सम्मानितों का ‘डर-प्रसंग’ , अर्थात ‘सफेद आतंक’

0
226

                                        मनोज ज्वाला
     भारत की केन्द्रीय सत्ता से कांग्रेस के बेदखल हो जाने और देश भर
में  भाजपा के बढने व कांग्रेस के घटने का दौर शुरु हो जाने के बाद यहां
के बौद्धिक समाज का एक खास महकमा नित नये-नये करतबें दिखाने में लगा है ।
गीने-चुने सम्मानित बुद्धिजीवियों द्वारा समय-समय पर ऐसी हरकतें की जाने
लगीं हैं , जो उनकी  धूर्त्त मानसिकता और पक्षपातपूर्ण  बौद्धिकता की
सीमायें लांघ कर आम लोगों  के मन-मानस को आतंकित भ्रमित करने और उन्हें
एक गलत दिशा की ओर धकेलने का यत्न करती हुई दीख रही हैं । भारत सरकार के
पद्मश्री व पद्मभूषण अदि विविध सम्मानसूचक पदवियों से सम्मानित
व्यक्तियों में से कुछ के द्वारा पिछले दिनों रह-रह कर  देश में
‘असहिष्णुता बढ जाने’ व  ‘माहौल खराब हो जाने’ का हवाला देते हुए कभी
सरकारी पुरस्कार-सम्मान लौटाने का वितण्डा खडा कर देना , तो कभी ‘डर
लगने’ का इजहार करने लगना ऐसे ही कौतूकपूर्ण प्रसंग हैं । किन्तु
सूक्ष्मता से अगर आप देखें तो पाएंगे कि यह सब तो वास्तव में  एक प्रकार
का आतंक है , बौद्धिक आतंक ।
          हमारे देश में आतंक दो प्रकार के हैं- एक प्रत्यक्ष स्थूल
शारीरिक बलजनित खूनी-हिंसक तो दूसरा परोक्ष सूक्ष्म मानसिक बुद्धि-जनित
सफेद अहिंसक । लेकिन ये दोनों ही एक दूसरे के पूरक समर्थक व संरक्षक हैं
। बुद्धि-चातुर्य से सच को झूठ, झूठ को सच, सही को गलत , गलत को सही और
वास्तविकता को मिथ्या व मिथ्या को वास्तविकता घोषित-प्रचारित कर स्वयं की
मान्यताओं को स्थापित करने के बौद्धिक व्यायाम से लोगों को
भ्रमित-प्रभावित-पीडित करना दूसरे प्रकार का आतंक ही है । क्योंकि, इससे
एक ओर जहां खूनी आतंक को वैचारिक अवलम्बन व समर्थन मिलता है , वहीं दूसरी
ओर समाज के निर्दोष-निरीह लोगों को मानसिक पीडा होती है, उनकी
मान्यताएं-धारणायें कुण्ठित होती हैं और वे गलत दिशा में जा कर गलत
निर्णय ले लेने के दुष्परिणामों का खामियाजा भुगतते हैं । यह बौद्धिक
आतंक चूंकि एकदम ‘सफेद झूठ’ पर आधारित होता है तथा इसे अंजाम देने के लिए
बिल्कुल साफ-सुथरे साधनों यथा- साहित्य फिल्म संगीत नाटक भाषण-लेखन आदि
का इस्तेमाल किया जाता है और ऐसा करने वाले बौद्धिक बहादुरों की छवि
प्रचारित रुप में धब्बा-रहित एकदम साफ-सुथरी सम्मानित व प्रतिष्ठित होती
है , इस कारण मैंने इसे ‘सफेद आतंक’ नाम दे रखा है । जाहिर है , ऐसा आतंक
बरपाने वाले को ‘सफेद आतंकी’ ही कहा जा सकता है । ये सफेद आतंकी ज्यादा
खुंखार और ज्यादा खतरनाक हैं, क्योंकि इन्हीं की प्रेरणा-विचारणा से
खुनी आतंकी अपना आतंक बरपाते हैं । ये ‘सफेद आतंकी’ जो हैं , सो
मीडिया-प्रतिष्ठानों व शिक्षण-संस्थानों-विश्वविद्यालयों से ले कर राज्य
की कार्यपालिका, न्यायपालिका व व्यवस्थापिका सभाओं तक ही नहीं ; बल्कि
सेवा-प्रेम-शांति-विकास की मायावी गंगा बहाने वाली स्वयंसेवी संस्थाओं से
ले कर कला-साहित्य-संस्कृति के विविध मंचों व मायानगरी की मनमोहक
