साधु समाज और संपत्ति-विवाद

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प्रमोद भार्गव

                अखाड़ा परिषद् के अध्यक्ष रहे महंत नरेंद्र गिरी का फांसी पर झूलना एक गंभीर सामाजिक विकृति और सांस्कृतिक विद्रूपता का संकेत है। धार्मिक स्थलों की बढ़ती संपत्ति, महिलाओं से संदिग्ध संबंध और भोग-विलास के उपकरण भी विवाद की जड़ में हैं। साधु-संतो ंके बीच अपने को ज्ञान के क्षेत्र में श्रेष्ठ बनाए रखने की प्रतिस्पर्धा़ तो शताब्दियों से रही है, लेकिन अब यह होड़ संपत्ति के मोह और स्त्रियों के भोग से ज्यादा जुड़ी दिखाई दे रही है। दर्जनों साधुओं की कथित अलौकिक प्रतिभा भोग के इन साधनों तक पहुंचकर दम तोड़ चुकी है। दूसरी तरफ यदि मुस्लिम समाज के धर्म स्थलों पर नजर डालें तो पता चलता है कि मुल्ला-मौलवियों ने इस्लाम को धर्मांतरण और आतंकवाद का औजार बनाया हुआ है। पिछले तीन दशक से यह गोरखधंधा देश के सीमांत प्रदेशों में धड़ल्ले से चल रहा है। हाल ही में उत्तर-प्रदेश एटीएस ने मौलाना कलीम सिद्दीकी को मतांतरण के आरोप में हिरासत में लिया है। वे अपने ट्रस्ट के जरिए विदेशी धन से इस कुत्सित काम में लगे हुए थे। राज्य में इस अपराध में अब तक 11 लोगों की गिरफ्तारी हो चुकी है। एक समय पंजाब में नए राष्ट्र खालिस्तान की कल्पना का आधार भी धर्म बना था। साफ है, धर्म स्थलों में धर्म चरित्र निर्माण एवं मुक्ति व मोक्ष का मार्ग न रहकर व्यक्गित सुख व साधना के मार्ग खोलने का माध्यम बनता जा रहा है। यदि यह समाज मोह-माया से मुक्त रहकर राष्ट्र व चरित्र निर्माण में लग जाए तो देश में सुख और शांति स्थापित होने में लंबा समय नहीं लगेगा ?       

शंकराचार्य ने साधु-संन्यासियों के सार्थक उपयोग के लिए ही चारों दिशाओं में चार मठों की स्थापना की थी। इन मठों को ज्योतिर्मठ, श्रंृगेरी, गोवर्धन और शारदा मठ के नामों से जाना जाता है। ये मठ धर्म और संस्कृति के प्रचार-प्रसार के साथ सामाजिक कार्यों से भी जुड़े रहे है। इतिहास गवाह है आजादी की लड़ाई में अखाड़ों से जुड़े बाबाओं ने महारानी लक्ष्मीबाई, नाना साहब और तात्या टोपे के साथ अंग्रेजों से युद्ध भी लड़े थे। महाराष्ट्र में भोईरपाड़ा शिरडी के साई बाबा मंदिर न्यास और सुजलान कंपनी के सयुक्त प्रयासों के फलस्वरूप पवनचक्की परियोजनाओं से 14 लाख यूनिट बिजली का उत्पादन हो रहा है। यह बिजली महाराष्ट्र बिजली बोर्ड को बेची जा रही है। न्यास ने 15 करोड़ का निवेश कर यह उपलब्धि हासिल की है। न्यास पवन चक्कियों की संख्या बढाने के काम में भी लगा है। राष्ट्र निर्माण से जुड़ी बुनियादी समस्याओं के समाधान की दिशा में किसी धार्मिक न्यास द्धारा की गई यह एक महत्वपूर्ण पहल है।

