अयोग्य लोग उपर पहुच रहे है,देश का भट्टा बेटाना ही है एससे तो.

      • सत्य तो ये है की वास्त्विक सम्स्या योग्यता की है,शायद आपको पता नही कि कितना ज्यदा अन्तर है सामन्य – ऒबीशि और एअती-एटी के विध्यार्थियो के मार्क्स मे??पता है??८०% वाले का सिनियर ५५% वाला है,क्या आता है उसको??जो जुनीयर था वो सिनियर हो गया,पर सामान्य वर्ग कई पोस्त वाला जिसमे लगा था उसीमे निवर्त हो गया,पता है??अगर आरक्षण से ही कोई आगे बढ सकता तो जरा नाम तो बताएये कितने आईएअस,आईईआस,इन्गिनेर,डोक्टर बिना आरक्षण के बनते है??क्या कलेक्तर का बेटा भी “दलित” होगा??क्या ये सत्य नही है कि जिन लोगो ने एक बार आरक्षण का लाभ उठा लिया है वो लोग गरिब लोगो को आगे आने नही देते है और उन गरीबो को भडकाते है की तुम लोगो की गरिबी का कारण “सवर्ण”है और थोल के भाव वोट बटोरते है??तो फ़िर आईआईअसशि मे क्यो नही है आरक्षण??सेना मे क्यो नही है??जरा विचार करना,तब बोलना…………………

  41. जिन्हें अपनी योग्यता पर विश्वास होता है वो आरक्षण की भीख नही मांगते है,जिन बाबा साह्ब अम्बेडकर का आप नाम ले रहे हो,उन्हॊने ही एक बार राज्य सभा में कहा था कि आरक्षण इक बैशाखी है.वो एक एसा समाज बनाना चाहते थे जहा हर व्यक्ति को आगे बढने का अवसर मिलें और सम्मान के साथ समानता का व्यवहार हो ना की किसी कि जाती देखकर कोई उचा गिना जाये या कोई निचा.
    आपने ये क्यों नही लिखा कि किस तर्ह आज अज/अजा के आरक्षण पर विशेष जातीयॊं का कब्जा है??उन उन जातियों में से भी पहले से सम्पन्न लोग ही फ़ायदा उथाते है बेचारा गरीब आदमी हर जगह से मारा जाता है चाहे आरक्षीत हो या ना हो.
    जिन मनु महाराज को कोस रहे हो उनका साहित्य भी कभी पढा है??या वो चार-पाच स्लोक ही पढे है जो असमानता के पोषक है??और जहा तक मुझे पता है बाबा सहाब ने कभी अलग राष्ट्र की मान्ग नही की थी,”प्रिथक निर्वाचन” को अलग राष्ट्र मानना आपके खयालि पुलाव को ही दर्शाता है,सभी आदिवासी-वनवासि-वन्चीत बन्धु हिन्दु समाज के अविभाज्य अन्ग है और ये बात ही गान्धी ने कही थी.

    • Itihas me kamzor ho aap. Tbhi yahan esi faltu tippani ke hai. Apni niji asaflta ki khunnas me anargal prlaap kar rahe hein aap

      • हाहा,सारी गलतीया मेरी ही है बहन जी,बस खुश…………………………..

  42. @मीणा जी
    “जहाँ तक मेरा मानना है विभाजन के समय मोहन दास कर्मचन्द गाँधी नामक व्यक्ति स्वयं ही हिन्दुओं का नेतृत्व कर रहे थे।” ये आपका मानना है जब आप इतिहास की बात कर रहे हैं तो इस तथ्य के बारे में भी आपके पास प्रमाण होंगे . गांधी अगर हिंदुओं का प्रतिनिधित्व कर रहे थे तो उन्हे क्या आवश्यकता थी उपवास करने की और यह कहने की की जो यहाँ रहना चाहे वो रहे , जब मुद्दा ही धर्म था विभाजन का .
    @ दीपा शर्मा जी
    आपकी बातों का जवाब इस लिए नहीं दे रहा हूँ क्योंकि कई बातें आपके रोमन हिन्दी में स्पष्ट नहीं हैं

    • आदरणीय महेश जी, विनम्रतापूर्वक कहना मेरी विवशता है कि आपकी चर्चा मेरे आलेख के विषय पर नहीं होकर, किसी अन्य उद्देश्य को पूर्ण करने के लिये प्रतीत हो रही है। दीपा शर्मा जी भी कह चुकी हैं और यदि आपको रोमन में स्पष्ट समझ में नहीं आया हो तो मैं स्पष्ट कर दँू कि भारत का विभाजन भारत की ओर से धर्म के आधार पर विभाजन नहीं था, बल्कि पाकिस्तान की ओर से ही धर्म पर आधारित विभाजन की मांग की गयी थी। जिसे तत्कालीन कांग्रेस नेतृत्व ने स्वीकार किया था। आजादी एवं आजादी के साथ-साथ विभाजन के सम्बन्ध में जो भी चर्चाएँ हुई हैं, उनमें चाहे एम के गाँधी ने स्वयं भाग लिया हो या उनकी ओर से अन्य किसी ने भी भाग लिया हो, लेकिन सभी वार्ताओं को निर्णायक मोड देने में एम के गाँधी की असल भूमिका को तो कोई भी नहीं नकार सकता है। इसके अलावा यह बतलाने की कोई जरूरत नहीं होनी चाहिये कि गाँधी न मात्र हिन्दू थे, अपितु एक अन्धविश्वासी तथा ब्राह्मणवादी व्यवस्था में आस्था रखने वाले हिन्दू थे, जो कांग्रेस की ओर से आजादी के रूप में मांगे जा रहे भारत राष्ट्र का नेतृत्व करने के साथ-साथ जिन्ना के इस्लामिक राष्ट्र के विरुद्द थे। उस समय हिन्दू नेतृत्व की अलग से कोई जरूरत ही नहीं थी, क्योंकि जो ताकतें आज कथित हिन्दू धर्म, अल्पसंख्यक विरोध और दलित-आदिवासियों के उत्थान के विरोध में समाज एवं देश को तोडने का काम कर रही हैं, उनका उस समय इतना अस्तित्व नहीं था, कि वे आजादी के वार्ताकारा के रूप में भाग ले सकती। हाँ वे अपने अस्तित्व को स्थापित करने के लिये काँग्रेस के आजादी संघर्ष या कहो अभियान की खिलाफत जरूरी कर रही थी। इसके अलावा तब हिन्दुत्व की नहीं भारत की आजादी की बात थी, फिर भी गाँधी हिन्दू भी था, जो किसी भी कीमत पर ब्राह्मणवादी व्यवस्था को ध्वस्त नहीं होने देना चाहता था, इसीलिये तो उसने डॉ. अम्बेडकर के साथ हुए सैपरेट इलेक्ट्रोल के लिखित समझौते को तोडने के लिये डॉ. अम्बेडकर को विवश करने के लिये भूख हडताल कर डाली और जबरन आरक्षण को अजा एवं अजजातियों पर थौप दिया। जिससे भी हिन्दू धर्म के कथित ठेकदार एवं ब्राह्मणवादी परेशान हैं।

      आपसे फिर से आग्रह है कि विषय पर ही चर्चा करें तो बेहतर होगा, अन्यथा विषय को भटकाने से कोई लाभ नहीं है। आप जैसे विद्वानों से अपेक्षा की जाती है, कि बिना किसी पूर्वाग्रह के संवैधानिक प्रावधानों को पढें, समझें और उन पर अपने विचार प्रकट करें। जिससे उन आम पाठकों को भी लाभ हो जो ये सब पढ नहीं पाते हैं। टिप्पणी देने के लिये आभार।

  43. आदरणीय श्री तिवारी जी, धन्यवाद! कितना अच्छा हो कि आप अपनी इस टिप्पणी को सीधे प्रवक्ता.कॉम पर डालें! जिससे पाठकों को आपकी उदारता का पता चल सके!