रंगशालाओं तक में घुसे हुए हैं । किन्तु ऐसे साफ-सफेद पोशाक में कि जल्दी
पकड में ही नहीं आते । इनके आकार-प्रकार-विस्तार का पूरा व्योरा सन २०१३
में प्रकाशित व डॉ० सुब्रह्मणियम स्वमी के हाथों लोकार्पित मेरी पुस्तक-
“सफेद आतंक ; ह्यूम से माइनों तक” में दर्ज है ।
         तो यह ‘सफेद आतंक’ जो है , सो अंग्रेजी औपनिवेशिक शासन द्वारा
भारतीय राष्ट्रीयता को कुंद करने के लिए कायम की गई मैकाले शिक्षा-पद्धति
की कोख से निकले हुए ‘अति शिक्षित अत्याधुनिक बुद्धिबाजों’ की ‘वामपन्थी
फौज’ के ‘अभारतीय चिन्तन’ की ऊपज है , जिसे नेहरु-कांग्रेस की पूर्ववर्ती
सरकारों से   पर्याप्त पोषण मिलता रहा है । यह आतंक वैसे तो  उस अभारतीय
शिक्षा-पद्धति के साथ-साथ ही फल-फुल रहा है , किन्तु सन १९४७ के बाद से
इसकी फसल ‘अमरबेल के छत्ते’ की तरह ऐसे लहलहा उठी कि उसके नीचे बैठ कर
इसे फैलाने वाले सफेद-आतंकियों ने देश-विभाजन एवं उस विभाजन-जनित हिंसक
पलायन के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ व हिन्दू महासभा को जबरिया
जिम्मेवार ठहरा  दिया ।  फिर गांधीजी की हत्या के आरोपी गोडसे के
पाकिस्तान-विरोध को  राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से सम्बद्ध होने का कारण
बताते हुए इसी आधार पर संघ को बलात ही कठघरे में खडा कर दिया । इतना ही
नहीं, इन बुद्धि-बहादुरों ने देश में यत्र-तत्र जहां कहीं भी कोई
दंगा-फसाद हो , उसके लिए बिना किसी तर्क व सत्य के संघ-परिवार को
जिम्मेवार ठहराने तथा मुस्लिमों-ईसाइयों की तमाम
धर्मान्तरणकारी-हिंसाजनित-राष्ट्रघाती गतिविधियों को भी संरक्षण देते हुए
उनका सर्वतोभावेन अनुचित-अनावश्यक तुष्टिकरण करने,
हिन्दू-अस्मिताओं-हितों-अधिकारों का हनन करने और हिन्दूत्व में ही समाहित
 भारत की संस्कृति व राष्ट्रीयता को धर्मनिरपेक्षता के नाम पर पद-दलित
करने हेतु इतिहास व साहित्य को भी प्रदूषित करने का अभियान चला रखा है ।
कश्मीर में इस्लामी जिहादियों द्वारा वहां के लाखों हिन्दुओं को लूट-मार
कर रातों-रात भगा दिए जाने की भयावह त्रासदी को मौन समर्थन देता हुआ यह
अभियान भाजपा-शासित गुजरात के गोधरा में मुस्लिम आतताइयों के हाथों ट्रेन
जला कर सैकडों निर्दोष हिन्दू-यात्रियों को योजनापूर्वक मार डालने वाली
वीभत्स विभीषिका को ‘महज एक दुर्घटना’, किन्तु उसी मामले की
हिन्दू-प्रतिक्रिया को ‘शासन-प्रायोजित हिंसा-दंगा’ करार देने से ले कर
नरेन्द्र मोदी व भाजपा को दंगाई सिद्ध करने व समस्त संघ-परिवार के
विरूद्ध  देश-दुनिया भर में दुष्प्रचारित-घृणा फैलाने और उसके बाद कतिपय
मुस्लिम-जिहादी आतंकी घटनाओं में हिन्दू-युवकों-साधुओं-साध्वियों को
जबरिया आरोपित कर ‘भगवा आतंक’ नामक प्रायोजित ‘डर’ कायम करते हुए
वस्तु-स्थिति को उल्टे अर्थ में प्रस्तुत करने की हद से भी आगे जा कर
यु०पी०ए०-०२के शासन-काल में समस्त बहुसंख्यक-समाज को दंगाई मान उसे
अल्पसंख्यकों के अधीन रहने हेतु विवश कर देने वाला ‘काला विधेयक’
(प्रस्तावित-‘साम्प्र्दायिक व लक्षित हिंसारोधी विधेयक’ जो
