लोकतंत्र की छाती पर सवार अफरसरशाही

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-गिरीश पंकज

देश जब गुलाम था, तब महात्मा गाँधी ने विश्वास जताया था कि आजादी के बाद अपना राज यानी स्वराज्य होगा। लेकिन आजजो हालत है, उसे देख कर कहना पड़ता है, कि अपना राज है कहाँ ? उस लोक का तंत्र कहाँ नजर आता है, जिस लोक ने अपने ही तंत्र की स्थापना की? आज चतुर्दिक अफसरशाही का जाल है। लोकतंत्र की छाती पर सवार यह अफसरशाही हमारे सपनों को चूर-चूर कर रही है। तल्खी के साथ बस यही कहा जा सकता है, कि हम लोग लोकतंत्र का केवल स्वांग कर रहे हैं। राज तो कर रहे हैं, ब्यूरोक्रेट्स। और उनके इशारे पर नाच रहे हैं, हमारे कमजोर और भयंकर रूप से भ्रष्ट बुद्धिहीन जनप्रतिनिधि। जब जनप्रतिनिधि लोलुप होगा, भ्रष्ट होगा, अनपढ़ औरक गँवार होगा,तो स्वाभाविक है, कि वह छली का शिकार होगा। लेकिन जहाँ जनप्रतिनिधि तेज है, लोकतंत्र की अस्मिता की चिंता करने वाला है, वहाँ अफसरशाही की बोलती बंद हो जाती है। इसी देश में लोकतंत्र के दो चेहरे नजर आते हैं। जहाँ जनप्रतिनिधियों का अपना नकारात्मक-सकारात्मक आतंक है वहाँ तो अफसरसीधे रहते हैं, सारे काम करते हैं, मगर जहाँ जनप्रतिनिधि सीधे-साधे हैं, वहाँ ये सिर पर सवार हो जाते हैं।

पिछड़े हुए प्रांतों के जनप्रतिनिधियों की हालत यह है, कि यहाँ बड़े से बड़े मंत्री की फाइल को आइएएस अफसर रोक लेता है। इन के निर्देश को अफसर हाशिये पर डाल देता है और तर्क देता है कि ऐसा नहीं हो सकता। मेरे भी व्यक्तिगत अनुभव है, कि जनप्रतिनिधियों के आदेशों को दरकिनार कर दिया जाता है। लोग बड़े-बड़े मंत्रियों के आदेश लिए घूमते रहते हैं, मगर उनका कोई काम नहीं होता, और जिनके पास कोई कागज नहीं है, वह केवल एक कागज से काम करवा लेता है, उस कागज से जिसमें महात्मा गाँधी जी की तस्वीर छपी होती है। यानी रिश्वत दो और काम करवा लो। इसीलिए आज अधिकांश आइएएस अरबपति पाए जाते हैं।

जहाँ लोकतंत्र कमजोर होता है, वहाँ अफसरतंत्र सिर पर सवार होने लगता है। किसी एक राज्य की बात करना गलत है, लेकिन सुधी पाठक जानते हैं, कि किस राज्य में क्या स्थिति है। सवाल किसी राज्य का नहीं है, एक सिस्टम का है। क्यों नहीं हम ऐसा समाज बना पाए, जहाँ जन प्रतिनिधि ताकतवर इकाई के रूप में उभर कर सामने आ पाता ? पंचायती राज का ढोल पीटा जाता है, लेकिन जनपद अध्यक्षों या जिला पंचायत अद्यक्षों की यही शिकायत रहती है, कि उनके पास कोई काम ही नहीं है। सारा काम तो कलेक्टर ही कर रहा है। या उनके नीचे के अफसर कर रहे हैं। अगर सभी काम अफसर ही करेंगे, तो निर्वाचित प्रतिनिधि क्या करेंगे? तमाशा देखेंगे? स्थानीय निकायों में अफसर बैठे रहते हैं, वे अपनी चलाते हैं। दरअसल उनको घुट्टी ही इस बात की पिलाई जाती है, कि लोकतंत्र तो नाम का है, असली तंत्र तो तुम्हें चलाना है, क्योंकि जनप्रतिनिधि तो कीड़े-मकोड़े हैं, इनको पद पाकर इतराने दो। तुम काम करो। देश चलाओ। तुम खाओ-पीयो मोज करो। जनप्रतिनिधयों को घुमाते रहो। मूर्ख बनाते रहो। नियम-कायदे दिखा कर चुप बैठो और खुद बेकायदे के काम करते रहो।