  44. Mahesh ji bharat nahi vibhajan me pakistan ne dharm ka aadhar lekar alagav kiya tha. Bharat tb bi sahee tha aaj bhe sahee. Aur is baat ki pushti ki the un logo ne jo pakistan na jakar yahin rahe aur unse adhik ki sankhya me rahe. Wo deshbhakt thay kya koi sandeh hai? Baad ki isthityan kya huee wo alag baat he lekin un logo ne bharat ka sir uncha kiya bharat par vishwas karke. Hmko garav hona chaiye na ki sharam ya jo bhay ka vatavaran hum paida karten hen wo karna chaiye

  45. Pracin kaal se hi nimn jatiyn k upar dharm ke naam par itne atyachaar hue hen jinko sunkar hamare rongte karhe ho jate hen. In jatiyon ki dasha me sudhar k lye koi pryas ni kiya gaya, lekin ab jb kuch samajsudhark neta in jatiyon ki dasha me sudhar k lye arakshan dena chahte hen to kuch swarthi log apni taang ada rahe hen me in logo se puchna chahti hun ki ve nimn jatiyon ke vikaas me q badha ban rahe hen. Ve tb kahan hote hen jb nimn jatiyo par atyachar hota h shayad jawab un dharmbhiroun k pas b ni hoga. Dharm adharit arakshan se in jatiyon ki dasha me sudhar hoga.
    Is pirkar dharm ke naam par arakshan dene se bhartiye rajniti k lye koi khatra ni hoga

  46. Mahesh sinha ji. . ,
    dharmik arkshan aaj k samay me bhi q avashyak h ya q sahee hai me kuch kehna chahti hun.
    Yadi dekha jaye to desh ki rajniti me dharm ya jati ka arakshan koi naya nahi he. Prachin kal se varn vyavastha ko aadhar bnakar jati vyavastha ko janam diya gaya. Ye brahmano ne apne kul or samman ko bachane k lye kiya. Shatriye raja ban gaye desh k shashan ka zimma kewal ek jati ko diya matlb vo bhi aarakshit ho gaye or brahman ko to dharm aur addhyan ki choot thi he. Bharat ki aabadi ki dirshti se shudra ko kewal sewa yogya mana gaya. Is prkar dharm k naam par jatiyon ka shoshan shuru ho gaya
    1- dronachrya ka karn ko dhanurvidya na dena or ek lavya ka anghut lena.
    2-shambuk ke tapsya par ek mare hue brahman putr ke punarjivan k lye ram dvara shambuk ka vadh jati prtha ko darshata he.
    3-neech jati ka gale me dhol dalkar chalna
    4- gale me katora thukne k lye
    5-nimn jatiyon ka alag dur rehna
    6-maharashtra me kamar k niche jhadu bandhkar chalna
    7-shlok kan me pad jane par kholta tel dal dena.
    8- anay kai udharan to aap jante hi honge
    ab aap ye nahi keh sakte ki jati aarakshan koi nayee baat he. Pehle ye brahman or shatriyon ke lye tha. Tb to kisi ko taklif ni huee. Ab jb un nimn jatiyon ke liye ye arakshan ho raha he to logo ko q takleef ho rahee hai.
    Upnishdon k uchchkoti k tatvdarshan aur geeta k gyan ne bharat ki santano ko nirmamtapurwak alag kar diya he ki unka saman sheraini me aa pana mushkil he.
    Ummeed hai ab aap dharm ke arakshan ko naya nahee btaynge

  47. आदरणीय दीपा जी, इस समाज में पूर्वाग्रही एवं निहित स्वार्थों से प्रेरित या दिग्भ्रिमित होकर विध्वंसात्मक कार्य करने वालों की कमी नहीं है। ऐसे में यदि हम वास्तव में समाज को सही दिशा देना चाहते हैं, तो जैसे को तैसा की नीति को ही एकमात्र प्रतिउत्तर का तरीका नहीं समझना चाहिये। किसी कारण से यदि कोई व्यक्ति विसम्मत है या दिग्भ्रिमित है तो मेरा ऐसा मानना है कि इसके बारे में उस व्यक्ति के हालातों और परिस्थितियों को सामने रखकर ही विचार करना उचित होता है। आपकी ओर से लिखे गये प्रशंसात्मक समर्थन के लिये आपका आभारी हँू। प्रशंसा पाना प्रत्येक मानव को अच्छा लगता है। प्रसिद्ध लेखक कारनेगी ने कहा है कि किसी को प्रसन्न करने के लिये की गयी प्रशंसा चापलूसी है, जबकि किसी के श्रेृष्ठ कार्यों का विश्लेषण करके मुक्त कण्ठ से की जाने वाली प्रशंसा केवल उस व्यक्ति को ही प्रोत्साहित नहीं करती है, बल्कि ऐसी प्रशंसा से ऐसा व्यक्ति अधिक तेजी से और अधिक निष्ठा से कार्य करता है, जिससे सम्पूर्ण समाज को लाभ मिलता है।

    आपसे आग्रह है कि विषय को सही लक्ष्य तक पहुँचाने में सकारात्मक टिप्पणियों के माध्यम से मार्गदर्शन करती रहें। मैं आपका आभारी हँू। धन्यवाद एवं आभार।

  48. आदणीय श्री तिवारी जी, एक बार फिर से अपनी बहुमूल्य टिप्पणी प्रस्तुत करने के लिये आपका आभार।

    सबसे पहले तो मैं निवेदन कर दँू और आप जैसे विद्वान भी अच्छे से जानते हैं कि किसी भी विषय के कम से कम दो पहलु होते हैं। इसी प्रकार इस दुनिया के लिये गाँधी का रूप अलग है, जबकि अजा एवं अजजा वर्गों के लिये गाँधी अलग है।

    आपको अपने हिसाब से गाँधी के बारे में आकलन करने का जितना हक है, उतना ही हक अन्य लोगों को भी गाँधी की धोखेबाजी एवं चालाकियों को समाज के सामने लाने का हक है। मैं तो आपके विचार प्रकट करने के अधिकार का सम्मान एवं समर्थन करता हँू और आशा करता हँू कि आप भी मुझे विचार प्रकट करने के मेरे अधिकार के लिये समर्थन प्रदान करें। मेरे विचारों में कितनी सच्चाई है, यह जानने के लिये मैंने आपसे पूना पैक्ट की पृष्ठ भूमि पढने का आग्रह किया था, जो आपको कितना बुरा लगा यह आपके इन शब्दों से ही पता चलता है कि

    hamen इतिहास padhane से pahle आप भी एक बार देश के nagar nagr ganv ganv में tathakathit savern greebo की halat dekh lo .फिर nyaypurn paksh प्रस्तुत karna .

    (हमें इतिहास पढाने से पहले आप भी एक बार देश के नगर-नगर गाँव-गाँव में तथाकथित सवर्ण गरीबों की हालत देख लो। फिर न्यायपूर्ण पक्ष प्रस्तुत करना।)

    श्री तिवारी जी सर्वप्रथम तो मैं आपको निवेदन कर दँू कि मेरे इस लेख में गरीब और अमीर, सवर्ण और शूध्र्र आदि पर लिखने का लक्ष्य है ही नहीं, लेकिन जब आपने विषय छेड ही दिया है तो आपसे निवेदन है कि कृपया आप मेरा आलेख

    विपन्न-सवर्ण बच्चों का संरक्षण

    निम्न साइट पर दिनांक : 20.05.2010 को प्रदर्शित पढें।

    https://www.merikhabar.com/news_details.php?nid=28168

    इससे आपको ज्ञात हो सकेगा कि मैंने देश के नगर-नगर, गाँव-गाँव में तथाकथित सवर्ण गरीबों की हालत देखी है या नहीं। लेकिन फिर से निवेदन करूँगा कि यह बात आलेख से विषय से हटकर है। जो ठीक बात नहीं है। आभार सहित।

    प्रवक्ता.कॉम से अनुरोध है कि इस आलेख को नीचे प्रदर्शित कर सहयोग करें :-

    विपन्न-सवर्ण-बच्चों का संरक्षण!

    प्रकाशन तारीख : 22-May-2010 05:51:27 द्वारा: डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

    जयपुर: आम बोलचाल में जिन्हें सवर्ण या सामान्य वर्ग कहा जाता है, उनमें से एक बड़ा तबका ऐसे लोगों का है, जिनके पास अपने बच्‍चों को पढ़ाने के लिये अत्यधिक जरूरी आर्थिक संसाधन तक उपलब्ध नहीं है। इसके उपरान्त भी उन्हें ऐसे लोगों में शामिल माना जाता रहा है, जो सदियों से मलाईदार (क्रीमी लेयर) रहे हैं। इस प्रकार के लोगों को आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की बार-बार मांग उठती रहती है, लेकिन बरसाती नदी की भांति इस मांग को गति नहीं मिल पाती है।

    पिछले दिनों राजस्थान को आरक्षण का अखाड़ा बना देने वाली भाजपा की महिला मुख्यमन्त्री वसुन्धरा राजे ने गूजरों को कथित रूप से अनुसूचित जनजाति (अजजा) में शामिल करने का समझौता किया था, उसी समय सामान्य वर्ग की उच्‍च समझी जाने वाली जातियों के नामों का उल्लेख करते हुए उन्हें भी आर्थिक आधार पर नौकरियों में आरक्षण प्रदान करने की घोषणा की थी। इस घोषणा का हश्र वही हुआ, जो होना था। जब अपनी मांग के लिये मर मिटने को तैयार और संघर्ष तथा वीरता का पर्याय माने जाने वाले गूजर समुदाय तक को उनका हक देने के लिये वसुन्धरा राजे ने ईमानदारी नहीं दिखाई तो सवर्ण लोगों को बिना किसी कारण के आर्थिक आधार पर आरक्षण देने के वायदे को पूरा करने पर विश्वास करना, अपने आपको भुलावे में रखने के सिवा और कुछ भी नहीं है।

    ऐसे में आर्थिक रूप से विपन्न लोगों की दुर्दशा पर विचार करने की जिम्मेदारी भी लोकतन्त्र में राजनैतिक दलों की ही होती है। परन्तु, इस देश का दुर्भाग्य है कि हमारे यहां हर सही और गलत बात को वोट की राजनीति में तोल कर देखा जाता है। बिना वोट की अपेक्षा के बहुत कम मामलों में ही निर्णय लिये जाते हैं। इसका दुष्परिणाम यह हुआ है कि आजादी के बाद उच्‍च समझी जाने वाली कथित सवर्ण जातियों का बडा तबका आर्थिक रूप से भयंकर त्रासदी का सामना कर रहा है।

    राजस्थान के मुख्यमन्त्री अशोक गहलोत ने अपने पहले कार्यकाल के अन्तिम वर्ष में सर्वप्रथम इस समस्या को समझने का प्रयास किया और आर्थिक आधार पर चौदह प्रतिशत आरक्षण प्रदान करने का प्रस्ताव पारित कर तत्कालीन अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार को भेजा था। उस समय केन्द्र सरकार में वसुन्धरा राजे मन्त्री के रूप में शामिल थी, लेकिन अटल की राजग सरकार ने गहलोत के प्रस्ताव को रद्दी की टोकरी में डाल दिया। उसी प्रस्ताव पर वोट पाने की आस में वसुन्धरा राजे ने आर्थिक आधार पर आरक्षण प्रदान करने की घोषणा करके लोगों को भ्रमित करने का प्रयास किया। लेकिन, राज्य सरकार के इशारे पर राजस्थान की राजधानी जयपुर में आरक्षण की मांग कर रहे ब्राह्मणों के साथ हुई अपमानजनक घटना को देश का ब्राह्मण कभी नहीं भूल सकता है।

    शान्तिपूर्वक मुख्यमन्त्री से मिलकर ज्ञापन देने की मांग कर रहे निर्दोष लोगों पर पुलिस ने इतनी लाठियां बरसाई थी कि दर्जनों लोग लहूलुहान हो गये और उन्हें अस्पतालों में भर्ती कराना पडा। इनमें से अनेक लोगों का तो यहां तक कहना है कि पुलिस के डण्डों की मार से शरीर पर बने निशानों को वे इस जीवन में कभी नहीं भुला सकेंगे और अपनी आगामी पीढियों तक को भाजपा को वोट नहीं देने देंगे। उसी वसुन्धरा राजे द्वारा उच्‍च जातियों को आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की घोषणा पर कैसे विश्वास किया जा सकता है?

    इन हालातों में देश के करीब बीस प्रतिशत निर्धन और विपन्न सवर्ण लोगों के बच्‍चों के भविष्य के बारे में सोचना बहुत जरूरी है, अन्यथा इनमें से कुछ बच्‍चे रास्ता भी भटक सकते हैं। चाहे कोई भी राजनैतिक दल हो, सच्चाई एवं ईमानदारी से कभी भी निर्णय लेने के पक्ष में इच्छाशक्ति नहीं दिखाता है। इसी का परिणाम है कि सवर्ण गरीबों के लिये घोषित तथा राजस्थान विधानसभा में पारित चौदह प्रतिशत आरक्षण के प्रस्‍ताव को राजस्थान हाई कोर्ट ने असंवैधानिक मानते हुए तथा आर्थिक आधार पर आरक्षण को सही नहीं मानते हुए स्टे कर दिया है, जबकि संघर्ष करने के लिये नये प्रतिमान स्थापित करने वाली गूजर जाति के लिये हाई कोर्ट की राय भी भिन्न प्रकार की है। इस स्थिति में सवर्ण गरीबों का आरक्षण मुद्दा कहीं अंधेरे में खो गया लगता है। सवर्णों की ओर से भी इस बारे में कोई मांग नहीं की जा रही है। सभी जानते हैं कि बिना मांगे किसी को कुछ भी नहीं मिलता है।

    मैं भी व्यक्तिगत रूप से आर्थिक आधार पर आरक्षण के पक्ष में नहीं हूं। मेरा ऐसा मत किसी पूर्वाग्रह या विक्षोभ के कारण नहीं है, बल्कि संविधान में वर्णित आरक्षण के प्रावधानों का सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ द्वारा अनेक बार किये गये विश्लेषण के प्रकाश में मेरा ऐसा मानना है कि सामाजिक न्याय की संविधान-सम्मत संकल्पना को मूर्त रूप प्रदान करने के लिये केवल उन्हीं वर्गों को सरकारी सेवाओं में तथा शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण प्रदान किया जाना चाहिये, जिनका सरकारी सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है और जो सामाजिक तथा शैक्षणिक दृष्टि से समाज के अन्य वर्गों से पिछडे हुए हैं। यह सिद्धान्त विपन्न सवर्णों पर लागू नहीं होता है, लेकिन केवल इसीलिये विपन्न गरीबों के बच्चों के विकास को अवरुद्ध भी तो नहीं किया जा सकता।

    इसलिये बहुत जरूरी है कि विपन्न सवर्णों के उत्थान के लिये ऐसा बीच का रास्ता निकाला जाए, जिससे विपन्न सवर्णों के बच्चों को केवल आर्थिक कमजोरी की वजह से वांछित उच्च शिक्षा से वंचित नहीं होना पडे। मेरी राय में इसका एक संवैधानिक रास्ता भी बन सकता है। संविधान के अनुच्छेद 15 (3) के प्रकाश में कम से 25 प्रतिशत विपन्न सवर्णों के बच्चों को केवल शिक्षण संस्थानों में प्रवेश के समय निर्धारित अंकों में छूट प्रदान करने से और इनके बच्चों को अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के बच्चों की ही भांति छात्रवृत्ति प्रदान करने के प्रावधान लागू करने से उनका जीवन संवर सकता है। इसमें साफ कहा गया है कि सरकार बच्चों एवं स्त्रियों के लिए कोई विशेष उपबन्ध करती है, तो इससे समानता के सिद्धान्त का उल्लंघन नहीं होगा।

    यदि सरकार द्वारा ऐसा किया जाता है, तो इससे समाजिक न्याय स्थापित तरने की संविधान की मंशा पूरी होने के साथ-साथ विपन्न सवर्णों के बच्चों को बिना आरक्षण के प्रावधान लागू किये ही आगे बढ़ने का अवसर प्रदान किया जा सकेगा, जो बहुत जरूरी है। इसे हम आरक्षण के बजाय आर्थिक संरक्षण प्रदान करने का वैधानिक उपचार कह सकते हैं। परन्तु, इसके लिये समाज में माहौल बनना एवं विपन्न सवर्णों की ओर से इस सम्बन्ध में पुरजोर आवाज उठाया जाना बेहद जरूरी है क्योंकि वर्तमान लोकतान्त्रिक व्यवस्था में बिना जन आन्दोलन एवं बिना मांग उठाये कुछ भी मिलना सपने देखने जैसा है!

    (लेखक जयपुर से प्रकाशित पाक्षिक समाचार-पत्र ‘प्रेसपालिका’ के सम्पादक, होम्योपैथ चिकित्सक, मानव व्यवहारशास्‍त्री, दाम्पत्य विवादों के सलाहकार, विविन्न विषयों के लेखक, कवि, शायर, चिन्तक, शोधार्थी और राष्ट्रीय स्तर पर संचालित संगठन ‘भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान- बास’ के मुख्य संस्थापक एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष भी हैं)

    • आदरणीय श्री श्रीराम तिवारी जी की और से मुझे मेल पर भेजी प्रतिक्रिया पाठकों की जानकारी हेतु यहाँ प्रस्तुत है :-
      Re: [PRAVAKTA । प्रवक्‍ता : Hindi Magazine : Hindi News : Hindi Newspaper, Hindi Website, Hindi Portal, Hindi Blog | हिन्दी : न्यूज़ पेपर, समाचारपत्र, मैगजीन, वेबसाइट, पोर्टल, ब्लाग] Comment: “आरक्षण, धर्मनिरपेक्षता एवं अल्पसंख्यकों का विरोध असंवैधानSunday, 25 July, 2010 4:39 PM
      From: This sender is DomainKeys verified”shriram tiwari” Add sender to Contacts
      To: “Dr. Purushottam Meena”
      आदरणीय डा पुरषोत्तम जी
      आपकी त्वरित तार्किक सटीक प्रतिक्रिया से पूरी तरह सहमत हूँ .आपके जेहन में .आपके दृष्टिकोण में जो विजन है वो गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के उपन्यास गोरा के रूप में दृष्टव्य है .
      .आपके द्वारा रचित “विपन्न -सवर्ण बच्चों का संरक्षण “भारतीय इतिहास में क्रांतिकारी कदम सावित होगा .समाज के प्रतेक इंसान को स्वभिमान के साथ जीने के सामान अवसर प्राप्त होवें मेरी तो बहरहाल यही सोच है .आपका नजरिया यदि व्यापक है तो इतिहास के कतिपय अप्रिय प्रसंगों को नाहक कुरेदने से क्या फायदा .
      नए समाज का -समतामूलक सामाजिक .राजनेतिक .आर्थिक एवं शोशंविहीन व्यवस्था की बुनियाद एतिहासिक कलह .कटुता या द्वेष पर आधारित न हो तो बेहतर है .पुनश्च आपने मेरे व्यक्तिगत ज्ञानकोष में इजाफा किया .आपका आभारी हूँ .वादा करता हूँ आपके नज़रिए से न केवल गांधीजी अपितु समग्र भारतीय इतिहास को देखने की कोशिश करूँगा .धन्यवाद .

  49. माननीय श्री महेश जी एक बार फिर से टिप्पणी देने के लिये धन्यवाद।

    अब मैं आपकी टिप्पणी पर इससे अधिक कहने की स्थिति में नहीं हँू कि मेरी ओर से जो लेख लिखा गया है, उसमें मेरी ओर से ऐतिहासिक और संवैधानिक सच्चाई को आज की पीढी के समक्ष रखने का प्रयास मात्र किया गया है। यह तो पाठकों को ही तय करना है कि इसमें मैं कितना सफल रहाहँू, लेकिन आपका चिन्तन कुछ अलग ही दिशा में जा रहा है।

    आप इस देश के संविधान को तो मेरा संविधान बतला रहे हैं। आप उन विषयों को यहाँ पर लिख रहे हैं, जिनसे इस लेख का कोई वास्ता ही नहीं है। आपका सोच और धारणा जो भी, आपको उस पर अपने विचार रखने का संवैधानिक अधिकार है। दुःख तो इस बात का है कि जिस संविधान ने आपको मनचाहे तरीके से बोलने और लिखने की आजादी दी, उस आजादी का तो आप पूरा-पूरा (जमकर) उपयोग करना चाहते हैं, लेकिन संविधान निर्माण से पूर्व की ऐतिहासिक सच्चाईयों को स्वीकार करने में आपकी रुचि नहीं हैं।

    आपके चिन्तन से ज्ञात होता है कि पूर्वजों के निर्णयों से मिले सामाजिक न्याय में आपको कोई आस्था नहीं है, बल्कि ऐसा लगता है कि किसी भी बहाने आप आरक्षण की पृष्ठभूमि जाने या समझे या स्वीकारे बिना आरक्षण, धर्मनिरपेक्षता और हर उस बात को जो आपको पसन्द नहीं है, बेशक वह संविधान और न्यायसंगत सम्मत ही क्यों न हो, आप उसे स्वीकारना नहीं चाहते हैं।

    आपको अपनी बात कहने का अधिकार है। लेकिन स्वस्थ चर्चा के लिये हर बार मुद्दों को छोड कर नये मुद्दे रख देना मुझे तो ठीक नहीं लगता। आपने जो सवाल उठाये थे, उन पर ही रहकर यदि आपने चर्चा को आगे बढाया होता तो मेरा मानना है कि पाठकों को नया जानने को अवश्य मिलता।

    जहाँ तक मेरा मानना है विभाजन के समय मोहन दास कर्मचन्द गाँधी नामक व्यक्ति स्वयं ही हिन्दुओं का नेतृत्व कर रहे थे। दस्तावेज तो यही कहते हैं, आप नहीं मानना चाहते, यह आपका अधिकार है।

    आपके लिये जानना जरूरी है, सर्वप्रथम तो आरक्षण कोई समस्या नहीं है और यदि आपके मत को एक क्षण के लिये मान भी लिया जाये तो भाई आरक्षण से भी बडी-बडी समस्याएँ हैं, जिन पर हम सबको मिलकर चर्चा करनी चाहिये। आरक्षण को तो गाँधी ने जबरन थोप दिया। सैपरेट इलेक्ट्रोल का हक छीन लेने पर मजबूरी में आरक्षण पर ही डॉ. अम्बेडकर को सब्र करना पडा।

    आपने सैपरेट इलेक्ट्रोल का हक छीन लिये जाने के बारे में एक शब्द भी नहीं लिखा। कोई बात नहीं। विषय को भटकाने के लिये ही सही पर आपने इस आलेख पर अपना अमूल्य समय निकालकर टिप्पणी की हैं। यह महत्वपूर्ण है। इसके लिये आपका आभार।

    एक बार फिर से आपसे निवेदन करना चाहँूगा कि हमें प्रस्तुत विषय के बारे में, अपनी धारणाओं के आधार पर नहीं, बल्कि तथ्यों, इतिहास, करार एवं संवैधानिक स्थितियों को सामने रखकर ही चर्चा करनी चाहिये। क्योंकि यह चर्चा या बहस का मंच नहीं, बल्कि समाचार समीक्षा का मंच है।

