पंचायतों में महिला आरक्षण से ग्रामीण भारत में बदलाव का दौर’’ 

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लेखक – अशोक बजाज,

स्थानीय इकाई के रूप में त्रि-स्तरीय पंचायत राज व्यवस्था प्रजातंत्र की सबसे लघु इकाई है । गांव स्तर पर ग्राम पंचायतें, ब्लाक स्तर पर जनपद पंचायतें तथा जिला स्तर पर जिला पंचायतें  कार्यरत है । प्राचीन काल से ही भारत के गांवों में पंचायतों का बहुत बड़ा महत्व रहा है, लोंगों का इस संस्था के प्रति पूर्ण विश्वास एवं समर्पण रहा है । गांव की कानून व्यवस्था एवं प्रबंधन पंचायतों के माध्यम से कुशलता पूर्वक संचालित होते आया हेै । लोग पंचायत से जुड़े लोगों को ‘‘पंच परमेश्वर’’ तथा उसके फैसले को ईश्वर की आज्ञा मान कर चलते आये हैं । वर्तमान में पंचायती-राज संस्थायें सरकार के नियमों के तहत गठित होती है । इसमें पात्रता, योग्यता या नेतृत्व क्षमता के बजाय सरकारी नियमों के तहत जन प्रतिनिधि चुने कर आते हैं । वर्ष 1993 से 73वें संविधान संशोधन के द्वारा इसके सशक्तिकरण की दिशा में प्रयास शुरू हुआ, इसे त्रि-स्तरीय स्वरूप देकर अनेक विभागों को प्रत्यारोपित किया गया है । संविधान संशोधन के माध्यम से पंचायती-राज संस्थाओं को 29 मामले सौंपें गये हैं । इसके पीछे शासन की मंशा चुने हुये प्रतिनिधियों के हाथ मे विभिन्न विभागों का काम सौंपकर सरकार के कार्यो का सही नियंत्रण करना है । सत्ता के विकेन्द्रीकरण की दिशा में वास्तव पर यह उल्लेखनीय कदम था ।
पंचायत राज व्यवस्था के संचालन व नियंत्रण का अधिकार चुने हुये जनप्रतिनिधियों के हाथ में होता है । 73वें संविधान संशोधन के पूर्व पंचायतों में पुरूषों की प्रधानता होती थी । महिलाओं को अपवाद स्वरूप ही जगह मिल पाती थी, लेकिन 73 वें संविधान संशोधन में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया गया । यह प्रावधान तीनों स्तरों के सभी पदों पर किया गया । छत्तीसगढ़ सरकार ने एक कदम आगे बढ़कर सन् 2008 में महिला आरक्षण 33 प्रतिशत से बढ़ाकर 50 प्रतिशत कर दिया । इससे पंचायत-राज प्रणाली में महिलाओं की भागीदारी और अधिक बढ़ गई । पंचायत चुनाव के माध्यम से गांव-गांव में महिला नेतृत्व विकसित होने लगा है, अगर हम यूं कहें कि पंचायत राज संस्थाओं में महिलाओं का पूरा दबदबा कायम हो गया है तो कोई अतिश्याक्ति नहीं होगी, क्योंकि कहने को तो आरक्षण मात्र 50 प्रतिशत है लेकिन निर्वाचित पंचायत प्रतिनिधियों पर नजर डालें तो उनमें से निर्वाचित महिलाओं की संख्या 60 प्रतिशत से कम नहीं है, यानी अनारक्षित क्षेत्रों में भी महिलाएं पुरूषों को पीछे छोड़ रही है । छत्तीसगढ़ में कुल 10971 ग्राम पंचायतें, 146 जनपद पंचायतें तथा 27 जिला पंचायतें हैं । तीनों इकाईयों के निर्वाचित प्रतिनिधियों की संख्या लगभग 1 लाख 90 हजार है । इनमें आधे से अधिक पदों पर महिलाएं काबिज हैं ।
पंचायत-राज व्यवस्था में महिलाओं की भागीदारी बढ़ने से पंचायतों के कामकाज में पारदर्शित आई है क्योंकि महिलाएं गृहलक्ष्मी होने के कारण अन्य सामाजिक दायित्व को भी परिवार की तरह ही निभाती है । यही कारण है कि महिला आरक्षण से गांवों में शिक्षा, स्वास्थ्य एवं स्वच्छता के कार्यक्रमों को प्राथमिकता मिल रही है । महिलाएं बच्चों के शिक्षा व स्वास्थ्य के प्रति पुरूषों के मुकाबले ज्यादा गंभीर होती हैं । गांव में शुद्ध पेयजल व्यवस्था, कानून व्यवस्था एवं महिला सुरक्षा जैसे मुद्दों पर महिला जनप्रतिनिधियों की जागरूकता काबिल-ए-तारीफ है। पंचायत राज व्यवस्था में महिलाओं की प्रधानता होने से गांव में शांति व सद्भाव का वातावरण निर्मित होने लगा है । प्रसन्नता की बात तो यह है कि महिलाएं बाल विवाह, दहेज प्रथा, छुआछूत एवं मृत्युभोज जैसी सामाजिक बुराईयों एवं कुरीतियों को समाप्त करने में काफी मददगार सिद्ध हो रही हैं । मुख्यमंत्री खाद्यान्न योजना एवं स्कूलों में मध्यान्ह भोजन का संचालन भी महिलाओं द्वारा बेहतर तरीके से किया जा रहा है । प्रदेश में नशाखोरी जैसी सामाजिक बुराई को जड़ से समाप्त करने का बीड़ा भी महिला जनप्रतिनिधियों एवं स्व सहायता समूह की बहनों ने उठाया है । महिलाओं का नशाखोरी के खिलाफ चलाया जा रहा आंदोलन किसी सामाजिक क्रांति से कम नहीं है। उनकी जागरूकता से नशामुक्त समाज की स्थापना में मदद मिलेगी ।
अतः यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि पंचायत-राज संस्थाओं में 50 प्रतिशत देने से गांव, समाज, रीति-रिवाज एवं रहन सहन में काफी बदलाव आया है । यह बदलाव ग्रामीण भारत को नया स्वरूप प्रदान करेगा ।

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