टीबी के साथ दिव्यांगता सहित अन्य बीमारियों का खतरा

– टीबी के मरीजों की लंबे समय तक सही देखभाल जरूरी है। ऐसा न होने पर टीबी के दोबारा होने की संभावना बढ़ने के साथ ही डिसेबिलिटी, मौत या अन्य बीमारियां होने का खतरा भी बढ़ जाता है। टीबी का इलाज होने के बाद भी मरीज को फॉलोअप करना जरूरी है।
अमित बैजनाथ गर्ग, वरिष्ठ पत्रकार

रिसोर्स ग्रुप फॉर एजुकेशन एंड एडवोकेसी फॉर कम्युनिटी हेल्थ (रीच) और यूनाइटेड स्टेट्स एजेंसी फॉर इंटरनेशनल डवलपमेंट (यूएसएआईडी) की ओर से हाल ही में जारी एक रिपोर्ट का कहना है कि एक बार ट्यूबरक्‍युलोसिस यानी टीबी होने के बाद दोबारा यह बीमारी होने का खतरा तो बना रहता ही है, साथ ही दिव्यांगता जैसी अन्य बीमारियों होने का डर भी बरकरार रहता है। रिपोर्ट कहती है कि टीबी के मरीजों की लंबे समय तक सही देखभाल जरूरी है। ऐसा न होने पर टीबी के दोबारा होने की संभावना बढ़ने के साथ ही डिसेबिलिटी, मौत या अन्य बीमारियां होने का खतरा भी बढ़ जाता है। टीबी का इलाज होने के बाद भी मरीज को फॉलोअप करना जरूरी है।  
     वहीं भारत सहित 49 देशों में की गई कुछ स्टडीज कहती हैं कि पोस्ट टीबी इफेक्ट के रूप में मरीजों में मेंटल हेल्‍थ के मामले 23.1 फीसदी, रेस्पिरेटरी संबंधी 20.7 फीसदी, मस्कुलोस्केलेटल 17.1 फीसदी, सुनने की शक्ति संबंधी 14.5 फीसदी, दृष्टि संबंधी 9.8 फीसदी, रेनल के 5.7 फीसदी और न्यूरोलॉजिकल के 1.6 फीसदी मामले देखे गए हैं। हालांकि निम्‍न-मध्‍यम आय वाले देशों जैसे भारत और पाकिस्तान आदि में मरीजों में न्यूरोलॉजिकल नुकसान के सबसे ज्यादा 25.6 फीसदी मरीज देखे जा रहे हैं। वहीं अधिक आय वाले देशों में रेस्पिरेटरी परेशानियां 61 फीसदी और मेंटल हेल्‍थ की दिक्कत 42 फीसदी पाई गई हैं।
     विशेषज्ञों का कहना है कि टीबी के बाद तीन तरह ही डिसेबिलिटीज देखी गई हैं। पहला, जिसमें कोई दिव्यांग व्यक्ति दिव्‍यांगता के साथ टीबी की चपेट में आता है और टीबी ठीक होने के बाद भी उस दिव्‍यांगता से ग्रस्‍त रहता है। दूसरा, टीबी के इलाज के दौरान दिव्‍यांगता होती है और इलाज बंद होने के साथ ही खत्म भी हो जाती है। तीसरा, ऐसी दिव्‍यांगता जो इलाज के दौरान शुरू होती है, लेकिन टीबी ठीक होने के बाद भी जीवन भर बनी रहती है। अधिकांश मामलों में टीबी की चपेट में आने के बाद ही दिव्‍यांगता देखी गई है। वहीं जो पहले से दिव्यांग हैं, उनमें टीबी संक्रमण के बाद स्थिति और भी गंभीर हो जाती है। गौरतलब है कि टीबी सर्वाइवर्स में मृत्‍यु दर सामान्‍य लोगों के मुकाबले करीब तीन गुना ज्यादा होती है।
     विशेषज्ञ बताते हैं कि भारत में पल्मोनरी टीबी के लॉन्‍ग टर्म प्रभावों को देखने के लिए की गई स्टडी में पाया गया है कि जहां भी टीबी की पहचान कर पाने या उसे डायग्नोस कर पाने में जितनी देरी हुई है, उतनी ही टीबी रोग की गंभीरता बढ़ गई है और सांस संबंधी विकलांगता देखी गई है। ऐसा मुख्य रूप से बुजुर्गों में देखा गया है। इनमें भी पुरुष सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं। विशेषज्ञ कहते हैं कि टीबी के बाद डिसेबिलिटी की दो वजहें हैं। पहली खुद टीबी संक्रमण और दूसरा है टीबी की कुछ दवाएं। कहा जा रहा है कि एमडीआर टीबी के मामलों में एंटी टीबी ड्रग्स का साइड इफेक्ट ज्यादा देखा गया है, जो डिसेबिलिटी के मामलों को बढ़ाता है। इसके बाद कई तरह की चिंताएं विशेषज्ञों को सताने लगी हैं, जिनका समाधान तलाशने में वे जुट गए हैं।
     विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) का कहना है कि दुनिया की कुल जनसंख्या के 15 फीसदी लोग किसी न किसी प्रकार की अक्षमता से जूझ रहे हैं। इसमें वातावरण की बाधाओं के कारण सामाजिक भागीदारी से लेकर सामाजिक सेवाओं में सहयोग न कर पाना भी शामिल है। 2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में 26.8 फीसदी लोग दिव्यांग हैं। हालांकि समय के साथ और बुजुर्गों की संख्या बढ़ने के कारण ये आंकड़े भी काफी बढ़ गए हैं। गौरतलब है कि भारत में टीबी की बीमारी को जड़ से खत्म करने का लक्ष्य 2025 रखा गया है, जबकि विश्व में यह 2030 है। हालांकि इन लक्ष्यों को आसानी से प्राप्त किया जा सकेगा, ऐसा दिखाई नहीं दे रहा है। जिस तरह टीबी की बीमारी नित नई शक्ल में आ रही है, उससे इन लक्ष्यों को पाना आसान तो नहीं कहा जा सकता।
     वहीं टीबी के बढ़ते मामले इस बीमारी को खत्म करने के लिए भी कई तरह की चुनौती पैदा कर रहे हैं। इसके साथ ही पोस्ट टीबी के बाद सेहत पर पड़ रहे प्रभावों से भी पैदा हो रही गंभीर बीमारियां चिंता का सबब बन रही हैं। टीबी की वजह से कई तरह की डिसेबिलिटी यानी दिव्‍यांगता भी बढ़ रही है। इसके अलावा टीबी के साथ पैदा हो रही अन्य बीमारियां भी नए खतरों की ओर लगातार इशारा कर रही हैं। टीबी सहित इन सभी बीमारियों को जड़ से मिटाने के लिए सामूहिक प्रयासों की दरकार है। केवल सरकारों के भरोसे बैठने से काम नहीं चलेगा। इसके लिए आम आदमी को भी आगे आना होगा और लोगों को जागरूक बनाने की दिशा में काम करना होगा। अगर हम सभी मिलकर काम करेंगे तो टीबी को जड़ से खत्म करने के लक्ष्यों को हासिल कर सकेंगे।

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