  50. माननीय मीणा जी

    “आरक्षण, धर्मनिरपेक्षता एवं अल्पसंख्यकों का विरोध असंवैधानिक!”
    यह आपके पोस्ट का शीर्षक है . आपने खुद ही लिखा है की जो कुछ भी हुआ कुछ मुट्ठी भर स्वयंभू नेताओं के द्वारा किया गया . इसमें हिंदुओं का प्रतिनिधि कौन था ? अगर विभाजन नहीं होता तो अल्पसंख्यक कौन होता ? विभाजन का आधार तो धर्म ही था फिर इसका पूरा पालन क्यों नहीं किया गया. यहाँ मैं यह स्पष्ट करना चाहूँगा की मेरी धारणा यह है इंसान को इंसान पहले समझना चाहिए और बाद में कोई और (धर्म, जाति).
    आपका सविधान इस देश को धर्मनिरपेक्ष बताता है तो उसे किसी धर्म या जाति से कोई सरोकार नहीं होना चाहिए उसे तो हर इंसान को बराबर का अधिकार देना चाहिए न की अल्पसंख्यक, अनुसूचित जाति, जनजाति, पिछड़ी जाति में बाँट देना चाहिए. लेकिन ऐसा करने की हिम्मत अब किसी राजनैतिक दल में नहीं है . कुछ लोगों के द्वारा खोदा गया गड्ढा आज सबके लिए तकलीफ़ पैदा कर रहा है .
    राज्य का धर्म होता है की वह कमजोर और असहाय लोगों की मदद करे न की किसी गुट के प्रतिनिधि की . आज का यथार्थ यही है हर धर्म, जाति और वर्ग के लोगों ने सत्ता हथिया ली है और मिलकर बंदरबाट कर रहे हैं .
    वह राज्य तो अपने देश के प्रतिभा का सम्मान नहीं करता उसे दुर्दिन देखने ही पड़ते हैं. राज्य कमजोर और असहाय लोगों को समर्थ बनाये के सब लोग एक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा में भाग लें न की अपने माथे पर धर्म, जाति और वर्ग का लेबल लगाकर घूमें.
    क्योंकि प्रारंभ से ही गलत तरीका अपनाया गया तो परिणाम भी वैसे ही आए .
    आपने जो कहा की अंबेडकर ने कोई माँग रखी थी तो अगर उन्हे लगता की उनकी माँग सही है तो क्यों पीछे हटे .
    नक्सलवाद आज एक विचारधारा न रहकर एक माफिया बनकर रह गया है जो संगठित उगाही कर रहा है. क्यों यह जंगलों तक सीमित है , गरीब तो ज्यादा मैदानो में रहते हैं ?

    आजतक इस देश की आम जनता से कभी पूछा गया की वह क्या चाहती है? 10000 के करीब लोग 120 करोड़ लोगों पर शासन कर रहे हैं उसी ब्रिटिश पद्धति का पालन करते हुए !! कहाँ है वास्तविक आजादी ? इस देश के सविधान को मानना यहाँ जन्म लिए व्यक्ति की मजबूरी है .

  51. Mujhe pehli baar yahan esa dikha ki kisi lekhak ne tippaniyon ka answer itni kushalta aur vinarmta se diya ho. Aap nisandh bdhai aur prashansa or izzat ke haqdar hen. Puna pact ke bare me aapne sahee likha he. Hum log itihas ko sirf tarikho me ratne ki wajah se samjh ni pate ki pirshtbhumi kya thi.

  52. माननीय दीपा शर्मा जी, आपने लगभग मेरे आलेख को समर्थन प्रदान किया है और लेख को ९० प्रतिशत सफल बताया है। इसके लिये आपका आभार। आपने भंवरी देवी के मामले में निर्णय देने वाले जज की भाषा या कहो रुग्ण मानसिकता का उल्लेख किया है।

    माननीय दीपा शर्मा जी, वास्तवकिता यह है कि यदि कोई जज इस प्रकार की टिप्पणी करे और उसकी टिप्पणी के आधार पर सम्पूर्ण सवर्ण समाज को कटघरे में खडा कर दिया जाये, यह भी तो न्यास संगत नहीं है और इसीलिये मैं अपने आलेख में ऐसे तथ्यों का समावेश करने से बचता हँू।

    श्री तिवार जी के बारे में आपने जो भी लिखा है, वह भी विपचारणीय है। आज हजारों कथित सवर्ण और ब्राह्मण दलित-आदिवासियों के मददगार हैं। मैं नहीं समझता कि तिवारी जी वर्णभेद में विश्वास करते होंगे और यदि करते भी होंगे तो इसके लिये भी पूरी तरह उन्हीं को जिम्मेदार ठहराना अनुचित है, क्योंकि कोई भी व्यक्ति जिस प्रकार के परिवेश में पलबढकर बढा होता है, जिस प्रकार से उसका समाजीकरण होता है, उन सबका उसके अवचेतन मन पर गहरा प्रभाव पडता है। इस देश में तो झूठ फैलाने का काम व्यवसाय की भांति किया जाता है। ऐसे में कोई भी दिग्भ्रमित हो सकता है। हमारा लक्ष्य सौहार्दपूर्ण माहौल एवं मजबूत राष्ट्र का निर्माण करना है।
    एक बार पुनः टिप्पणी देने के लिये धन्यवाद।

  53. श्री गोपाल अरोरा जी आपने भी अपने विचार व्यक्त किये हैं, जिसके लिये आपका आभार।

    आपने शुरूआत में ही जिस प्रकार की भाषा का इस्तेमाल किया है, वह स्वस्थ चर्चा को अंजाम तक ले जाने वाली भाषा नहीं है। जरूरी तो नहीं कि हर कोई सम्पूर्ण हो, विचारों को रखा ही इसलिये जाता है ताकि पाठक उन पर गहराई से विचारमन्थन करके विचारों को उनके लक्ष्य तक पहुंचने से भटकने नहीं दें।

    किसी के ज्ञान को अधकचरा कहने की मानसिकता को आप क्या कहेंगे?

    खैर आपसे निवेदन है कि आलेख में और भी बहुत सारी बातें हैं, जिन पर भी आपको अपना मत व्यक्त करना चाहिये।

    उक्त टिप्पणी से मुझे आरोपित किये जाने के बाद, मेरा यह कहना कोई मायने नहीं रखता कि मैं हिन्दू हँू और मुझे हिन्दू होने पर गर्व है।

    शायद आपने मेरे आलेख की इस पंक्ति पर विचार नहीं किया कि-

    “….आगे लिखने से पूर्व साफ कर दूँ कि मैं मुस्लिम या इस्लाम या अन्य किसी भी धर्म के प्रति तनिक भी पूर्वाग्रही या दुराग्रही नहीं हूं। मैं पूरी तरह से धर्म-निरपेक्ष, मानवतावादी एवं इंसाफ पसन्द व्यक्ति हूं। सारी दुनिया जानती है कि भारत का संविधान धर्मनिरपेक्षता के सिद्धान्त पर खडा है। जब तक भारत में यह संविधान लागू है, इस देश में किसी को भी संविधान से खिलवाड करने का हक नहीं है। बल्कि संविधान का पालन करना हर व्यक्ति का संवैधानिक एवं कानूनी दायित्व है।..”

    अपनी टिप्पणी देने के लिये धन्यवाद।

  54. माननीय महेश सिन्हा जी, टिप्पणी के लिये आभार।

    आपने मेरे आलेख पर सीधे तौर पर कमेण्ट करने के बजाय, कुछ सवाल उठाये हैं और सवाल भी केवल आरक्षण पर ही उठाये हैं। अन्य किसी भी विषय को या भेदभाव के प्रस्तुत प्रमाणों पर आपने एक भी शब्द लिखने की जरूरत नहीं समझी।

    आपके सवालों पर बिन्दुबार मेरा विनम्र मत निम्न प्रकार प्रस्तुत है। आशा है, इसे आप अन्यथा नहीं लेंगे, क्योंकि सवालों के उत्तर देना भी जरूरी है और उत्तर मेरे हिसाब से वो नहीं है, जिनकी कि आपने मुझसे अपेक्षा की है?