सत्ता-परिवर्तन की वजह से पारित नहीं हो सका) लाने के लोमहर्षक दुस्साहस
तक पहुंच गया । ऐसा बौद्धिक आतंक बरपाने में मायानगरी के कतिपय
नचनियां-बजनियां कलाकार (जिन्हें ‘कालाकार’ कहना ज्यादा उचित है) भी
सहभागी बने रहे , जो कला की आजादी व आजादी की अभिव्यक्ति के नाम पर
हिन्दू-आस्थाओं व देवी-देवताओं का मखौल उडाते रहे और गोमांस भक्षण को
जायज ठहराते रहे , तब भी यह सहिष्णु समाज उन्हें सिर-आंखों पर उठाये रखा
। ऐसे उल-जुलूल कामों के लिए इन्हें पद्मश्री व पद्मभूषण से
पुरस्कृत-सम्मानित भी किया जाता रहा ; उस कांग्रेसी सरकार के द्वारा ,
जिसके नेताओं ने सत्ता-सुख भोगने मात्र के लिए देश पर ‘इमरजेन्सी’ थोप कर
नागरिकों के सारे मौलिक अधिकार छीन ऐसे-ऐसे कहर बरपाये कि उनकी स्मृतियों
से ही लोगों को आज भी डर लगने लगता है । लेकिन ऐसे तमाम हालातों में जब
आम आदमी आपदग्रस्त होता रहा, तब उन सम्मानितों में से किसी को कभी थोडा
भी कुछ असहज-असहिष्णु ‘डर’ महसूस नहीं हुआ, जिन्हें अब मोदी-भाजपा के
सत्तासीन होने के बाद से देश का माहौल बिगडा हुआ डरावना प्रतीत हो रहा है
। तब ये तमाम लोग  लोकतन्त्र के हत्यारों एवं उपरोक्त कश्मीरी आतंकियों
तथा गोधरा-काण्ड के जिहादियों की काली-खुनी करतूतों को सफेद चमक देने में
लगे हुए थे ।  इतना ही नहीं, केन्द्रीय सत्ता से कांग्रेस के बेदखल हो
जाने पर देश में असहिष्णुता की मात्रा को माप-तौल कर इसे बढा हुआ बताने
वाले ये बुद्धि-बहादुर लोग तब के ‘सहिष्णु दिनों’ में खुनी आतंकियों की
अदालती सजा को राष्ट्रपति से माफ कराने के बावत हस्ताक्षर अभियान चला कर
जनता को सुख-शान्ति व निर्भयता का थोथा अहसास कराते रहे थे ।
        भारत के गौरवशाली इतिहास में अभारतीय कूडा-कचडा ठूंसते रहने वाली
तथाकथित इतिहासकार- रोमिला थापर , तथा “काशी से नरेन्द्र मोदी चुनाव
जीतेंगे तो काशी हार जाएगी” ऐसा बयान देने वाले दुर्दान्त साहित्यकार-
काशीनाथ सिंह और “मोदी प्रधानमंत्री बनेंगे तो देश छोड कर विदेश चला
जाउंगा” ऐसी शपथ से पीछे हट कर अब तक देश में ही मुंह छिपाये फिर रहे-
कन्नड लेखक आनन्दमूर्ति एवं पुरस्कार वापसी खेल के दंगलबाज अशोक बाजपेयी,
नयनतारा सहगल,   मुनव्वर राणा व उदयप्रकाश आदि असहिष्णुता-विशेषज्ञों से
युक्त इस ‘कालाकार-गिरोह’ के किसी नशिरुद्दीन शाह को भी देश के माहौल से
अब डर लगने लगा है , तो इसका मतलब कि कला के नाम पर ‘काला-कर्म’ करते
रहने वाले सम्मानितों का ‘सफेद-आतंक’ अभी भी जारी है । बीते चार वर्षों
में एक भी आतंकी विस्फोट व साम्प्रदायिक दंगा नहीं होने तथा जिहादियों के
हिंसक मंसुबों पर पानी फिरने लगने और देश की सीमा-सुरक्षा चौकस हो जाने
एवं घोटालों के दिन लद जाने से आम जनता जब सुकून महसूस कर रही है , तब
ऐसे में यह सहज ही समझा जा सकता है कि फिल्मी दुनिया के इस मायावी शख्स
का ‘डर’ वास्तविक नहीं,  प्रायोजित है ; जिसका उद्देश्य मोदी-भाजपा के
विरुद्ध जनता को बरगलाना है ।
•       मनोज ज्वाला ;

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here