बंदूक का जवाब बंदूक से या फिर संवाद का रास्ता जरूरी

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-रमेश पाण्डेय- naxals
बस्तर के जिस इलाके में सुरक्षा बलों का खून बहा है। वह इलाका सभ्यता, संस्कृति और लोकतंत्र की साख का अनूठा संगम रहा है। यहां की प्राकृतिक सुंदरता बरबस मन मोह लेती है। इतिहास पर नजर डाले तो वीर हनुमान भी इसी धरती ने दिया। किष्किन्धा राज्य के इसी क्षेत्र में होने के प्रमाण मिलते हैं। बस्तर को ही दंडकारण्य कहा जाता है। किष्किन्धा राज्य दंडकारण्य की ही सीमा में स्थित था। भगवान राम के वनवास काल का दस वर्ष से अधिक का समय यहीं के जंगलों में गुजरा। धार्मिक ग्रंथों में जिस साल वन, पिप्लिका वन, मधुवन, केसरी वन, मतंग वन, आम्रवन आदि का वर्णन मिलता है। वह बस्तर के भी प्रमुख पादप, वृक्ष और वन समूह हैं। भगवान राम ने गोदावरी नदी के पास जिस पंचवटी में वनवास काल बिताया और जहां से माता सीता का रावण द्वारा हरण किया गया, वह स्थान भी इसी क्षेत्र में है। राम विन्ध्य को पार करके दंडकारण्य आए थे। उन दिनों यह क्षेत्र सभ्यता का बड़ा केन्द्र हुआ करता था। अगस्त्य, सुतीक्ष्ण, शबरी, शम्बूक, माण्डकर्णि, शरभंग आदि ऋषियों-मुनियों की यह कर्मस्थली रही है। जगदलपुर से सुकमा जाने वाली सड़क पर पेड़-पहाड़, झरने-नदी क्या नहीं हैं। यहां कांगेर घाटी जैसी दुनिया की अनूठी प्रागैतिहासिक काल की लाइम-केव है। पर अगर कुछ नहीं है, तो वह है शांति। हर पल बंदूकों की तड़तड़ाहट और बूटों की आवाज से यह इलाका थर्रा रहा है। यह आवाज चाहे सुरक्षा बलों की हो या फिर आतंक का पर्याय बन रहे नक्सलियों की। इसी का परिणाम है कि यहां की लोक बोलियां धीरे-धीरे लुप्त हो रही हैं। धुरबी बोलने वाले हल्बीवालों के इलाकों में बस गए हैं। उनके संस्कार, लोक-रंग, बोली सब कुछ उनके अनुरूप हो रहे हैं। इस अकल्पनीय नुकसान के लिए जिम्मेदार कौन है? इस पर स्थानीय लोगों के साथ ही जिम्मेदार अधिकारियों, नेताओं और समाज के पहरुओं को एकाग्रता से मंथन करना होगा। नक्सलियों का अपना खुफिया तंत्र सटीक है। खीझे सुरक्षा बलों की कार्रवाई में स्थानीय निरीह आदिवासी ही शिकार बनते हैं और यही नक्सलियों के लिए मजबूती का आधार है। अभी मार्च के पहले हफ्ते में समाचार पत्रों और न्यूज चौनलों में यह बात सुर्खियों में रही कि गीदम से झीरम के बीच नक्सलियों की गतिविधियां दिख रही हैं। केंद्रीय गृह मंत्रलय ने भी नक्सली हिंसा की आशंका जताते हुए चेतावनी दी थी और सुरक्षा बलों को अलर्ट किया था। 10 मार्च तक सुरक्षा बलों द्वारा नक्सलियों के खिलाफ अलर्ट अभियान चलाया गया। जैसे ही इस अभियान की अवधि पूरी हुई, 11 मार्च को नक्सलियों ने हमला बोल दिया। ऐसे में सवाल उठना लाजमी है कि अलर्ट अभियान के बाद भी नक्सलियों की गतिविधि की भनक तक नहीं लग सकी। आखिर ऐसा क्यों? 11 मार्च को सुबह साढ़े आठ बजे तोंगपाल थाने से सीआरपीएफ और जिला पुलिस का एक दस्ता निकलता है और महज चार किमी आगे ही उन पर हमला हो जाता है। करीब तीन सौ नक्सली मुख्य सड़क से कुछ दूरी पर घात लगाये बैठे थे। जिस तरह से नक्सलियों ने खेत की मेड़ पर कब्जा कर विस्फोटक लगाया था और पीछे आ रही पार्टी को भी रोक लिया था, साफ है कि सीआरपीएफ की टुकड़ी के थाने से निकलने के पल-पल की खबर उन्हें मिल रही थी। 