    १. विभाजन किस आधार पर किया गया? माननीय महेश सिन्हा जी, यह मेरे आलेख का विषय ही नहीं है, बल्कि एक विभाजन को मान्यता देने के बाद दूसरा विभाजन क्यों नहीं हुआ और अलग से इस्लामिक राष्ट्र के रूप में पाकिस्तान को गाँधी के नेतृत्व में तत्कालीन काँग्रेस द्वारा स्वीकार कर लिये जाने के बाद भी भारत में गैर हिन्दू धर्मावलम्बियों को रहने एवं संरक्षण का वचन दिया गया था। मेरे लेख की शुरुआत इसके बाद से होती है। इसलिये मेरा मानना है कि यह सवाल मुझसे पूछकर आप मेरे साथ न्याय नहीं कर रहे हैं। ये सवाल तो उन विद्वानों से पूछा जाना चाहिये, जिनके पास भारत के विभाजन के कारणों पर शौधात्मक एवं गवेषणात्मक ज्ञान है।

    २. आपने इस सवाल में भी प्रारम्भ को छोड कर, बीच से बात शुरू कर दी है। माननीय अपनी विद्वता का उपयोग हालातों को घुमाने फिराने में नहीं करें तो बेहतर होगा। चर्चा का सकारात्मक महत्व भी तब ही होगा। मेरा निवेदन है कि जब एक बार अजा एवं अजजा वर्गों से सैपरेट इलेक्ट्रोल का अधिकार गाँधी ने उपवास के जरिये छीन लिया और पूना पैक्ट हो गया तो स्वाभाविक रूप से बाद की सभी सभाओं या निर्णयों में उस निर्णय का उल्लेख करना या उसका क्रियान्वयन करना ही था, बेशक डॉ. अम्बेडकर संविधान सभा में सदस्य के रूप में शामिल होते या नहीं?

    जहाँ तक संविधानसभा में आरक्षण की समय सीमा तय होने की बात है। आपकी यह बात अस्पष्ट है। यदि आपका आशय अजा एवं अजजा वर्गों को सरकारी सेवाओं एवं शिक्षण संस्थाओं में आरक्षण दिये जाने की समय सीमा तय होने से है तो मैं इससे सहमत नहीं हँू। यदि आपका आशय अन्यथा है तो कृपाकर स्पष्ट करें। जिससे कि आपके सवाल का पूर्ण उत्तर दिया जा सके।

    तमिलनाडू से सवर्णों का पलायन हीं नहीं, अपितु देश में ज्वलन्त समस्या नक्सलवाद भी सैपरेट इलेक्ट्रोल के हक को गांधी द्वारा छीने जाने का ही दुष्परिणाम है, जिसे शायद आप स्वीकार नहीं करना चाहेंगे, क्योंकि आपने शायद कभी सैपरेट इलेक्ट्रोल के समझौते को पढा नहीं और, या इसके महत्व को नहीं जाना। इसके लिये न तो मैं कुछ कर सकता हँू और न हीं अब आप या अन्य कोई भी कुछ कर सकता है। अब तो हालात इतने बिगड चुके हैं कि सैपरेट इलेक्ट्रोल का अधिकार बहाल करके भी हालातों को बदला जाना सम्भव नहीं है।

    ३. आपका यह सवाल भी अस्पष्ट है, इसमें भी मैं आपसे निवेदन करूंगा कि कृपया साफ करें कि ६० वर्ष से आप किस आरक्षण के लागू होने की बात कर रहे हैं? जिससे कि आपके सवाल का पूर्ण उत्तर दिया जा सके।

    ४. इस सवाल का कोई भी उत्तर अन्तिम नहीं हो सकता है! क्योंकि यह तथ्यपरक नहीं, बल्कि जाँचपरक सवाल है। इसलिये मेरे किसी भी उत्तर को गलत ठहराना आसान होगा। बेहतर होगा कि इस सवाल पर आप स्वयं चिन्तन करें या पाठकों को विचार करने दिया जाये। वैसे मेरे आलेख से इसका कोई सीधा सम्बन्ध भी नहीं है। बल्कि मैं तो आरक्षण को अजा एवं अजजा वर्गों पर जबरन गाँधी द्वारा थोपने को ही सही नहीं ठहराता। स्वयं डॉ. अम्बेडकर भी आरक्षण के विरोध में थे। केवल इतना ही कह सकता हँू कि जो बात गलत है, वो गलत है और जो गलत है उसके साईड इफेक्ट जो सामने आयेंगे ही।

  55. माननीय श्री आर सिंह जी, टिप्पणी के लिया आभार! आपकी निम्न टिप्पणी आपके ही विचार हेतु परस्तुत है :-

    “Dr.Meena ka krodh kuchh had tak jayaj hai,par wah ektarpha hai. Mere vichhar se samaadhan wah bhi nahi hai. Dharm nirpekshta ka aarth sab dharmon se katna nahi valki sab dharmon ka samman hai.”

    माननीय श्री आर सिंह जी, इस टिपण्णी को मैं दो हिस्सों में विभक्त करना ठीक समझता हूँ :-

    1-Dr.Meena ka krodh kuchh had tak jayaj hai,par wah ektarpha hai. Mere vichhar se samaadhan wah bhi nahi hai.

    माननीय श्री आर सिंह जी, यदि मेरे लेखन में आपको क्रोध प्रतीत हो रहा है, तो मैं स्वीकार करता हूँ कि यह मेरे लेखन की कमजोरी है, जिसका मुझे खेद है, लेकिन मेरा मानना है कि आलेख में क्रोध नहीं, बल्कि पीड़ा कि अभिव्यक्ति है! फिर भी आपकी बात विचारने योग्य है. धन्यवाद!

    2-Dharm nirpekshta ka aarth sab dharmon se katna nahi valki sab dharmon ka samman hai.

    माननीय श्री आर सिंह जी, मैं भी आपकी उक्त बात से सहमत हूँ! मैंने अपने आलेख में धर्मों से कटने की बात कहीं भी नहीं लिखी है! फिर भी मेरे लेखन से आपको ऐसा आभास हुआ है तो ये मेरे लेखन की कमजोरी है! धन्यवाद!

    माननीय श्री आर सिंह जी, आपने सवाल किया है कि-“Aarkchaan kiske liye?”
    माननीय श्री आर सिंह जी, आपने सवाल का जवाब भी स्वयं ही दे दिया है! कि-“Sab tarah se pichre aur achhut logon ke liye,…”

    निश्चय ही आपके पास आपके जवाब का कोइ पुख्ता आधार होगा, लेकिन मैं जहाँ तक समझता हूँ, वर्तमान में आरक्षण संवैधानिक एवं कानूनी व्यवस्था है, जिसके बारे में हमें संविधान और, या कानूनी पहलुओं को ही विचार अभिव्यक्ति का आधार बनाना चाहिए, न कि अपनी निजी अवधारणाओं को?

    जहाँ तक मैं समझता हूँ आपके उक्त विचारों को संविधान, विधान या किसी भी न्यायिक निर्णय का समर्थन प्राप्त नहीं है! यदि आप जैसा बता रहें है, वैसा कोइ प्रावधान हो तो कृपया अवगत कराने का कष्ट करें! धन्यवाद!

    माननीय श्री आर सिंह जी, एक बार फिर से टिप्पणी के लिया आभार!

