राजनीति

लोकतंत्र की छाती पर सवार अफरसरशाही

-गिरीश पंकज

देश जब गुलाम था, तब महात्मा गाँधी ने विश्वास जताया था कि आजादी के बाद अपना राज यानी स्वराज्य होगा। लेकिन आजजो हालत है, उसे देख कर कहना पड़ता है, कि अपना राज है कहाँ ? उस लोक का तंत्र कहाँ नजर आता है, जिस लोक ने अपने ही तंत्र की स्थापना की? आज चतुर्दिक अफसरशाही का जाल है। लोकतंत्र की छाती पर सवार यह अफसरशाही हमारे सपनों को चूर-चूर कर रही है। तल्खी के साथ बस यही कहा जा सकता है, कि हम लोग लोकतंत्र का केवल स्वांग कर रहे हैं। राज तो कर रहे हैं, ब्यूरोक्रेट्स। और उनके इशारे पर नाच रहे हैं, हमारे कमजोर और भयंकर रूप से भ्रष्ट बुद्धिहीन जनप्रतिनिधि। जब जनप्रतिनिधि लोलुप होगा, भ्रष्ट होगा, अनपढ़ औरक गँवार होगा,तो स्वाभाविक है, कि वह छली का शिकार होगा। लेकिन जहाँ जनप्रतिनिधि तेज है, लोकतंत्र की अस्मिता की चिंता करने वाला है, वहाँ अफसरशाही की बोलती बंद हो जाती है। इसी देश में लोकतंत्र के दो चेहरे नजर आते हैं। जहाँ जनप्रतिनिधियों का अपना नकारात्मक-सकारात्मक आतंक है वहाँ तो अफसरसीधे रहते हैं, सारे काम करते हैं, मगर जहाँ जनप्रतिनिधि सीधे-साधे हैं, वहाँ ये सिर पर सवार हो जाते हैं।

पिछड़े हुए प्रांतों के जनप्रतिनिधियों की हालत यह है, कि यहाँ बड़े से बड़े मंत्री की फाइल को आइएएस अफसर रोक लेता है। इन के निर्देश को अफसर हाशिये पर डाल देता है और तर्क देता है कि ऐसा नहीं हो सकता। मेरे भी व्यक्तिगत अनुभव है, कि जनप्रतिनिधियों के आदेशों को दरकिनार कर दिया जाता है। लोग बड़े-बड़े मंत्रियों के आदेश लिए घूमते रहते हैं, मगर उनका कोई काम नहीं होता, और जिनके पास कोई कागज नहीं है, वह केवल एक कागज से काम करवा लेता है, उस कागज से जिसमें महात्मा गाँधी जी की तस्वीर छपी होती है। यानी रिश्वत दो और काम करवा लो। इसीलिए आज अधिकांश आइएएस अरबपति पाए जाते हैं।

जहाँ लोकतंत्र कमजोर होता है, वहाँ अफसरतंत्र सिर पर सवार होने लगता है। किसी एक राज्य की बात करना गलत है, लेकिन सुधी पाठक जानते हैं, कि किस राज्य में क्या स्थिति है। सवाल किसी राज्य का नहीं है, एक सिस्टम का है। क्यों नहीं हम ऐसा समाज बना पाए, जहाँ जन प्रतिनिधि ताकतवर इकाई के रूप में उभर कर सामने आ पाता ? पंचायती राज का ढोल पीटा जाता है, लेकिन जनपद अध्यक्षों या जिला पंचायत अद्यक्षों की यही शिकायत रहती है, कि उनके पास कोई काम ही नहीं है। सारा काम तो कलेक्टर ही कर रहा है। या उनके नीचे के अफसर कर रहे हैं। अगर सभी काम अफसर ही करेंगे, तो निर्वाचित प्रतिनिधि क्या करेंगे? तमाशा देखेंगे? स्थानीय निकायों में अफसर बैठे रहते हैं, वे अपनी चलाते हैं। दरअसल उनको घुट्टी ही इस बात की पिलाई जाती है, कि लोकतंत्र तो नाम का है, असली तंत्र तो तुम्हें चलाना है, क्योंकि जनप्रतिनिधि तो कीड़े-मकोड़े हैं, इनको पद पाकर इतराने दो। तुम काम करो। देश चलाओ। तुम खाओ-पीयो मोज करो। जनप्रतिनिधयों को घुमाते रहो। मूर्ख बनाते रहो। नियम-कायदे दिखा कर चुप बैठो और खुद बेकायदे के काम करते रहो।