पिछले दिनों मैंने एक अखबार में पढ़ा कि जिला पंचायत अध्यक्ष ने दुखी हो कर कहा कि अगर हमें कोई अधिकार ही नहीं है,तो आखिर चुनाव होते ही क्यों हैं? अगर सारा काम कलेक्टर देखेगा, तो हम किसलिए बैठे हैं? बिल्कुल सही बात की जिला पंचायत अध्यक्ष ने। यह एक व्यक्ति की पीड़ा नहीं है, यह इस समय का दर्द है। पंचायती राज का यही असली चेहरा भी है। जिसे दुर्भाग्य से हमीं सब ने गढ़ा है। नगरपालिका में अध्यक्ष या महापौर के कार्यों को रोकने वाले प्रशासकीय अधिकारी ही होते हैं। धीरे-धीरे आइएएस अधिकारियों की आबादी बढ़ती जा रही है। इन्हें कहीं न कहीं फिट करना ही है। बस बिठा दिया जाता है, स्थानीय निकायों में। प्रशिक्षु हैं। ले रहे हैं प्रशिक्षण मगर बन रहा है तनाव। आइएएस मतलब तना हुआ एक पुतला। इसमें अधिकारों की अंतहीन हवा जो भरी है। हमारे लोगों ने ही इस पुतले को ताकतवर बना दिया है। वे इतने गुरूर में होते हैं, कि मत पूछिए। वे ऐसा करने का साहस केवल इसलिए कर पाते हैं, कि उनके पास अधिकार हैं। जिन्हें हमारे ही विकलांग-से लोकतंत्र ने दिया है। वरना क्या मजाल कि कि जनप्रतिनिधियों के निर्देशों की ये अवहेलना करें। हिम्मत ही नहीं होनी चाहिए। लोकतंत्र की वोताकत है। लेकिन जहाँ कमजोर आरामतलब, आलसी, कामजोर चौकीदार होगा, वहाँ चोरी हो कर रहेगी। दरअसल गलती शुरू से ही हुई। हमारे संविधान निर्माताओं ने ही हमें विकलांग बना दिया। बहुत से ऐसे जनप्रतिनिधि भी दोषी है,जिन्होंने अफसरशाही को मजबूत करने में अपनी अहम् भूमिका निभाई।

अब समय आ गया है,कि लोकतंत्र में दिखने वाले विभिन्न छेदों की हम फिर से पड़ताल करें और कानून में संशोधन करके अपने जनप्रतिनिधियों को मजबूत करें। और यह बात भी है, कि जनपतिनिधियों को बहुत-से अधिकार मिले हुए हैं, मगर उनमें उसके उपयोग का माद्दा भी तो हो। उनके स्वर में नैतिकता का बल भी तो हो। अधिकारों के लिए लडऩे का साहस हो, एक जुटता हो। पक्ष-विपक्ष की राजनीति में बँटी ताकतें मिल-जुल कर अफसरशाही से लड़ ही नहीं पाती। उसका पूरा लाभ अफसर उठाते हैं। चुनाव तक सारा संघर्ष होना चाहिए, उसके बाद सबको मिल कर तंत्र पर लगाम कसनी चाहिए। वरना होगा यही कि एक नकली और अपाहिज लोकतंत्र में हम खुशफहमी में ही जिंदगी बिता देंगे। हम एक ऐसी लगाम थामे हुए हैं, जिसमें कोई घोड़ा नहीं बँधा है। हम सवारी किसकी कर रहे हैं? दरअसल हम खुद जुते हुए हैं। अफसरशाही हमें दौड़ा रही है। इसलिए अब समय आ गया है,कि हम आत्ममंथन करें और लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए अफसरतंत्र को कमजोर करें। कानून बनाएँ, उनमें संशोधन करें। बस एक आडंबर भर नज़र आएगा और चुने हुए जन प्रतिनिधि को दुखी हो कर कहना पड़ेगा,कि अगर हमारे पास अधिकार ही नहीं है, है तो चुनाव का नाटक क्यों। ठीक बात है। करोड़ों खर्च करने का मतलब भी नहीं। हर जगह कलेक्टर, सीईओ बिठा दीजिए। वही देश चलाएँ। निर्देश दें। घोटालें करें। डंडे चलाएँ। सिर फोड़े। और हमारे नेता बैठे-बैठे कुरसियाँ तोड़ें। लोकतंत्र इसे नहीं कहते। लोकतंत्र में लोक ही सबसे बड़ा होता है। अफसर केवल हाथ बाँद कर खड़ा रहे और हमारे निर्देशों को पालन करे। वह नौकर है। उसे अपनी हैसियत पहचाननी है। लेकिन अपने देश में इस नौकर के साथ हमने ही जब शाह जोड़ दिया है। जब उसे नौकरशाह बना दिया है तो वह शाही बनेगा ही। इसलिए वक्त की मांग यही है,कि हम लोकतंत्र को मजबूत करते हुए अफसरतंत्र को कमजोर करें। तभी सही अर्थों में लोक स्वराज्य या ग्राम स्वराज्य लौटेगा। मैंने कभी लिखा था-”लोकतंत्र शर्मिंदा, अफसरशाही ज़िंदा है”। लोकतंत्र उस वक्त तक शर्मसार होता रहेगा, दुखी होता रहेगा, जब तक अफरसरशाही अपना नंगा नाच करती रहेगी। उसके नंगे नाच को हम लोग ही बंद कर सकते हैं। हम लोग मतलब हमारी विधान सभाएँ, हमारी संसद।

5 COMMENTS

  1. लोकतंत्र और अफसरशाही पर आपका लेख पढ़ा .इस विषय पर आपकी चिंता वाजिब है .लोकतंत्र का तकाजा है कि निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को निर्णय लेने तथा उसके क्रियान्वयन की पूरी स्वतंत्रता हो ,लेकिन यह दुर्भाग्य है कि पूरे देश में अफसरशाही हावी है .दरअसल यह बहुत ही गंभीर विषय है इस पर राष्ट्रीय बहस होना चाहिए.
    – – – अशोक बजाज पूर्व जिला पंचायत अध्यक्ष , रायपुर , छत्तीसगढ़

  2. पंकज जी का लेख उनकी समाज के प्रति संवेदनशीलता और पीड़ा की उपज है. संवेदनशीलता के बिना रचना कहाँ होती है, संक्रांति कहाँ होती है. उसके उत्प्रेरक भाई पंकज जी जैसे विचारशील लोग ही बनते हैं.
    भारत के नैतिक पतन के सवाल पर कुछ ख़ास तथ्यों को जान लेना उचित रहेगा. पहली बात तो हमको यह जान लेनी चाहिए कि विश्व में सबसे ऊंचे चरित्र का देश भारत ही रहा है. सारे संसार को सभ्य बनाने के असंख्य प्रयास हमारे पूर्वजों द्वारा किये गए. यह कोई अंधश्रधा की बात नहीं, ऐतिहासिक तथ्य है. टी बी मैकाले ब्रिटिश पार्लियामेंट में दो फ़रवरी, 1835 को स्वयं कहता है कि उसे सरे भारत के बर्मन के बाद एक भी चोर या भिखारी नहीं मिला. यानी केवल 165 साल पहले तक भारत में निर्धनता,बेरोज़गारी और अनैतिकता नाम कि कोई चीज़ नहीं थी. सारा देश सुखी, समृद्ध, स्वावलंबी, स्वाभिमानी और चरित्रवान था. दूसरी महत्वपूर्ण बात मैकाले के कथन से यह समन्झ आती है कि यूरोप आदि देशों में लूट, चोरी, निर्दानता बहुत थी. मैकाले आगे कहता है कि भारतीय इतने च्रितावान,समृद्ध और बुधिमान्हें कि नहीं लगता कि भारत को गुलाम बनाया जासके. इस कथन के बाद कोई संदेह नहीं रह जाता कि भारत के लोग अद्भुत प्रतिभा वाले, अत्यंत चरित्रवान और अत्यधिक धनवान थे. तभी तो मैकाले परेशान होकर ब्रिटेन कि संसद में भारत के बारे में आगे कह रहा है कि भारतीयों कि कमर तोड़ने के लिए इनकी सिक्षा पद्धति को बदलना होगा. उसने यह करके दिखा दिया. आज हम भू चुके हैं कि कभी हम (1835 ) तक भी संसार में सबसे अधिक चरित्रवान ,सबसे सभ्य और संसार में सबसे समृद्ध थे.
    ज्ञातव्य है कि हमारे बारे में दिग्वि लिखता है कि भारत एक एसा गधा है जिसमें चरों और से संसार भर का धन बह कर आरहा है और बाहर जाने का एक भी रास्ता नहीं . एसा होना तो तभी संभव है जब भारत केवल निर्यात ही निर्यात करता हो, आयात कि हमको ज़रुरत ही न रही हो. क्या किसी असभ्य, गंवार , पिछड़े देश के द्वारा यह करना संभव था ? यानी ज्ञान , विज्ञान ,कृषी, कलाओं आदि हर विषय में हम संसार के सिरमौर थे.
    भारत के इस गौरवपूर्ण इतिहास में और जो इतिहास आज हम पढ़ते- पढाते हैं , उसमें इतना आकाश पातळ का अंतर क्यों है ? स्पष्ट है कि अन्र्जों और उनके साथियों ने हमें गुलाम बनाने, हमारे स्वाभिमान को समाप्त करने के लिए बड़ी मनात से जूठा इतिहास लिख कर हम पर तहों दिया.जाते जाते सत्ता ऐसे हाथो में सौंप दी जो आज़ादी के बाद भी अंगे=रेजों के इशारे पर नाचते रहे. आज भारत कि सत्ता जिन हाथों में है वे तो पशिमी ताकतों के और भी बड़े मानसिक दास हैं. ऐसे लोग हैं जिन्हें भारत के अतीत, इतिहास गौरव ,संस्कृति का क,ख, ग भी नहीं आता. ऐसे लोगों द्वारा भारत का भला होने कि आशा भारी नासमझी कि बात है,असंभव को संभव बनाने का- निश्चित असफल होने का प्रयास है .
    सबसे ख़ास बात आजकल के सन्दर्भ में जानने -समझने की यह है कि मैकाले के आधनिक अवतार हमारी हीं ग्रंथी को बढाने का काम नए – नए तरीकों से कर रहे हैं. अनेकों एजेंसियीं और प्रचार माध्यमों से हमारे दिमाग में गहराई और चतुराई से यह बिठाया जा रहा है कि हम सबसे भ्रष्ट, अयोग्य, असंस्कृत और कायर हैं. पर क्या सचमुच ऐसा है भी या नहीं ?
    ध्यान से देखेंगे तो नज़र आयेगा कि आज भी भारत जैसे नैतिक चरित्र वाले स्त्री- पुरुष संसार में कहीं नहीं. अश्लीलता के सुनियोजित प्रयासों के बावजूद आज भी वफादारी निभाने वाले, इमानदारी से परिवार चलाने वाले सबसे अधिक लोग निश्चित रूप से भारत में ही हैं. श्री को केवा भोग्या के रूप में न देखकर उसके देवी रूप कि अर्चना, वन्दना होती है कहीं संसार में ?
    संसार में भारत के इलावा निर्धनों केलिए और कहाँ धर्मार्थ औषधालय-चिकित्सालय, प्याऊ, भोजन के भंडारे चलते हैं ? वे तो पीने के पानी तक का व्यापार कर डालते हैं, वासना को बढ़ावा देकर , लोगों को बीमारयों कि कई में धकेलकर धन कमाने में लगे रहते हैं. आज भी स्वतः प्रेरणा से मानवीय संवेदनाओं ,करुना, दया भवों से परिपूर्ण कोई देश बचा हुआ है तो वह भारत ही है. बस ज़रूरत है कि भारत ही नहीं, विश्व के हित में इस मानवीय चेहरे वाले भारत कि रक्षा पश्चिम की क्रूर धन लोलुप ताकतों से कि जाए.
    एक और जानने और स्मरण रखने कि ज़रूरी बात है कि आज संसार में अमेरिका से अधिक अनैतिक, अपराधी, बीमार, समाज और कोई नहीं. मीडिया पर कजा करके उसने इस सच्चाई पर पर्दा डाला हुआ है. नहीं जानते तो जानलें कि संसार के सबसे अधिक पागलखाने अमेरिका में हैं. हर साल दस लाख अवैध बच्चे नाबालि माताओं के पेट से वहां जन्म लेते हैं. अमेरिकी सीनेट के चेयरमैन रहे डा. निमोट गिमिश के इस कथन से अमेरिका कि असलियत सामने आजाती है कि———-
    ‘बारह साल कि बच्चियां बच्चों को जन्म देरही हैं, चौदह साल के लड़के एक-दूसरे को गोली से उड़ा रहे हैं, सोलह साल के एड्स पॉजीटिव आ रहे हैं. हम किस प्रकार की संस्कृति संसार को देरहे हैं ? ‘
    यह है असली चरित्र अमेरिका का. पुलिस तानाशाही वहां जैसी संसार के किसी तानाशाह देश में भी नहीं, इसपर आप ज़रा मुशकिल से ही विश्वास करेंगे. यह एकमात्र देश है जिसका शासन पूरी तरह से अपराधियों, अंडर वार्ड के हाथ में है. एकमात्र देश है जिसकी करेंसी छापने का अधिकार एक घराने के हाथ में यानी व्यापारी के हाथ में है. फेडरल बैंक किन्हीं व्यापारियों की जमात के अधिकार में है. तभी तो डालर के समानांतर करेंसियाँ प्रचलित करने के अनेक सफल प्रयास संसार में चले और चल रहे हैं ,डालर कभी भी धराशाई हो सकता है न. भीतर से खोखले होरहे अमेरिका की भवी उसकी करनियों से स्वयं निश्चित हो गई है. आखिर पचास लाख निरपराध इराकियों की ह्त्या का दंड भी तो प्रकृती ने उसे देना है.
    यह वर्णन ज़रूरी इसलिए था क्योकि भारत की छवि बिगाड़ कर हमारे मन में अपना शासन जमाने के प्रयास अमेरिका द्वारा व्यापक रूप से होरहे हैं.अतः उसका असली चेहरा हमारे सामनें आना ही चाहिए.
    अंतिम महत्व की बात यह है की हम जिन भवों का स्मरण करते हैं, जिन आवेगों में जीते हैं, वे ही साकार होते हैं. पशिम की दानवी ताकतें चाहती हैं की हम हरदम अपनी, अपने देश की, अपनी संस्कृति की, समाज की कमियों का बखान कर -कर के हीनता, निराशा, कायरता का शिकार बनते रहें. किसी भी देश और समाज को समाप्त करनें का यह एक सुस्थापित तरीका है. क्या अनजानें में हमें उनकी इस योजना को सफल बनाना है ? निश्चित रूप से “नहीं ”
    तो फिर अपनें समाज, संस्कृति, परम्पराओं का वर्णन, चिंतन कर -कर के उत्साहऔर आशा का संचार करना होगा. होश के साथ- साथ जोश का, पहाड़ जैसे अटल आत्म विश्वास का ज्वार जगाना होगा. निराशा, निरुत्साह के वर्णन से ये नहीं होना है.

  3. दो: ======भ्रष्टाचार खतम करो, मोदी का मार्ग अपनाओ======
    कुछ वर्ष पहले गांधी नगर जाकर मोदी जी से भेंट की थी। प्रति दिन दुपहर ३ बजे तक वे पूर्व नियोजित भेंटोमें व्यस्त होते थे। ३ के बाद वे, आगंतुकों से मिलते थे। मैं और मेरी धर्मपत्नि आगंतुक ही थे, पूर्व नियोजित समय लिया नहीं था।उनसे भेंट हो गयी, पर कुछ पह्चान थी।वे प्रचारक तो है ही। उनका विशेष योगदान,
    (१) गुजरातको (बहुतांश) भ्रष्टाचार रहित करनेमें सफलता।
    (२) इ गवर्नंस से सारी शासन यंत्रणाको, नियंत्रित और कार्यक्षम (Efficient) करना।(एक एक कामके १५ हजार तक होता था)
    (३)शिक्षकों की नियुक्तियां जिला जिला में ३-३ दिनका शिविर लगाकर, सारे जिलेके (principal) शाला प्रमुखोंको और इच्छुक शिक्षकोंको शिविर मे लाकर, खुले खुले सभीके सामने चयन करवाया जाना।(पहले जिसकी, १ से देढ लाख रिश्वत होती थी)
    (४) ग्रामीण महिलाओंके लिए स्थान स्थान पर घरेलु उद्योगोंकी प्रशिक्षा शिविरोमें दी जाती है।
    (५) जाति/मज़हब/संप्रदाय की संकुचित सोचसे उपर उठकर वे काम करते हैं।
    (६) किसी लघुमति व्यक्तिने उन्हे पूछा, कि आप हमारे लिए क्या करोगे? उत्तर था, मै सारे गुजरातियोंके लिए ही, काम करता हूं, उन्हीमें आप भी है। उनके साथ आप का भी काम करता हूं। भेद भाव मैं नहीं करता। राज्यको अलग अलग इकाइयों में बांटकर नहीं देखता।
    (७) महदाश्चर्य: ===>सारे भारतमें जब बहुतोने आशा त्याग दी थी।<===भारत इस पवित्र गुजराती गंगामें डुबकी लगाकर भ्रष्टाचार रहित हो जाए। यह स्वर्ण अवसर खोए ना।
    बाकी रिश्वत शाही ज़िंदाबाद, कौरवशाही ज़िंदाबाद, दुर-*जनतंत्र* ज़िंदाबाद। जब म्लेंछोसे भी सीख लेने का पाठ पढाने वाले, हमारे पूरखे थे, तो नरेंद्र मोदी का गोत्र ढूंढने की कोई आवश्यकता? उनके अच्छे सफल शासनका अनुकरण किया जाए। भारत विलंब ना करे, समय नहीं है, कल पीढीयां हमें दोष देंगी। छोडेंगी नहीं।विफल होनेका पर्याय नहीं है।
    गिरीश जी धन्यवाद।
    ॥वंदे मातरम्‌॥