                                मानव शक्ति के रूप में भारत के पास विशाल साधु समाज है। जिसे अब तक आतंरिक चेतना एवं अतीन्द्र्रीय शक्तियों के नियंत्रण का ही मुख्य कारक एवं प्रतीक माना जाता है। यदि यह शक्ति राष्ट्र्र निर्माण संबंधी विकास कार्यों से जुड़ी बुनियादी समस्याओं के हल में जुट जाए तो राष्ट्र का बहुत भला हो सकता है। क्योंकि इस समाज के साथ अपार शारीरिक बल होने के साथ धार्मिक न्यासों की संपत्ति के रूप में अकूत आर्थिक बल भी है। दिवंगत जयगुरुदेव बाबा के पास 1200 करोड़ की संपत्ति सार्वजनिक हुई थी। इसके पहले सत्य संाई बाबा के पास भी अकूत दौलत के भण्डार मिले हैं। हालांकि सांई न्यास करीब 500 ग्रामों को अपनी ओर से पेयजल उपलब्ध कराता है और हजारों लोगों को शिक्षा व स्वास्थ्य की मुफ्त सेवा भी देता है।

                                भष्ट्राचार के चलते भारत का संस्थागत एवं प्रशासनिक ढ़ांचा गड़बड़ा गया है। केन्द्र सौ पैसे भेजता है तो सार्थक उपयोग केवल 15 पैसे का ही हो पाता है। इसलिए नौकरशाही की कार्य प्रणाली और ईमानदारी पर सवाल उठते रहते हैं। ऐसे में मानवीय पक्षों को उभारते हुए धार्मिक ट्रस्ट और उनका संरक्षक साधु समाज विकास कार्यों से जुड़कर राष्ट्र निर्माण के क्षेत्र में कारगर हथियार साबित हो सकता है। क्योंकि हताशा से भरी इस दुनिया में धर्म ही ऐसा इकलौता क्षेत्र है, जिसमें निर्विवाद रूप से  उत्तरोत्तर विकास होता जा रहा है। भारत के मंदिरो, गुरूद्वारांे, मस्जिदों और गिरिजाघरों में भक्तों की संख्या निरंतर बढ़ रही है और भक्त सामथ्र्य से ज्यादा दिल खोलकर दान भी दे रहे हैं। भारत के हर परिर्वतनकारी युग में मठ, मंदिरों और साधुओं ने सास्ंकृतिक चेतना का नवजागरण कर राष्ट्र निर्माण को नया मोड़ देते हुए समय-समय पर उदात्त भावनाओं और मंगलकारी सिद्धान्तो का प्रतिपादन किया है। जिससे धर्म दीर्धकालीक सत्ताधारियों के राजनीतिक लाभ का हितपोषक न बना रहे। यही कारण है कि विश्वामित्र चाणक्य, महावीर, बुद्ध, जगतगुरू शंकरचार्य, गुरूनानक देव, चैतन्य महाप्रभु, दयानंद सरस्वती, महार्षि अरविंद, स्वामी विवेकानंद और ज्योतिबा फुले जैसे राष्ट्रप्रेमी स्वप्न दृष्टिाओं ने इस देश को आततायी विदेशी अतिक्रमणकारियों से लड़ने की शक्ति देने के साथ अज्ञान, भूख, अराजकता और असमान समाजिक ढ़ांचे से जूझने की भी चुनौती व प्रेरणा आम जनमानस को दी। मध्ययुग के अंधकार से भारतीय जनमानस को कबीर, तुलसी, सूर, रैदास, दादू, मलूकदास और नानकदेव जैसे संत कवियों ने ही उबारकर नवयुग के निर्माण की आधारशीला रखी थी।