पिछले दिनों मैंने एक अखबार में पढ़ा कि जिला पंचायत अध्यक्ष ने दुखी हो कर कहा कि अगर हमें कोई अधिकार ही नहीं है,तो आखिर चुनाव होते ही क्यों हैं? अगर सारा काम कलेक्टर देखेगा, तो हम किसलिए बैठे हैं? बिल्कुल सही बात की जिला पंचायत अध्यक्ष ने। यह एक व्यक्ति की पीड़ा नहीं है, यह इस समय का दर्द है। पंचायती राज का यही असली चेहरा भी है। जिसे दुर्भाग्य से हमीं सब ने गढ़ा है। नगरपालिका में अध्यक्ष या महापौर के कार्यों को रोकने वाले प्रशासकीय अधिकारी ही होते हैं। धीरे-धीरे आइएएस अधिकारियों की आबादी बढ़ती जा रही है। इन्हें कहीं न कहीं फिट करना ही है। बस बिठा दिया जाता है, स्थानीय निकायों में। प्रशिक्षु हैं। ले रहे हैं प्रशिक्षण मगर बन रहा है तनाव। आइएएस मतलब तना हुआ एक पुतला। इसमें अधिकारों की अंतहीन हवा जो भरी है। हमारे लोगों ने ही इस पुतले को ताकतवर बना दिया है। वे इतने गुरूर में होते हैं, कि मत पूछिए। वे ऐसा करने का साहस केवल इसलिए कर पाते हैं, कि उनके पास अधिकार हैं। जिन्हें हमारे ही विकलांग-से लोकतंत्र ने दिया है। वरना क्या मजाल कि कि जनप्रतिनिधियों के निर्देशों की ये अवहेलना करें। हिम्मत ही नहीं होनी चाहिए। लोकतंत्र की वोताकत है। लेकिन जहाँ कमजोर आरामतलब, आलसी, कामजोर चौकीदार होगा, वहाँ चोरी हो कर रहेगी। दरअसल गलती शुरू से ही हुई। हमारे संविधान निर्माताओं ने ही हमें विकलांग बना दिया। बहुत से ऐसे जनप्रतिनिधि भी दोषी है,जिन्होंने अफसरशाही को मजबूत करने में अपनी अहम् भूमिका निभाई।

अब समय आ गया है,कि लोकतंत्र में दिखने वाले विभिन्न छेदों की हम फिर से पड़ताल करें और कानून में संशोधन करके अपने जनप्रतिनिधियों को मजबूत करें। और यह बात भी है, कि जनपतिनिधियों को बहुत-से अधिकार मिले हुए हैं, मगर उनमें उसके उपयोग का माद्दा भी तो हो। उनके स्वर में नैतिकता का बल भी तो हो। अधिकारों के लिए लडऩे का साहस हो, एक जुटता हो। पक्ष-विपक्ष की राजनीति में बँटी ताकतें मिल-जुल कर अफसरशाही से लड़ ही नहीं पाती। उसका पूरा लाभ अफसर उठाते हैं। चुनाव तक सारा संघर्ष होना चाहिए, उसके बाद सबको मिल कर तंत्र पर लगाम कसनी चाहिए। वरना होगा यही कि एक नकली और अपाहिज लोकतंत्र में हम खुशफहमी में ही जिंदगी बिता देंगे। हम एक ऐसी लगाम थामे हुए हैं, जिसमें कोई घोड़ा नहीं बँधा है। हम सवारी किसकी कर रहे हैं? दरअसल हम खुद जुते हुए हैं। अफसरशाही हमें दौड़ा रही है। इसलिए अब समय आ गया है,कि हम आत्ममंथन करें और लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए अफसरतंत्र को कमजोर करें। कानून बनाएँ, उनमें संशोधन करें। बस एक आडंबर भर नज़र आएगा और चुने हुए जन प्रतिनिधि को दुखी हो कर कहना पड़ेगा,कि अगर हमारे पास अधिकार ही नहीं है, है तो चुनाव का नाटक क्यों। ठीक बात है। करोड़ों खर्च करने का मतलब भी नहीं। हर जगह कलेक्टर, सीईओ बिठा दीजिए। वही देश चलाएँ। निर्देश दें। घोटालें करें। डंडे चलाएँ। सिर फोड़े। और हमारे नेता बैठे-बैठे कुरसियाँ तोड़ें। लोकतंत्र इसे नहीं कहते। लोकतंत्र में लोक ही सबसे बड़ा होता है। अफसर केवल हाथ बाँद कर खड़ा रहे और हमारे निर्देशों को पालन करे। वह नौकर है। उसे अपनी हैसियत पहचाननी है। लेकिन अपने देश में इस नौकर के साथ हमने ही जब शाह जोड़ दिया है। जब उसे नौकरशाह बना दिया है तो वह शाही बनेगा ही। इसलिए वक्त की मांग यही है,कि हम लोकतंत्र को मजबूत करते हुए अफसरतंत्र को कमजोर करें। तभी सही अर्थों में लोक स्वराज्य या ग्राम स्वराज्य लौटेगा। मैंने कभी लिखा था-”लोकतंत्र शर्मिंदा, अफसरशाही ज़िंदा है”। लोकतंत्र उस वक्त तक शर्मसार होता रहेगा, दुखी होता रहेगा, जब तक अफरसरशाही अपना नंगा नाच करती रहेगी। उसके नंगे नाच को हम लोग ही बंद कर सकते हैं। हम लोग मतलब हमारी विधान सभाएँ, हमारी संसद।