जेड प्लस’ जैसी अच्छी फिल्मों का बुरा दौर

0
198

जावेद अनीस

 बॉक्स ऑफिस पर ‘जेड प्लस’ का कारोबार ठंडा रहा है, डा. चंद्रप्रकाश द्वेदी की इस फिल्म को समीक्षकों द्वारा बहुत सराहना मिली लेकिन इस फिल्म ने अपने शुरुआती तीन दिनों में महज 40 लाख का कारोबार किया है जो की हैरान करने वाला है। हैरान तो इसी साल जून में रिलीज हुई साजिद खान की फिल्म ‘हमशकल्स’ ने भी किया था, इस फिल्म को समीक्षकों और सुधी दर्शकों द्वारा फिल्म के नाम पर अत्याचार बताया गया था लेकिन इसने सारी आलोचनाओं को धता बताते हुए अपने रिलीज के मात्र पांचवें दिन 50 करोड़ के आंकड़े को पार कर लिया था।

हालाँकि यह हैरानी का सिलसला नया नहीं हैं, पिछले कुछ सालों से स्टार पॉवर और जबरदस्त प्रचार के बल पर एक खास मिजाज की फिल्में सफलता का झंडा गाड़ रही हैं और इस तथाकथित सफलता का एकमात्र पैमाना फिल्म की कमाई है। कमाई के क्लब बना दिए गये हैं इस क्लब के एंट्री पॉइंट कम से कम सौ करोड़ है।

फिल्म मेकिंग जैसे क्रिएटिव काम को पूँजी का कैदी बना दिया गया है, देखकर हैरानी होती है कि हमारे महान फिल्मकार हिट फार्मूला ढूंढ़ते रहते हैं और अगर कोई फार्मूला सफल हो जाए तो सभी बड़े दिग्गज लकीर के फकीर के तर्ज पर उसी फार्मूले पर अपना दावं लगाना पसंद करते हैं और इस फार्मूले को एक सुर में तब तक रगेंदा जाता जब तक बेचारा दर्शक थक हार कर हाथ न खड़े कर दे।

ऐसे बंद माहौल में कभी–कभार “जेड प्लस” जैसी फिल्में भी सामने आ जाती हैं जो अच्छा सिनेमा होने के साथ–साथ क्लास और मासेस दोनों को समझ में आती हैं, ऐसी फिल्में सिनेमा पर खोए विश्वास के बहाली का प्रयास भी होती हैं। लेकिन ऐसी फिल्मों की ट्रेजडी यह है कि इन्हें तारीफ और अवार्ड तो खूब मिलते है लेकिन उतने दर्शक नहीं मिल पाते जो इन्हें मुनाफे का सौदा भी बना सकें।

हमारी फिल्म इंडस्ट्री में राजनीति को विषय बनाने से परहेज किया जाता है, इंडस्ट्री शायद देश के उन चुनिन्दा संस्थानों में से है जो इस हद तक गैर-राजनीतिक है। नतीजे के तौर पर हमारी फिल्में इस काबिल ही नहीं होती हैं कि वे कोई सियासी स्टैंड ले सकें।

जेड प्लस इस दौर के आम मसाला फिल्मों से विद्रोह है, यह एक “कॉमेडी” फिल्‍म है जो हमारे दौर के राजनीति और लोकतांत्रिक हलचलों पर एक व्यंग्य करती है, इस फिल्म के निर्देशक चंद्रप्रकाश द्वेदी हैं जो इससे पहले ‘पिंजर’ और ‘आषाढ़ का एक दिन’ जैसी फिल्मों और स्मॉल स्क्रीन पर ‘चाणक्य’ जैसे सीरियल से अपना कमाल दिखा चुके हैं,इस फिल्म में कोई स्टार नहीं है, इसमें आदिल हुसैन, मुकेश तिवारी, संजय मिश्रा, कुलभूषण खरबंदा और मोना सिंह जैसे कलाकारों ने किरदार निभाया है। इसके पात्र वास्तविक और आम जीवन से जुड़े हुए और हम में से ही लगते हैं। राजस्थान की लोकेशन में फिल्माई गयी इस फिल्म की सबसे खास बात यह है कि इसमें एक कहानी है और इसके लेखक हिंदी के लेखक और पत्रकार रामकुमार हैं।