                स्ंवतत्रता पूर्व भारत में करीब 60 लाख साधु थे, लेकिन वर्तमान में इनकी संख्या बढ़कर एक करोड़ के ऊपर पहुंच गई है। इनके पन्द्रह अखाड़े हैं। जिनके नियम साधुओं पर लागू होते हैं। हालांकि साधु समाज की इस गणना में रोगी, भिखारी, बाजीगार, सपेरे, नट, मदारी, लावारिस और अपाहिज भी शुमार हैं। इनकी संख्या 80 प्रतिशत है। पहुंचा हुआ साधु इन्हें साधु नहीं मानता। ऐसे ही साधुओं की बदौलत घर्म और नैतिकता का मूलमंत्र खंडित हो रहा है। ये साधु ग्रामीण क्षेत्रों में आसानी से पैठ बनाकर ग्रामीणों को गांजा, भांग, बीड़ी, सिगरेट जैसे व्यसनों का आदि बना देते हैं। यही साधु वेषधारी हत्या, बलात्कार, ठगी और अपहरण जैसे गंभीर मामलों के अरोपी भी निकलते हैं। दरअसल इन साधुओं को जब अनपेक्षित मान सम्मान मिलने लगता है तो यह बौरा जाते हैं। नतीजतन ज्यादा से ज्यादा धन बटोरने और भौतिक सुविधायें जुटाने में लग जाते हंैं। ऐसे साधुओं की जहां जनता द्वारा उपेक्षा की जाने की जरूरत है, वहीं साधु समाज इन्हें शिक्षित कर समाज के लिए हितकारी साधु भी बना सकता है। जिससे ये साधु समाज को मद्य निषेध एवं सदाचारी के संस्कार तो दें ही, अन्ना हजारे के रालेगांव की तर्ज पर ग्रामीण स्तर पर साक्षरता, पर्यावरण संरक्षण, जल संग्रह, मवेशी पालन व गोबर गैस संयंत्रो से बिजली उत्पादन के कार्यों की संपन्नता के लिए सहकार की सामुदायिक भावना भी पैदा करें। यदि ऐसा होता है तो ग्रामों में जातीय विद्वेष कम होगा और स्थानीय स्तर पर रोजगार की उपलब्धता के चलते शहरों की ओर युवा वर्ग का पलायन भी बाधित होगा।

                हालांकि साधु जीवन पर अब रमता जोगी, बहता पानी की कहावत पूरी तरह चरितार्थ नहीं हो रही है। मोक्ष के प्रचारक ये साधु भौतिकवाद के शिकार होकर वैभव व प्रदर्शन की प्रवृत्तियों के आदि भी हो रहे है। भौतिक सुखों और कारों का काफिला इनके इर्द गिर्द मंडरता रहता है। सूचना तकनीक के चलते तमाम साधुओं का भू- मण्डलीयकरण तो हुआ ही, बाजारवाद की गिरफ्त में भी ये आ गए। अतएव धर्म अरबों-खरबों के उद्योग में परिवर्तित हो गया है। देखते-देखते बीते दो दशकों के भीतर हरिद्वार, ऋषिकेश, अयोघ्या, उज्जैन, शिरडी, त्र्यंबकेशवर जैसे धार्मिंक नगरों में साधु-संतो की धास-फूस की झोपड़ियां आलाशीन अट्ट्रालिकाओं में तबदील हो गईं। इसी कारण साधु समाज पर सवाल उठाये जाने लगे कि मोह माया और भौतिक सुखों से ऊपर उठने का दावा करने वाले जो सिद्ध पुरुष स्वंय भोग विलास में संलग्न हो गए हैं, वे आध्यात्म का उपदेश देकर क्या समाज को भौतिकवादी बुराईयों से उबार पाएंगे ?

                साधु का प्रमुख गुण समष्टिगत होता हैं। इसलिए वह धर्म का प्रतिनिधि है। साधु के सदाचरण, संयमी, असंचयी और सात्विक होने का प्रभाव जितना समाज पर पड़ता है, उतना जनबल तथा धनबल का नहीं पड़ता इसलिए इन दिव्य पुरुषों के एक इशारे पर लोग करोड़ांे लुटा देते हैं। यही कारण है कि अपेक्षाकृत कम प्रसिद्धि पाए साधु अथवा मठ-मंदिर के पास भी करोड़ों-अरबों  की नकद और अचल परिसंपत्तियांं हैं। जिन साधुओं का कोई उत्तराधिकारी नहीं है, उनका डाकघरोंं व बैंकों में लाखों-करोड़ों जमा हैं। ऐसे में इन साधुओं के आत्मलीन होने के बाद यह धन लावारिस धोषित कर दिया जाता है। आखिर इस धन को साधु समाज के सुपुर्द कर स्थानीय विकास कार्यों में क्यों नही लगाया जा रहा ? इस तरह की मांग अयोध्या के राजनीतिक कार्यकता और बुद्धिजीवी कई मर्तबा कर भी चुके हैं। इनका दावा है कि अयोध्या के बैंकों व डाकधरों में बाबाओं का इतना लावारिस धन जमा है कि यदि इसे निकालकर विकास कार्यों में ईमानदारी से लगाया जाए तो अयोघ्या का कायाकल्प हो जाएगा।

                साधु समाज भारतीय वेद, उपनिषद और पुरण इतिहास के पुनर्लेखन एवं तार्किक व्याख्या लेखन के सिलसिले में भी उल्लेखनीय कार्य कर सकते हैं। क्योंकि हमारे प्राचीन साहित्य को धार्मिक पाखण्ड, कर्मकाण्ड और अंधविश्वास का प्रचारक मानकर खिल्ली उड़ाई जा रही है। यहां तक कि राम और कृष्ण जैसे विराट व्यक्तित्व वाले राष्ट्रनायकों तक को पुरातत्व विभाग मिथक कहकर विवाद का विषय बना देता है। बाहरी लोगों के द्वारा हमारी संस्कृित को आध्यात्मिक और प्राचीन संस्कृत साहित्य को कपोल कल्पना करार देकर आसानी से उनके ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक, खगोलीय और वैज्ञानिक महत्व को नकार देते हैं। जबकि वास्तविकता है कि हमारे पौराणिक आख्यनों में प्रणय प्रसंगो के साथ, राजनीति, दण्डनीति, अर्थनीति जल और शिक्षा प्रबंधन की सरंचना के सूत्र व सिद्धांत निहित हैं। युद्धशास्त्र, विमानशास्त्र, वास्तुशास्त्र, आयुर्वेद और कामशास्त्र विषयक हमारी प्राचीन उपलब्धियां चमकृत करने वाली हैं। भाषा व्याकरण और योग के क्षेत्रों में हम अनुपम हैं। जरूरत है, इनके गूढ़ सूत्रो के रहस्य को खोलकर इन्हें मानव उपयोगी बनाया जाए ? इस संदर्भ में हम बाबा रामदेव से उत्प्रेरित हो सकते हैं। जिन्होंने पातंजली योग सूत्र के रहस्यों को लाइलाज बीमारियों से मुक्ति का साध्य बनाकर आधुनिक चिकित्सा विज्ञान को ही चुनौती दे डाली। दरअसल हमें अपने सांस्कृतिक मूल्यों के यथार्थ को ठीक से समझने की आवशयकता है। लेकिन इस संदर्भ में पूर्वगृह व दुरागृह संास्कृतिक अराजकता पैदा करने के कारण बन रहे हैं। बहरहाल, साधु-समाज का राष्ट्र निर्माण से जुड़ना वर्तमान की जरूरत है।

प्रमोद भार्गव

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  1. अखाड़ा परिषद् के अध्यक्ष रहे महंत नरेंद्र गिरी का संदिग्ध परिस्थिति में निधन और उनके मृत शरीर का फांसी पर झूलना सचमुच एक गंभीर सामाजिक विकृति और सांस्कृतिक विद्रूपता का संकेत है। अभी तो हमारा ध्यान साधु समाज और संपत्ति-विवाद में इस विवादित संपत्ति की “रक्षा में लगे सर्पों” की ओर जाता है| क्रिया योग आश्रम के योग गुरु स्वामी योगी सत्यम का कहना है कि “जिस महंत का दस्तखत करने में हाथ कांपता था वो आठ पेज का सुसाइड नोट कैसे लिख पाएंगे।” और, अमर उजाला के अनुसार, योगी सत्यम द्वारा वक्तव्य, “एक पुलिस अफसर और महंत नरेंद्र गिरि के बीच बड़े पैमाने पर वित्तीय लेनदेन था|” को गंभीरता से लेते हुए अपराध-स्थल की जांच-पड़ताल दक्षतापूर्वक करनी होगी, उदाहरणतः भीतर से बंद कमरे में कितने पुलिस कर्मचारी इत्यादि अन्दर गए और कितने लोग कमरे से बाहर आये|

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