सरकार और रिजर्व बैंक के बीच गहराता विवाद

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प्रमोद भार्गव
भातीय रिजर्व बैंक और केंद्र सरकार के बीच गहराते मतभेद दुर्भाग्यपूर्ण हैं। दोनों के बीच यह असहमति तब सतह पर आई, जब आरबीआई के डिप्टी गवर्नर विरल वी आचार्य ने मुबंई में दिए एक भाषण में कहा कि ‘यदि रिजर्व बैंक की स्वायत्तता कमजोर पड़ी तो इसके परिणाम देश को भुगतने होंगे। इससे पूंजी बाजार में संकट खड़ा हो सकता है, जबकि इस बाजार से सरकार भी कर्ज लेती है। इसीलिए इस बैंक की स्वतंत्रता यथावत रहनी चाहिए।‘ दूसरी तरफ वित्त मंत्री अरुण जेटली ने बैंक की कार्य-शैली को आइना दिखाते हुए कहा है कि ‘संप्रग सरकार में 2008 से 2014 के बीच बैंकों द्वारा अंधाधुंध कर्ज बांटे गए, जबकि केंद्रीय बैंक मनमाने ढंग से बांटे गए इन कर्जों को वसूलने में नाकाम रहा। इसी के चलते बैंकिग उद्योग में फंसे कर्जों यानी एनपीए की समस्या खड़ी हुई। इस कारण 2008 में कुल बैंक ऋण 18 लाख करोड़ रुपए थे, जो 2014 में बढ़कर 55 लाख करोड़ रुपए हो गए। उस समय एनपीए भी 2.5 लाख करोड़ रुपए बताया जा रहा था, लेकिन जब हमारी सरकार ने 2014 में असेट क्वालिटी रिव्यू किया तो पता चला कि एनपीए 8.5 करोड़ रुपए हैं।‘ यह बात जेटली ने अमेरिका-भारत सामरिक भागीदारी फोरम की ओर से आयोजित शिखर सम्मेलन में बोलते हुए कही। सरकार और बैंक के बीच उभरे इस विवाद का एक नया पहलू राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के समर्थक अर्थशास्त्रियों को आरबीआई के निदेशक मंडल में अस्थाई सदस्यों के रूप में मनोनीत किया जाना भी माना जा रहा है।

