बहुत जगह पढ़ता था, बहुत जगह सुनता था और बहुत जगह उस सुने हुए को बोलता भी था कि भारत के इतिहास को वामपंथी और अंग्रेजी लेखकों ने ध्वस्त कर दिया है। आज इस बात को मीडिया में काम करते हुए प्रत्यक्ष देख रहा हूं। कल नवभारत टाइम्स डॉट कॉम पर डॉ सामबे जी का ब्लॉग पढ़ा। मेरा आपसे आग्रह है कि मेरे इस ब्लॉग को पढ़ने से पहले कृपया यहां क्लिक करके
(https://blogs.navbharattimes.indiatimes.com/opsambey/religious-thoughts-also-responsible-for-rape-like-atrocities-to-women/)
डॉ सामबे के ब्लॉग को पढ़ लें। उनका विषय बहुत अच्छा था लेकिन उन्होंने अप्रत्यक्ष रूप से जिस चीज को भारत में हो रहे बलात्कारों के लिए जिम्मेदार ठहराने का प्रयास किया था, वह ठीक नहीं था। डॉ सामबे मुझसे बहुत बड़े हैं तथा अनुभवी भी। इस नाते जाहिर है उनका अध्ययन भी मुझसे कई गुना अधिक रहा होगा लेकिन उनके ब्लॉग में दिए गए उदाहरण पूरी तरह से निराधार हैं। महाभारत के जिस अनुशासन पर्व का डॉ सामबे ने अपने ब्लॉग में उल्लेख किया है, उसके विषय में तो मुझे जानकारी नहीं है लेकिन हितोपदेश के विषय में जो लिखा है उसमें मुझे कुछ भी गलत नहीं लगता क्योंकि विज्ञान भी यह मानता है कि मासिक धर्म के कारण महिलाओं में काम प्रवृत्ति पुरुषों की तुलना में अधिक होती है।
आगे डॉ सामबे जी ने लिखा है कि
नाग्निस्तृप्यति काष्ठानां नापगानां महोदधिः ।
नान्तकः सर्वभूतानां न पुंसां वामलोचना ॥
यह श्लोक विदुर नीति के 40वें अध्याय से लिया गया है। इसका अर्थ होता है, ‘लकड़ियां आग को तृप्त नहीं कर सकतीं, नदियां समुद्र को तृप्त नहीं कर सकतीं, सभी प्राणियों की मृत्यु यम को तृप्त नहीं कर सकती तथा पुरुषों से कामी स्त्री की तृप्ति नहीं हो सकती।’ अर्थात तृप्ति के पीछे भागना व्यर्थ ही है। इसका अर्थ यह नहीं है कि ‘स्त्री, पुरुष से कभी तृप्त नहीं हो सकती।’
सत्यकेतु द्वारा अनुवादित विदुर नीति को सर्वाधिक प्रमाणिक माना जाता है। इसके पेज नंबर 123 पर यह बात एकदम स्पष्ट लिखी हुई है।
आगे डॉ सामबे जी ने रामचरित मानस का जिक्र किया है। हालांकि मैं व्यक्तिगत रूप से श्रीराम के मूल चरित्र को गोस्वामी तुलसीदास के नजरिए से न देखकर महार्षि वाल्मीकि की दृष्टि से देखता हूं। लेकिन फिर भी गोस्वामी तुलसीदास के ज्ञान पर संदेह नहीं कर सकता। उनके लेखन से कुछ स्थानों पर असहमत रहता हूं लेकिन जिस चौपाई का उदाहरण डॉ साहब ने दिया है वह पूरी तरह से गलत है।
भ्राता पिता पुत्र उरगारी। पुरुष मनोहर निरखत नारी॥
होइ बिकल सक मनहि न रोकी। जिमि रबिमनि द्रव रबिहि बिलोकी।।
इस चौपाई में काकभुशुण्डि जी कहते हैं कि हे गरुड़जी! (शूर्पणखा- जैसी राक्षसी, धर्मज्ञान शून्य कामान्ध) स्त्री मनोहर पुरुष को देखकर, चाहे वह भाई, पिता, पुत्र ही हो, विकल हो जाती है और मन को नहीं रोक सकती। जैसे सूर्यकान्तमणि सूर्य को देखकर द्रवित हो जाती है (ज्वाला से पिघल जाती है)
इसमें सामान्य स्त्रियों के विषय में बात नहीं हो रही है। इसके लिए इस चौपाई के ठीक पहले की चौपाई से बहुत कुछ स्पष्ट हो सकता है।
सूपनखा रावन कै बहिनी। दुष्ट हृदय दारुन जस अहिनी॥
पंचबटी सो गइ एक बारा। देखि बिकल भइ जुगल कुमारा॥
अर्थात: शूर्पणखा नामक रावण की एक बहन थी, जो नागिन के समान भयानक और दुष्ट हृदय की थी। वह एक बार पंचवटी में गई और दोनों राजकुमारों को देखकर विकल (काम से पीड़ित) हो गई।
किसी के द्वारा लिखे गए साहित्य को यदि हमें समझना है तो उसे उसी लेखक/ कवि के दृष्टिकोण से ही समझना पड़ता है अन्यथा अर्थ का अनर्थ हो जाता है। हम किसी के साहित्य को तब तक नहीं समझ सकते जब तक हम उस समय की मूल परिस्थितियों की अनुभूति न करें। लेकिन आज के दौर में तो भारतीयता को गाली देना फैशन बन गया है। यह हमारा दुर्भाग्य है कि हमारे बीच में ऐसे भी लोग हैं जो शूर्पणखा जैसे चरित्र को भी जस्टिफ़ाई करने लगते हैं। श्रीराम की बात आती है तो उन लोगों को सिर्फ बुराइयां दिखती हैं और रावण अथवा शूर्पणखा की बात आने पर उन लोगों के मन में ‘मानवाधिकार’ जाग जाता है। वैसे तो वे राम, लक्ष्मण, दुर्गा सहित प्रत्येक सद्चरित्र के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगा देते हैं लेकिन रावण, महिषासुर और शूर्पणखा जैसों का नाम आते ही वे उसके दुष्कर्मों को जस्टिफाई करने लगते हैं। वे लोग यहां तक कहने लगते हैं कि देखो, रावण एक महिला को उठाकर लाया लेकिन उसे छुआ तक नहीं, वे कहने लगते हैं कि रावण ने तो सीता अपहरण अपनी बहन के लिए किया। इतना ही नहीं वे लोग महिषासुर को दलितों का पूर्वज बताकर, वहां भी दलित-सवर्ण मामला खोज लेते हैं। इन खास ‘प्रजाति’ के लोगों को दुनिया के एकमात्र पूर्ण पुरुष श्रीकृष्ण में कोई अच्छाई नहीं दिखती लेकिन इनको यह दिख जाता है कि द्रौपदी ने दुर्योधन का मजाक उड़ाया था। इनको द्रौपदी की वह हंसी तो दिख जाती है लेकिन अभिमन्यु के साथ जो अन्याय हुआ वह नहीं दिखता।
इनको भारतीय सनातन इतिहास में कोई वीर नहीं दिखता लेकिन ये अकबर को, घास की रोटियां खाकर भी एक हमलावर के सामने न झुकने वाले महाराणा प्रताप से महान बताने लगते हैं। ये एकलव्य में एक दलित खोज लेते हैं लेकिन इनको श्रीराम का शबरी और निषादराज के प्रति प्रेम नहीं दिखता। मुझे पता है कि इस ब्लॉग के बाद कुछ बुद्धिजीवी राम चरित मानस, मनुस्मृति या किसी और ग्रंथ से कुछ सूक्तिवाक्य या ले आएंगे। तो चलिए कुछ दिनों तक ऐसे ही श्लोकों की खोज और उनका अध्ययन शुरू करता हूं। अगले ब्लॉग में कुछ ऐसी जानकारियों के साथ मिलूंगा जिनको आज ये तथाकथित बुद्धिजीवी अपने ढंग से पेश करते हैं और गौरवशाली भारतीय साहित्य एवं परंपराओं को भी गलत प्रमाणित करने की कोशिश करते हैं।
विश्व गौरव