2009 में हुए राजनांदगांव हमले के बाद नक्सलियों का यह 14वां हमला है। केंद्रीय गृह मंत्रलय की 2006 की आंतरिक सुरक्षा की स्थितिह्ण रिपोर्ट में स्पष्ट बताया गया था कि देश का कोई भी हिस्सा नक्सल गतिविधियों से अछूता नहीं है। सरकार ने उस रिपोर्ट में स्वीकारा था कि देश के दो-तिहाई हिस्से पर नक्सलियों की पकड़ है। गुजरात, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर में भी कुछ गतिविधियां नजर आयी हैं। दो प्रमुख औद्योगिक क्षेत्रों भिलाई-रांची-धनबाद-कोलकाता और मुंबई-पुणे-सूरत-अहमदाबादह्ण में इन दिनों नक्सली लोगों को जागरूक करने का अभियान चलाया जा रहा है। एक तरफ सरकारी लूट व जंगल में घुस कर उस पर कब्जा करने की बेताबी है, तो दूसरी ओर आदिवासी क्षेत्रों के संरक्षण का भरम पाले खून बहाने पर बेताब नक्सलीगण। बीच में फंसी है सभ्यता, संस्कृति और लोकतंत्र की साख। नक्सल आंदोलन के जवाब में सलवा जुडूम का स्वरूप कितना बदरंग हुआ था। यह सबके सामने है। बंदूकों से अपनों का खून तो बहाया जा सकता है, पर देश नहीं बनाया जा सकता। बंदूकों को नीचे करें, समस्या की जड़ में जाकर उसे हल करने की कोशिश करें। वरना सुकमा की दरभा घाटी या बीजापुर के आर्सपेटा में खून इसी तरह बहता रहेगा। उन खुफिया अफसरों, वरिष्ठ अधिकारियों की जिम्मेवारी भी तय करने की जरूरत है, जिनकी लापरवाही के चलते एक ग्रामीण और 15 सुरक्षाकर्मी बेवजह मारे गए। यह हमला हमारी सुरक्षा व्यवस्था व लोकतांत्रिक प्रक्रिया में आई कमी को दूर करने की चेतावनी भी है। दंडकारण्य में फैलती बारूद की गंध नीति-निर्धारकों के लिए सोचने का अवसर है कि नक्सलवाद को खत्म करने के लिए बंदूक का जवाब बंदूक से देना ही एकमात्र विकल्प है या फिर संवाद का रास्ता खोजना जरूरी है। आदिवासी क्षेत्रों की प्राकृतिक संपदा पर कब्जा जताने को आतुर पूंजीवादी घरानों का समर्थन करने वाला तंत्र 1996 में संसद द्वारा पारित आदिवासी क्षेत्रों के लिए विशेष पंचायत कानून (पेसा अधिनियम) को लागू करना तो दूर, उसे भूल ही चुका है। इसके तहत ग्राम पंचायत को अपने क्षेत्र की जमीन के प्रबंधन व रक्षा करने का पूरा अधिकार था। इसी तरह परंपरागत आदिवासी अधिनियम, 2006 को संसद से तो पारित करवा दिया, पर उसका लाभ दंडकारण्य के रहवासियों को नहीं मिल सका। कारण, वह बड़े धरानों के हितों के विपरीत है। यह सही समय है उन अधिनियमों के क्रियान्वयन पर विचार करने का, लेकिन हम बात कर रहे हैं कि उन क्षेत्रों में कैसे बजट कम किया जाए, क्योंकि उसका बड़ा हिस्सा नक्सली वसूल रहे हैं। सरकारी तंत्र के साथ ही सामाजिक और लोकतंत्र के प्रतिनिधियों को भी इस समस्या का समाधान किए जाने के लिए नए सिरे से पहल करनी होगी और सभ्यता, संस्कृति के साथ लोकतंत्र की साख बचाने के लिए रास्ते से भटक चुके नक्सलियों को समझाना होगा।

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