इस तथ्य से सभी भलिभांति परिचित हैं कि बैंक और साहूकार की कमाई कर्ज दी गई धनराशि पर मिलने वाले सूद से होती है। यदि ऋणदाता ब्याज और मूलधन की किस्त दोनों ही चुकाना बंद कर दें तो बैंक के कारोबारी लक्ष्य कैसे पूरे होंगे ? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘भारतीय डाक भुगतान बैंक‘ का उद्घाटन करते हुए डाॅ मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार पर हमला बोलते हुए उसे बैंकों की खस्ताहाल के लिए जिम्मेबार ठहराया था। मोदी ने कहा था कि ‘वह फोन बैंकिंग का दौर था, जिस किसी भी धन्ना सेठ को कर्ज चाहिए होता था, वह ‘नामदार‘ व्यक्ति से फोन कराकर आसानी से कर्ज ले लेता था। इसी तरीके से मनमोहन सिंह सरकार के पहले छह सालों में उद्योगपतियों को दरियादिली से ऋृण दिए गए। इसीलिए 2013-14 में ही एनपीए बढ़कर 8.5 लाख करोड़ रुपए हो गया था, लेकिन इसे सरकार महज ढाई लाख करोड़ ही बताती रही। अब यह राशि करीब 12 लाख करोड़ हो गई है। माल्या और नीरव मोदी जैसे लोगों को इन्हीं के कार्यकाल में कर्ज दिया गया। हमारी सरकार ने एक भी डिफाॅल्टर को कर्ज नहीं दिया। अलबत्ता हम 12 सबसे बड़े डिफाॅल्टरों के खिलाफ कठोर कानूनी कार्यवाही करने में लगे हैं।‘ मोदी की इस बात में दम है। वाकई संप्रग सरकार के दौर में कंपनियों और निजी शिक्षा संस्थानों के दबाव में आकर ऐसे उपाय किए गए, जिससे बैंकों में जमा धन आसानी से कर्ज के रूप में प्राप्त हो जाए। इसी व्यवस्था के दुष्परिणाम है कि आज देश की समूची बैंक प्रणाली एक बड़ी परीक्षा के दौर से गुजर रही है।
अब नई जानकारियों के मुताबिक छोटे व्यापारियों, भवन एवं कारों के खरीददार और शिक्षा के लिए ऋण लेने वाले लोगों के भी एनपीए में बढ़त दर्ज की गई है। ऋण की सूचना देने वाली कंपनी क्रिफ हाई मार्क ने अपनी ताजा रिपोर्ट में कहा है कि लघु एवं मझौले कर्जों में शिक्षा, आवास वाणिज्यिक वाहन एवं कारों पर दिए गए कर्ज की वापसी भी नहीं हो रही है। इनमें आवास के लिए दिए गए कर्ज की हिस्सेदारी 18.27 फीसदी है, लेकिन इस श्रेणी में सकल एनपीए 1.77 फीसदी है, जो पिछले वित्तीय वर्श में 1.44 फीसदी था। शिक्षा ऋण की श्रेणी में एनपीए 6.13 प्रतिशत से बढ़कर 11 फीसदी हो गया है। वाणिज्यिक वाहन और निजि उपयोग के लिए ली गई कारों पर एनपीए 45 फीसदी बढ़ गया है। इन वाहनों के लिए कंपनियों के दबाव में जिस तरह से कर्ज दिए गए हैं, उसी अनुपात में प्रदूषण भी बढ़ा है। इस हकीकत से यह भी पता चलता है कि रिजर्व बैंक और सरकार ने कर्ज वसूली के जो भी उपाय किए है, उनके कारगर नतीजे फिलहाल नहीं निकले हैं।
वाहन ऋण जहां बढ़ी वाहन और आॅटो पाट्र्स कंपनियों के दबाव में दिए गए, वहीं शिक्षा ऋण, शिक्षा माफियाओं के दबाव में दिए गए। शिक्षा का निजीकरण करने के बाद जिस तरह से देश में शिक्षा का व्यवसायीकरण हुआ और देखते-देखते विश्व -विद्यालय और महाविद्यालय टापुओं की तरह खुलते चले गए, उनके आर्थिक पोषण के लिए जरूरी था कि ऐसे नीतिगत उपाय किए जाएं, जिससे सरकारी बैंक शिक्षा ऋण देने के लिए बाध्य हों। मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री रहते हुए शिक्षा के लिए ऋण देने के उदारवादी उपाय किए गए। प्रबंधन और तकनीकि शिक्षा प्राप्त करने के लिए ये कर्ज छात्रों का उदार शर्तों पर दिए गए। 2008 के बाद देश व दुनिया में जो आर्थिक मंदी आई, उसके चलते रोजगार का संकट पैदा हुआ और प्रबंधन व तकनीकि संस्थानों की हवा निकल गई। इस कारण एक तो अच्छे पैकेज के साथ नौकरियां मिलना बंद हो गई, दूसरे 2015-16 में प्रबंधन के 80 और 2017 में प्रबंधन और इजिनियंरिग के 800 काॅलेज बंद होने की खबरें आई हैं। जब शिक्षा के ये संस्थान इस दुर्दशा को प्राप्त हो गए, तो इनसे निकले छात्रों को अच्छा रोजगार मिलने और कर्ज पटाने की उम्मीद पर ही पानी फिर गया।इस शिक्षा के सिक्के का यह एक पहलू यह था, लेकिन दूसरा पहलू यह है कि प्रबंधन और तकनीकि शिक्षा को दिए गए इन कर्जों में से 90 फीसदी कर्ज ऐसे अभिभावकों की संतानों को दिए गए हैं, जो चाहें तो आसानी से कर्ज पटा सकते हैं। दरअसल ये कर्ज देने तो उन वंचित एवं गरीब लोगों को चाहिए थे, लेकिन बैंकों ने इन्हें इसलिए कर्ज नहीं दिए, क्योंकि इनकी आर्थिक हैसियत जानकर बैंक इस बात के लिए आश्वस्त नहीं हुए कि इनके बच्चे कर्ज पटा पाएंगे ? इसलिए ये कर्ज प्रशासनिक अधिकारियों, अन्य सरकारी कर्मचारियों, चिकित्सकों, अभियंताओं और बैंकों में चालू खाता रखने वाले व्यापारियों की संतानों को दिए गए है। पिछड़े, दलित और आदिवासी छात्रों को भी उन्हीं को शिक्षा ऋण मिला है, जिनके अभिभावक सरकारी सेवा में कार्यरत हैं। इसलिए इन पर यदि सख्ती की जाए, तो इनसे से बढ़ी राशि वसूली जा सकती है।