“जेड प्लस” किस्मत के सांड आम आदमी की कहानी है, इसकी कहानी कुछ यूं है राजस्थान के छोटे से कस्बे फतेहपुर पीपल वाले पीर की दरगाह के लिए मशहूर है। दरगाह के पास असलम (आदिल हुसैन) की एक पंचर लगाने की डे – नाईट दुकान है। असलम की बीवी हमीदा (मोना सिंह) पास ही में राजस्थानी जूतियों की दुकान चलाती है। दोनों का एक बच्चा है। देश के प्रधानमंत्री (कुलभूषण खरबंदा) की कोलेशन सरकार खतरे में आ जाती है। सारे उपाय आजमा लेने के बाद भी जब खतरा नहीं टालता है तो प्रधानमंत्री को उनके एक सहयोगी सलाह देते हैं कि वे पीपल वाले पीर की दरगाह पर जाकर चादर चढ़ायें। हैरान–परेशान वजीरे आज़म यह नुस्खा भी आजमाने का फैसला ले लेते हैं। दरगाह में प्रधानमंत्री के आने की खबर आने के बाद सारा प्रशासन हरकत में आ जाता है। किस्मत की बात, जिस दिन दरगाह में प्रधानमंत्री को चादर चढ़ाने के लिए आने का कार्यक्रम होता है, उस दिन दरगाह में खादिम की जिम्मेदारी असलम पंक्चर वाले की होती है। जियारत के बाद प्रधानमंत्री असलम से खुश होकर उसे कुछ मांगने के लिए कहते हैं। आम आदमी की समस्या और ख्वाहिश भी बहुत आम होती हैं, नतीजतन असलम, जो अपने पड़ोसी हबीब (मुकेश तिवारी) का “रकीब” है और उसकी हरकतों से परेशान रहता है, उससे निजात पाने की गुहार लगा देता है। भाषा की समस्या के कारण प्रधानमंत्री “पड़ोसी हबीब” को “पड़ोसी पाकिस्तान” समझ लेते हैं इन्हीं गलतफहमियों के बीच पीएम साहेब असलम को जेड प्लस सिक्यॉरिटी मुहैया कराने का तोहफा दे जाते हैं। पीएम के इस तोहफे से असलम पंक्चर वाले और उसके परिवार का जीना मुहाल हो जाता है। इसी जेड प्लस सिक्यॉरिटी के चलते उसका खाना, हगना और अपनी माशूका सईदा से मिलना दूभर हो जाता है, यही नहीं उसका पंक्चर लगाने का धंधा भी मंदा हो जाता है। दूसरी तरफ राजनीति के धुरंधर उसे अपनी शतरंजी चालों का मोहरा भी बनाते हैं।

सभी कलाकारों का अभिनय उम्दा है, आदिल हसन असलम के रूप में असलम पंचरवाला ही लगे हैं,मोना सिंह, मुकेश तिवारी और संजय मिश्रा अपने किरदारों में बेहतरीन रहे हैं।

अगर सिनेमा का मूल मकसद ‘मनोरंजन’ है तो “जेड प्लस” यह काम बखूबी करती हैं, खास बात यह है कि यह मनोरंजन अर्थहीन भी नहीं है। जेड प्लस वास्तविकता के करीब लगती है, इसमें राजनीति को लेकर व्यंग्य तो है, लेकिन इसमें राजनीति को बुरा नहीं दिखाया गया है। इसमें एक पंचरवाले असलम के माध्यम से समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़े आम आदमी के जीवन को छूने कोशिश की गयी है। फिल्म की कई परतें हैं जिन्हें व्यंग्य के माध्यम से खोलने की कोशिश की गयी है, यह परत खुलते हैं तो कामेडी और ट्रेजडी में फर्क भी मुश्किल हो जाता है, यह हमें अपने ट्रेजडी पर ही हँसाती है। फिल्म में जब प्रधानमंत्री अपनी सरकार को बचाने के लिए पीपल वाले पीर के शरण में पहुँचते हैं तो हमें हमारी “शिक्षा मंत्री स्‍मृति ईरानी” द्वारा एक ज्योतिष से हाथ दिखाने की दास्तान भी याद आती है। इसी तरह से फिल्म देखते हुए “प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पत्नी जसोदा बेन” का वह प्रकरण भी याद आ जाता है जिसमें उन्होंने एक आरटीआई दाखिल करते हुए अपनी सुरक्षा कवर  को लेकर जानकारी मांगी है और पूछा है कि ‘क्या वह इसकी हकदार हैं?’ उनका कहना है कि वे सुरक्षाकर्मियों के खाने और चाय आदि का खर्च वहन नहीं कर पा रही हैं। सुरक्षाकर्मी हर जगह उनके साथ जाते हैं। इसके लिए सुरक्षाकर्मीयों को बेहद कम भत्ता मिलता है। भत्ता कम मिलने के कारण सुरक्षा में तैनात गार्ड्स उनसे ही चाय-नाश्ते की मांग करते हैं।

इस फिल्म के प्रमुख किरदार मुस्लिम है लेकिन उन्हें अजूबा नहीं दिखाया गया है जैसा की आम तौर पर दूसरी फिल्मों में होता है, यह सभी किरदार आम जिंदगी जीते हुए स्वभाविक लगते हैं और समाज के बाकी हिस्सों से इनका सम्बन्ध भी बहुत नार्मल और असलियत के करीब है। और हाँ फिल्म में हिंदूवादी,सेकुलर और माइनॉरिटी पॉलिटिक्स पर भी अच्छा खासा व्यंग्य है ।

यह सही है कि आजकल डिस्ट्रीब्यूटर्स के हाथों में इस बात की चाबी है कि हम दर्शक कौन सी फिल्म देंखेगे और कौन सी नहीं, वही तय करते है कि किस फिल्म को कितना स्क्रीन स्पेस मिलेगा और यह सब कुछ फिल्म की गुणवत्ता देख कर तय नहीं होता है बल्कि इसका आधार फिल्म का स्टार कास्ट, बैनर और बजट होता है लेकिन एक और कडवी सच्चाई है, जेड प्लस जैसी फिल्मों को पर्याप्त दर्शक नहीं मिल पाते हैं और एक तरह से दर्शकों की उदासीनता साफ नज़र आती है तो क्या यह मान लिया जाए कि हमारे फिल्म दर्शकों की समझदारी और टेस्ट उतनी पुख्ता नहीं हुई है कि वह “जेड प्लस” जैसी फिल्मों की हौसला अफजाई कर सके। राजनीति में एक कहावत है की जनता की चेतना जैसी होती है उसी हिसाब से वह अपना नेता भी चुनती है . क्या फिल्मों के बारे में भी यह कहावत लागु होता है ?

 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

12,768 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress