मनमोहन कुमार आर्य,
आर्यसमाज ऋषि दयानन्द सरस्वती जी के कर कमलों द्वारा स्थापित आर्यसमाज है जिसकी स्थापना देहरादून के ऋषि भक्त पं. कृपाराम जी व उनके सहयोगियों के द्वारा 29 अप्रैल, 1879 को हुई थी। पं. कृपा राम जी आर्यसमाज के विख्यात विद्वान एवं संन्यासी पं. बुद्धदेव विद्यालंकार के नाना थे। आज समाज का साप्ताहिक सत्संग प्रातः 8.30 बजे अग्निहोत्र यज्ञ से आरम्भ हुआ। यज्ञ की समाप्ति के बात समाज के अन्तर्गत संचालित ‘श्री श्रद्धानन्द बाल वनिता आश्रम’ की तीन कन्याओं ने दो भजन गाये। पहला भजन था ‘भगवान तेरी महिमा क्या खूब निराली है, एक घर में अन्धेरा है एक घर में दीवाली है।’ दूसरा भजन के बोल थे ‘पल पल मैं तेरे पास रहता हूं, डरने की क्या बात है जब मैं तेरे हृदय में बैठा हूं।’ इसके बाद आश्रम की ही एक छात्रा काजल ने ईश्वर भक्ति का एक भजन प्रस्तत किया जिसके बोल थे ‘मेरे प्रभु जी मुझे बस तुम्हारा ही सहारा है, मेरे जीवन की किश्ती को प्रभु तुम्हीं ने उबारा है। मुझे अपनी ही छाया से कभी तुम दूर न रखना, ये विनती है मेरे भगवन मुझे अपनी शरण में ही रखना।’ भजनों के बाद सामूहिक प्रार्थना हुई जिसे आश्रम के बालक दिनेश ने प्रस्तुत किया। आरम्भ में उन्होंने कुछ प्रार्थना मन्त्रों का पाठ किया। इसके बाद उन्होंने भाषा में प्रार्थनापरक बहुत महत्वपूर्ण उदगार प्रस्तुत किये। उनके कहे कुछ शब्द थे ‘आत्म ज्ञान के दाता ईश्वर की हम उपासना करते हैं। हम आपके न्याय व शिक्षा को मानते हैं। आपकी भक्ति करने से ही मनुष्य दुःखों से छूटता है और भक्ति न करना ही मृत्यु आदि दुःखों का हेतु है। हम आपकी उपासना अपनी आत्मा और अन्तःकरण से करते हैं। इसके बाद दिनेश ने गायत्री मन्त्र का संस्कृत व उसके हिन्दी पद्यार्थ का पाठ किया। उन्होंने कहा कि सृष्टि का रचयिता ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप है। ईश्वर की पवित्र ज्योति सारे विश्व में जगमगा रही है। ईश्वर से बढ़कर कोई श्रेष्ठ और महान नहीं है। हे मेरे ईश्वर! जब भी हम गिरने लगें तो आप हमें सहारा देना। हम आपको अपने हृदय में उपस्थित जानकर जीवन में सदैव आगे बढ़ते रहे।’ इसके बाद हरिद्वार से पधारे आर्यसमाज के विद्वान डॉ. त्रिलोक चन्द्र जी का प्रवचन हुआ। डॉ. त्रिलोक चन्द्र ने कहा कि हमारा देश आर्यावर्त्त कभी विश्व में सिरमौर था। विश्व के देशों के लोग यहां अध्ययन के लिये आते थे और यहां से ऋषियों से ज्ञान प्राप्त कर अपने देश में ले जाकर वहां के नागरिकों को पढ़ाते थे। भारत में केवल आध्यात्मिक ज्ञान का अध्ययन अध्यापन ही नहीं होता था अपितु भौतिक विज्ञान सहित सभी विषयों का अध्यापन कराया जाता था। हमारे देश के ऋषि सभी विषयों के उच्च कोटि के विद्वान होते थे। उन्होंने कहा कि हमारे देश में ब्रह्मा से लेकर जैमिनी पर्यन्त ऋषियों की परम्परा चली है। इसके बाद देश व समाज का पतन हुआ। देश में अज्ञानान्धकार फैल गया। ईश्वर की देश और यहां के मनुष्यों पर पुनः कृपा हुई जिसका परिणाम महर्षि दयानन्द सरस्वती जी का आविर्भाव था। इस प्रकार जैमिनी पर टूटी ऋषि परम्परा पुनः आरम्भ हुई। आचार्य जी ने देश में आपसी फूट व स्वार्थ की चर्चा की। उन्होंने कहा कि हमारे देश में कोई विद्वान निःस्वार्थ भाव से देशवासियों के हित की बात करता है तो स्वार्थी लोग उसे स्वीकार नहीं करते।आगामी सप्ताह दीवाली व ऋषि निर्वाण दिवस को ध्यान में रखकर आचार्य त्रिलोक चन्द्र जी ने ऋषि जीवन की विस्तार से चर्चा की और बताया कि 29 सितम्बर, 1883 को ऋषि दयानन्द को जोधपुर में रात्रि के समय दूध में विष दिया गया था। यही विष दीपावली, 1883 को अजमेर में उनकी मृत्यु का कारण बना। आचार्य जी ने शाहपुर से अजमेर और अजमेर से जोधपुर जाने की पूरी कथा विस्तार से बताई। उन्होंने बताया कि योगी अरविन्द ने महर्षि दयानन्द को महापुरुषों में उत्तम माना है। उन्होंने कहा कि अरविन्द जी ने महापुरुषों की पर्वत की चोटियां से उपमा देकर ऋषि दयानन्द को पर्वतों की सबसे ऊंची चोटी माना है। डॉ. त्रिलोक चन्द्र ने कहा कि भारत वेदों के ज्ञान और महर्षि दयानन्द के बताये मार्ग को अपनाकर पुनः विश्व गुरु बन सकता है। महर्षि दयानन्द ने आध्यात्मिक एवं सामाजिक सभी प्रकार का ज्ञान दिया है। महर्षि दयानन्द जी ने अपने समय में नारी उत्थान का जो कार्य किया है उसके लिये देश की प्रत्येक नारी उनकी ऋणी हैं। विद्वान वक्ता ने कहा कि इस देश को अंग्रेजों की दासता से स्वतन्त्रता दिलाने में सबसे बड़ी भूमिका व योगदान जिस महापुरुष का है, वह व्यक्ति महर्षि दयानन्द हैं। डॉ. त्रिलोक चन्द्र जी ने यह भी कहा कि आज भारत में जो उन्नति हो रही है वह सब महर्षि दयानन्द की शिक्षाओं व प्रेरणाओं का ही परिणाम है। आर्यसमाज के युवा, कर्मठ एवं ऊर्जावान मंत्री श्री नवीन भट्ट जी ने विद्वान वक्ता का धन्यवाद किया। उन्होंने बताया कि जोधपुर के महाराज की प्रिय वैश्या नन्ही जान ने अपनी आलोचना से कु्रद्ध होकर महर्षि दयानन्द को विष पान कराया था। श्री नवीन जी ने कहा कि महर्षि दयानन्द को विषपान कराने के पीछे अनेक षडयन्त्र भी हो सकते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि ऋषि दयानन्द अमर हैं और हमेशा अमर रहेंगे। महर्षि दयानन्द मरे नहीं। कोई व्यक्ति महर्षि दयानन्द जी को मार नहीं सकता। उनका यशः शरीर हमारे बीच में आज भी विद्यमान है। वह सदा जीवित रहेंगे और अपने साहित्य और कार्यों से हमारा मार्गदर्शन करते रहेंगे। उन्होंने श्रोताओं को संकल्प लेने को कहा कि हम सब सदा महर्षि दयानन्द के बतायें मार्ग पर चलेंगे ओर वेदों का यथाशक्ति प्रचार करेंगे। आर्यसमाज के प्रधान डॉ. महेश कुमार शर्मा जी ने भी ऋषिभक्तों को सम्बोधित किया। उन्होंने आर्यसमाज धामावाला की स्थापना के विषय में अपने विचार प्रस्तुत किये। उन्होंने कहा कि आर्यसमाज धामावाला के पुराने विद्वान सदस्य एवं प्रधान व मंत्री पदों पर अनेक बार रहे वैद्य अमरनाथ शास्त्री के अनुसार आर्यसमाज धामावाला, देहरादून की स्थापना तिथि 29 अप्रैल, 1879 है। इस दिन मंगलवार था। महर्षि दयानन्द 29 अप्रैल 1879 को देहरादून में थे और उन्होंने अगले दिन 30 अप्रैल, 1879 को देहरादून से प्रस्थान किया था। उन्होंने बताया कि ऋषि दयानन्द के जीवनीकार पं. देवेन्द्रनाथ मुखापाध्याय ने भी 29 अप्रैल, 1879 को ही आर्यसमाज धामावाला की स्थापना तिथि स्वीकार की है। यह उल्लेख पं. मुखोपाध्याय जी ने ऋषि जीवन के पृष्ठ 507 पर किया है। विद्वान प्रधान जी ने बताया कि पं. लेखराम जी ने आर्यसमाज धामावाला देहरादून की स्थापना तिथि 29-6-1879 लिखी है जिसे देहरादून के एक विद्वान श्री यशपाल आर्य ने भी स्वीकार किया है।
हमारी (मनमोहन कुमार आर्य की) राय है कि महर्षि दयानन्द जी के देहरादून में प्रथमवार 14 अप्रैल, 1879 को आगमन के दिवस को याद रखा जाये और उस दिन को पर्व मानकर आयोजन किये जाये तो यह उचित होगा। महर्षि के आगमन और आर्यसमाज की स्थापना दोनों ही दिवस महत्वपूर्ण हैं। हमें महर्षि दयानन्द जी के देहरादून आगमन की तिथि को भूलना नहीं है। उनके आगमन के दिन से ही देहरादून नगर में वैदिक धर्म का प्रचार-प्रसार आरम्भ हो गया था। संगठन-सूक्त व शान्तिपाठ के साथ आर्यसमाज का साप्ताहिक सत्संग सम्पन्न हुआ। इसके बाद प्रसाद वितरण किया गया।