ये बैंकों में बढ़ते एनपीए के प्रमुख कारण हैं। लेकिन जो विवाद सरकार और बैंक के बीव गहरा रहा है, उसकी पृष्ठभूमि में कुछ इतर कारण भी हैं। सरकार चाहती है कि आरबीआई नाॅन-बैंकिंग फाइनेंस कंपनीज (एनबीएफसी) के नगदी संकट को दूर करने के लिए ठोस पहल करें। वह खास्ता हाल बैंकों के लिए प्राॅम्ट करेक्टिव एक्षन (पीसीए) की व्यवस्था में भी शिथिलता चाहती है। सरकार अर्थव्यवस्था में तरलता के लिए रिजर्व बैंक के खजाने से ज्यादा धन की निकासी चाहती है, जो बैंक को मंजूर नहीं है। दूसरे केंद्र सरकार अपने राजनीतिक उद्देश्य को साधने और संघ को प्रसन्न करने के लिए, जिन संघ समर्थक अर्थशास्त्रियों को आरबीआई के निदेशक मंडल में मनोनीत किया गया है। उनके कारगर हस्तक्षेप पर भी अमल की अपेक्षा रखे हुए है। इन सदस्यों में स्वदेशी जागरण मंच के प्रमुख विचारक एस गुरूमूर्ति भी शामिल हैं। गुरूमूर्ति चाहते है कि सूक्ष्म, लघु और मझोले उद्योगों को ऋण देने की शर्तें सरल की जाएं। यदि ऐसा होता है तो लघु एवं कुटीर उद्योगों को संजीवनी मिलेगी और कस्बे व ग्रामों में औद्योगिक विस्तार की झलक दिखाई देगी। संघ समर्थक अन्य सदस्य सतीश मराठे, रेवती अय्यर और सचिन चतुर्वेदी भी इन मुद्दों पर सहमत हैं। किंतु आरबीआई में जो पूंजीवाद के समर्थक सदस्य हैं, वे लघु उद्योगों के पक्षधर नहीं है। इस कारण यह विवाद टकराव के हालात उत्पन्न कर रहा है। हालांकि जो अर्थ-नीति के तटस्थ जानकार है, उनका मानना है कि सरकार एक समानांतर स्वतंत्र भुगतान नियामक संस्था खड़ी करके बैंक की स्वयत्तता को पलीता लगाना चाहती है। यह सही भी है कि जिन-जिन संस्थानों में समानांतर संस्थाएं गठित कि गई हैं, उनमें मतभेद ही ज्यादा उभरते दिखे हैं। इसलिए सरकार को रिजर्व बैंक के मौजूदा स्वरूप को ही सार्थक बनाने की जरूरत है।

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  1. प्रमोद भार्गव जी द्वारा लिखे सुशिक्षित विचारों युक्त सुपाठ्य निबंधों में एक, “सरकार और रिजर्व बैंक के बीच गहराता विवाद” आगामी लोकसभा निर्वाचनों के पूर्व संभवतः विपक्ष द्वारा उस पर खेली गई क्रूर राजनीति के अंतर्गत मीडिया में आए दिन दो-धारी तलवार समान उछाले गये विषय को समझाने में सहायक है| अंत में “संस्थानों में समानांतर संस्थाएं” व लेख में तथाकथित विवाद संबंधी अन्य संभावनाएं मेरी समझ में केवल मोदी शासन द्वारा राष्ट्र-हित विकास संबंधी सक्रिय व ठोस कदम उठाने के चिह्नक हैं| संस्थानों में समानांतर संस्थाएं अथवा रिजर्व बैंक के निदेशक मंडल में अस्थाई सदस्यों के रूप में मनोनीत जो कोई अर्थशास्त्री विधिवत संस्थाओं के ढाँचे को बदले बिना यदि उनकी योजनाओं व नीतियों के कार्यान्वयन में लम्बे समय से प्रतीक्षित सुधार ला सकें तो इसमें कौन बुराई है! मेरे विचार में संस्थानों पर शासन का राजनैतिक नियंत्रण नहीं बल्कि संस्थानों व उनमें समानांतर संस्थाओं के ऊपर कर्णधार/संचालन समितियां अपेक्षित विकास-उन्मुख परिणाम दिला सकती हैं|

    केंद्र में राष्ट्रीय शासन के आरम्भ से युगपुरुष मोदी ने अधिकारी-तंत्र को भारत पुनर्निर्माण में स्वेच्छा पूर्वक योगदान देने का आव्हान किया था| समाचार पत्रों में सीबीआई और अब आरबीआई को सुर्खी बटोरते देख मैं सोचता हूँ कि भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम १९४७ के अंतर्गत नेहरु कांग्रेस को विरासत में मिला अधिकारी-तंत्र क्या सचमुच कल तक की अराजकतापूर्ण राजनीति के चंगुल से निकल पाया है?!

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