    • Ek baat bataa doon,Dr.Meena,Purbaagrah se kisi samsyaa ka samaadhaan nahi hota.Aaj bhi main kahta hoon ki aarakchan ka jo mool udesya tha,samaaj ke neeche tabke ke logon ko oopar lanaa wah aaj bhi adhuraa hai kyon ki sambidhaan mein yah pravdhaan nahi kiya gayaa ki aarkchhan ek pariwaar ke kewaal ek generati9on ke liye.Jaisa maine pahle bhi likhaa hai ki kuchh tahedil se imaandaar log isske liye samay samay par awaaj bhi uthay,par unki awaaj nakaarkhaane mein tooti ki awaaj ban kar rah gayee.Bahas ka mudaa yah nahi hai ki saambidhaan mein kya hai.bahas iss baat par hona chaahiye ki morally kya correct hai.Aapne apne ek aalekh mein bhrastaachaar ka bhi mooda uthaayaa hai.Ye sab moode jo aaj hamko samay samay par kachchotate hainhamaare moral degradation ke pratik hain.Ham wahin aadarshvaadi bante hain jahaan hamaare swaarth par aanch na aaye.Bharat mein yah koi badi baat bhi nahi hai,kyonki hippocarcy to hamaare blood mein hai.

      • आदरणीय सिंह साहब, आप जैसे विशिष्ट लोगों से यह अपेक्षा नहीं की जाती कि सभी लोगों को एक जैसी मानसिकता का मानकर एक डण्डे से हांका जाये। आपको अपनी बात कहने का हक है। आप बुद्धिजीवी व्यक्ति हैं, लेकिन कानून के मामलों में बहस का मुद्दा कानून या प्रावधानों को आधार बनाकर ही बनाया जाता है और बनाया जाना चाहिये।

        मैं स्पष्ट करना चाहँगा कि बेशक साफ शब्दों में न लिखा हो, लेकिन संविधान में जो कुछ भी लिखा है, उसका अर्थ यही है कि आरक्षण पीढी दर पीढी मिलते रहने चाहिये और संविधान निर्माताओं का साफ मन्तव्य भी यही था और यही आरक्षण का संवैधानिक उद्देश्य भी है, जो तब ही पूरा होगा, जबकि अजा एवं अजजा के सशक्त परिवार के लोगों को सरकारी सेवाओं में प्रतिनिधित्व मिलता रहे। अर्थात्‌ कलेक्टर का बेटा ही कलेक्टर बने।

        यह अलग बात है कि अजा एवं अजजा वर्ग के लोग कलेक्टर या उच्च पद पर आसीन होने के बाद अपने-अपने वर्ग को भूल जाते हैं। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि आरक्षण जिस उद्देश्य के लिये लागू किया गया था, वह उद्देश्य गलत है, बल्कि जिन लोगों को जिस उद्देश्य से प्रदान किया गया है, वे उस उद्देश्य पर खरे नहीं उतर रहे हैं। जिसके लिये ऐसे लोगों के खिलाफ सख्त कानून बनाकर कार्यवाही करनी होगी, जो नहीं की जा रही है। इस विषय पर मेरी ओर से एक आलेख भी लिखा गया है, जो मेरी खबर.कॉम पर () वर्गद्रोही बर्खास्त किये जायें!
        https://www.merikhabar.com/news_details.php?nid=29545
        भारतकेसरी.कॉम पर अजा/अजजा के वर्गद्रोही बर्खास्त किये जायें!
        https://www.bharatkesari.com/showarticle.aspx?p=sc/st_against_people_should_terminated_932
        जनोक्ति.कॉम पर () आरक्षित वर्ग के वर्गद्रोही अफसर बर्खास्त किये जायें!
        https://www.janokti.com/2010/06/11/%E0%A4%86%E0%A4%B0%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A4%BF%E0%A4%A4-%E0%A4%B5%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%97-%E0%A4%95%E0%A5%87-%E0%A4%B5%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%97%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BE/
        शीर्षक से पढा जा सकता है। इस आलेख के बाद मुझे अजा एवं अजजा वर्ग के अनेक उच्चाधिकारियों की नाराजगी का सामना भी करना पडा और दुःख की बात है कि पाठकों की ओर से इस विषय पर अपेक्षित प्रतिक्रियाएँ भी नहीं मिल पायी। इस आलेख में आरक्षण के संवैधानिक उद्देश्य के बारे में भी लिखा गया है। प्रतिक्रिया देने के लिये आपका आभार।

  56. “……एतिहासिक गोलमेज कांफेरेंस में आरक्षण धर्मनिरपेक्षता का मुद्दा था ही नहीं…..”

    माननीय श्री श्रीराम तिवारी जी मेरे आलेख में मैंने भी तो कहीं पर नहीं लिखा है की गोलमेज कोंफ्रेंस में आरक्षण या धर्म निरपेक्षता मुद्दा था?

    आपको नाराज होने की जरूरत नहीं है, लेख को मेरे निवेदन पर एक बार फिर से पढने का कष्ट करें!
    ————————————————-
    “…आपको यदि लगता है की बापू ने किसी जाती या वर्ग के विरोध में कभी भूंख हड़ताल की तो में आपको चुनोती देता हूँ की आप बापू पर लगाये आरोप वापिस लें…”

    माननीय श्री श्रीराम तिवारी जी आपकी दूसरी आपत्ती आपने उक्त शब्दों में व्यक्त की है, जिस पर मैं विस्तार से लिखूं उससे पूर्व आपसे निवेदन है कि कृपया पूना पेक्ट की प्रष्टभूमि पढने का कष्ट करें! आपको प्रतिउत्तर मिल जाएगा फिर भी नहीं मिले तो इसी स्थान पर आपको जानकारी पढने को मिलेगी!
    —————————————————
    माननीय श्री श्रीराम तिवारी जी मैं एक साधारण सा व्यक्ति हूँ चुनौतियों कि भाषा में विश्वास नहीं करता लेकिन आपसे निवेदन है कि लेख के निम्न अंशों पर भी तो कुछ कहें :-

    1-दलित, आदिवासी, पिछडों द्वारा भी अलग राष्ट्र की मांग की गयी थी, जिसे डॉ. भीमराव अम्बेडकर के नेतृत्व में ब्रिटिश प्रधानमन्त्री, मोहनदास कर्मचन्द गाँधी एवं मोहम्मद अली जिन्ना के समक्ष विचारार्थ प्रस्तुत करने के बाद यह तय हुआ कि डॉ. अम्बेडकर अलग राष्ट्र की मांग छोड देंगे और इसके बदले में भारत के मूल निवासी आदिवासियों, दलितों और पिछडों को सत्ता में संवैधानिक तौर पर हिस्सेदारी दी जायेगी। इसे सुनिश्चित करने के लिये तत्कालीन ब्रिटिश सरकार सहित सभी पक्षों ने आदिवासी एवं दलितों के लिये सेपरेट इल्क्ट्रोल की संवैधानिक व्यवस्था स्थापित करने को सर्व-सम्मति से स्वीकृति दी।

    2-राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री, मन्त्री, मुख्यमन्त्री और लोक सेवक की कुर्सी संभालते समय मन्त्रोचार या कुरआन की आयतों या बाईबल का पठन भी नहीं किया जाना चाहिये, जैसा कि वसुन्धरा राजे एवं उमा भारती ने मुख्यमन्त्री पद संभालते समय किया था। इन दोनों राजनेत्रियों ने मुख्यमन्त्रियों के रूप में संविधान के पालन और सुरक्षा की शपथ ग्रहण करते ही संविधान की धज्जियाँ उडाते हुए हिन्दू धर्म के कथित सन्तों के चरणों में वन्दना करके संविधान के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को तहस नहस कर दिया।

    3-यदि कोई भी व्यक्ति वास्तव में निष्पक्ष और न्यायप्रिय है तो यह जानकर आश्चर्य होना चाहिये कि हाई कोर्ट में सडसठ प्रतिशत पदों पर जजों की सीधी नियुक्ति की जाती है, लेकिन राजस्थान में आजादी के बाद से आज तक एक भी अजा एवं अजजा वर्ग में ऐसा व्यक्ति (वकील) नियुक्ति करने वाले सवर्ण हिन्दुओं को योग्य नहीं मिला, जिसे हाई कोर्ट का जज नियुक्त किया जा सकता।

    4-कथित हिन्दू धर्म के प्रवर्तक एवं संरक्षकों द्वारा 20 प्रतिशत हिन्दुओं को मन्दिरों में प्रवेश तक नहीं करने दिया जाता है। मन्दिरों में प्रवेश करने से मुसलमान नहीं रोकते, बल्कि ब्राह्मण एवं मनुवादी मानसिकता का अन्धानुकरण करने वाले हिन्दू ही रोकते हैं। मध्य प्रदेश के आदिवासी बहुल झाबुआ जिले में आदिवासियों का शोषण मुसलमान नहीं करते, बल्कि मनुवादी हिन्दू ही करते हैं।

  57. Ekdam satay he. Khaskar gandhi ji ke bare me satay likha he. Gandhi ji ne us samay jo bhi kiya tha wahee bayan hua hai. Haan lekin ye kehna galat h sarkari karyalyon me sirf bhagwan virajman hen. Lekin fir b wahan dharmik chinh na hona behtar rahega qki hamara desh kisi dharm ko prayojit nahee karta hai. Aur dalit aaj bhe buri halat me hen. Bundelkhand gawah h is baat ka. Aap ye bi add karte rajasthan k sandharbh me.. . . , . , . Bhanwri devi ke case me rajasthan ka ek judge kehten hen ki ye mana hi nahi ja sakta he ki ek brahman ya thakur purush kisi dalit mahila ka rape kar sakta he or abhiyukto ko riha kar deta he. Jante hen sirf is himmat par ki nyaypalika me sb angde bhare pade hen. Or shriman brahmano ne jo varn vyastha ka durupyog karna shuru kiya tha wo aaj bhi jari he. Fir bhi hum sach bhul jate hen. Shriram tiwari ji ko gussa is par aaya ki brahman ko galat lekh q likha (maaf karna tiwari g) hahaha par tiwari g ne gandhi g par taal diya. Behtreen laikh. 90% safal

  58. धर्म निरपेक्षता के बारे में लेखक महोदय का ज्ञान अधकचरा दिखाई देता है … “सरकारी कार्यालयों में कार्यालयीन समय में गणेश, शिवजी, हनुमानजी, दुर्गा आदि की मूर्तियाँ या चित्र स्थापित हैं, जिनकी लोक सेवकों द्वारा वाकायदा प्रतिदिन पूजा की जाती है और प्रसाद भी वितरित किया जाता है। जबकि एक भी सरकारी कार्यालय में मक्का-मदीना, प्रभु यीशू, बुद्ध या महावीर का चित्र नहीं मिलेगा” इस बात से लेखक महोदय एक थोथा पक्ष सिद्ध करना चाहते हैं की सारी व्यवस्था पर सवर्ण हिन्दू काबिज हैं जब कि लेखक ज़रा पूरी आँखें खोल कर देखें तो एक नहीं कई सरकारी कार्यालयों/अस्पतालों में मक्का-मदीना, प्रभु यीशू, बुद्ध या महावीर के चित्र मिल जाएंगे.. किसी धर्म या मत से चिढने का नाम धर्म-निरापेक्षता नहीं होती .. धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है — अपना धर्म छोडो नहीं, दूसरे का तोड़ो नहीं

  59. 1 विभाजन किस आधार पर किया गया था ?
    2. डॉ अंबेडकर स्वयं सदस्य थे सविधान सभा के जिसमे एक समय सीमा तय की गई थी आरक्षण की लेकिन हुआ क्या ? तमिलनाडू से सवर्ण कहे जाने वाले लोग पलायन कर रहे हैं क्यों ?
    3. 60 से ज्यादा वर्षों से आरक्षण प्रभावशील है कितना उत्थान हुआ आम आदिवासी या विशिष्ट जाती वर्ग का .
    4 आज इतने सालों बाद राजस्थान में क्यों नई आरक्षण आग लगाई गयी और किसने ?

  60. Kahna to bahut kuchh hai,par sochta hoon ki armbh kahhan se karoon.? Dr.Meena ka krodh kuchh had tak jayaj hai,par wah ektarpha hai.Mere vichhar se samaadhan wah bhi nahi hai.Dharm nirpekshta ka aarth sab dharmon se katna nahi valki sab dharmon ka samman hai.Gandhi ne bhi kuchh aisa hi sochaa tha.Dr.Ambedkar se unka matbhed sarv vidit hai,par uska bhi kaaran dono ke back ground ka antar hai.Dr.Ambedkar ne sampurn jindaagi mein,aapne hi desh mein, jo peeda jheli thee uska ek aansh bhi Gandhi ko South Africa mein nahi jhelna padaa tha.Gandhi aur anya ooch vargiya netaon ko yah baat samajh jani chaahiye thi.Aarakchan ka pravdhaan apne aap mein koi galat step nahi tha,par ooska palan theek se nahi hua,isiliye uska doogaami prinaam bhi achha nahi hua hai.Aarkchaan kiske liye?Sab tarah se pichre aur achhut logon ke liye,par kya aarkchhan ka laabh sachmuch mein aaj unlogon ko mil paarahaa hai,jin pichhre logon ke liye wah laagoo hua tha? Aaj usko bhi kuchh high powered logon ne hijack kar liya hai aur afsos to ees baat ka hai ki ve manu baadi ooch vargiya nahi,par unhi pichhde logon mese ooch vargiya ban gaye log hain.Sxties mein ek technical institute ke backward class ke director ne katha ki mere bete ko aarkchhan kyon chaahiye?mujhse badaa forward yahan kaun hai? Ek ooch shiksha prapt aadibaasi leader Shri Kartik Uraon ne bhi lagbhag oosi samay kahaa tha ki aarchhan ka laabh kisi byakti ko kewal ek peedhee tak milnaa chaahiye.Kuchh aisa hi U.P.ke S.C nete shri Maurya ne bhi kaha tha.Par aur logon ne aisa kyon nahi sochaa?
    Nirpekshta aur sarv dharma samman ka jo antar, merevichar se ,hai aur usme doosre ko na apnaane ke kaaran jo moral degradation hua hai,oospar phir kabhi mai apna vichaar byakt karoonga.

  61. निरंकुश जी के आलेख का शीर्षक ही भारतीय संविधान की मूल अवधारणा है . आरक्षण; धर्मनिरपेक्षता ;एवं अल्पसंख्यकों का विरोध न केवल असंवैधानिक अपितु राष्ट्र द्रोह भी है .आलेख में कूट कूट कर एतिहासिक
    और राजनेतिक सच्चाई का खुलासा किया गया है .सिर्फ एक जगह अर्ध सत्य का प्रयोग करके आप अपने ही स्वनिर्मित वाक् जाल में ओंधे मुह nazar aa rahe hain .एतिहासिक गोलमेज कांफेरेंस में आरक्षण धर्मनिरपेक्षता का मुद्दा था ही नहीं .सारा संसार जानता है .उसके लिखित प्रमाण सुरक्षित हैं .की उस मीटिंग में जिन्ना ने आग उगली थी और अखंड भारत के कई तुकडे करने की ब्रिटिश साम्राज्वादियों की चालों में सभी उपस्थित महानुभाव लगभग फस ही गए थे .ये तो गनीमत समझो की बापू ने अंग्रेजों की चाल को नाकाम कर दिया .आपको यदि लगता है की बापू ने किसी जाती या वर्ग के विरोध में कभी भूंख हड़ताल की तो में आपको चुनोती देता हूँ की आप बापू पर लगाये आरोप वापिस लें .और हाँ ये जो आरक्षण .अल्प्संख्यता इत्य्यादी शब्द हैं ये सब बापू के ही प्रभाव में तत्कालीन सम्विधान सभा के महानतम विद्द्वानो के द्वारा भारतीय विविधता को परिलक्षित करते हुए अंगीकृत किया गया था . जो लोग आरक्षण -अल्प्संख्याकता -धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ हैं उन्हें नसीहत की जरुरत हो सकती है .किन्तु जिन महान स्वतंत्रता सेनानियों ने इन तीन महामंत्रों का सृजन किया कम से कम उनको तो वख्स दो .

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