  4. जुलाइ ६
    गिरीश जी- इस समस्या का मूल खोजने का कुछ प्रयास।
    यह प्रश्न मेरी मान्यता, जानकारी, और आभास से सोचता हूं, कि एक ’विष/दुष्ट चक्र’(Vicious Cycle) से जुडा है।
    ==भारत के आगे बढने में एक चीनकी दिवाल जैसी महाकाय दिवाल खडी है।==यह दिवाल है, इन अफसरशाहों की, जिनसे भ्रष्टाचार पनपा है, जनसामान्य कर्म फल से वंचित और निःसहाय, हताश, हो चुका है।इस लिए सभी ओर निराशा ही निराशा है। आगे बढनेके लिए या तो भ्रष्टाचारका सहारा लो, या बाहर भागो, या चोरी-डकैति, या नशीले पदार्थोंका धंधा इत्यादि करो।मिडीया भी जो भ्रष्ट हुआ इसका कारण यही है।
    जब जनता प्रवर्तक-प्रेरणा खो बैठी है, तब आप उसे किस सिरे से कर्म प्रवृत्त करोगे?
    पर, इसके लिए जनता भी सामूहिक रीतिसे कम उत्तरदायी नहीं है।
    मुझे वह दूध के शिवाभिषेक की बोध कथा, जिस में गांव वालो ने शिवलिंग पर दूधका धारा-अभिषेक करने की ठानी थी।और, हर घरसे एक एक लोटा दूध, अर्पण कर अभिषेक होना था। किंतु, जैसे ज्ञात है, कि हरेक गांव वाले ने स्वार्थवश, यह सोचकर कि मेरा एक लोटा पानी, बाकी लोगोंके दूध मे, पहचाना नहीं जाएगा, पानी ही चढ़ाया।और अंतमें, आप जानते ही है, कि”शुद्ध जल” का ही अभिषेक हुआ।
    बस ऐसे ही भारत में दूध के बदले, “शुद्ध जल”का अभिषेक हो रहा, है।
    यही हमारे भ्रष्टाचार परंपरा तंत्र की भी कहानी है।जैसे एक श्रृंखला की एक कडी होती है। एक कडीको आप ठीक कर ले, फिर भी श्रृंखला कोई दूसरी (अन्य) कडीसे टूट सकती है।परंपरा को गतिमानता (Momentum)होती है, जैसे एक दौडती हुयी रेल गाडी। वह त्वरित रूकती नहीं है।
    भ्रष्टाचार ऐसे ही तेज गति पा चुका है, उसे ब्रेक लगाना महा कठिन। पर मेरी जानकारी में गुजरातने यह आश्चर्य कर बताया है। वह बादमें अलग टिप्पणी में डालूंगा।

  5. बहुत अच्छा लेख. बधाई.
    लोकतंत्र और अफसरशाही का तो चोली दमन का साथ है. तू ड़ाल ड़ाल में पात पात. हर कर्मचारी, अफसर और जन प्रतिनिधि अपनी शक्तियों का तो उपयोग करते है किन्तु दायित्व और कर्त्तव्य को भूल जाते है. अपना अपना हिस्सा लेकर चुप बेठ जाते है.
    आज लोकतंत्र इसलिए शर्मिंदा है क्योंकि वह योग्य और सक्षम नहीं है. अफसरशाही तब तक मनमानी करती रहेगी जब तक उसमे उसपर लगाम नहीं लगेगी. लगाम लगेगा कौन.

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